भारत में सांप्रदायिक संघर्ष नहीं ‘ वर्ग संघर्ष’ आवश्यक है …!

dharmकभी मक्का से मदीने का ,कभी दमिश्क से बग़दाद का , कभी येरुशलम से जॉर्डन का ,कभी तुर्की से फारस का एवं फारस का रियाद से तथाकथित ‘खिलाफत का संघर्ष ‘- पवित्र इस्लाम की रक्षा के बहाने विशुद्ध ‘सत्तात्मक संघर्ष ‘ था .लगभग चौदह सौ सालों के रक्तरंजित इतिहास में ‘कर्बला का संघर्ष ‘अवश्य ही सत्य और न्याय के लिए था .हालांकि उसके मूल में भी सत्ता का ही संघर्ष विद्यमान था।उमैयाओं का कुरेशों से ,तुर्कों का उज्वेगों से , उज्वेगों का ईरानियों से , ईरानियों का मुगलों से और मुगलों का अफगानों से अनवरत चलते रहने वाले संघर्ष में इस्लाम के विभिन्न मतों के आंतरिक संघर्ष की दुहाई भले ही दी जाती रही हो किन्तु वस्तुतः तो सत्ता का ही संघर्ष था। वेशक इस जेहादी संघर्ष में कौम की भलाई और इस्लाम के उसूलों की वकालत कम ,अपितु अपने -अपने क़बीलों के वर्चस्व और रीति-रिवाजों के प्रति दुराग्रह ज्यादा परिलक्षित होते रहे हैं . बाज़-मर्तबा सच्चाई पर चलने वालों को भी सिर्फ इस वजह से घोर कष्ट उठाने पड़े या ‘हलाक़ होना पडा क्योंकि वे इस प्रकार के खूनी संघर्ष से गैर इस्लामिक संसार को ध्वस्त करने के हिमायती नहीं थे .

इस रक्तरंजित संघर्ष ने न केवल इस्लामिक दुनिया में बल्कि सारे संसार में प्रगतिशील मानवतावादी सिद्धांतों को अपनाने के लिए बल प्रयोग के सिद्धांत पर अमल किया . इस बलात धर्मपरिवर्तन या किसी भी तरह के आयातित कबीलाई सभ्यता को भारतीय उपमहादीप में भी यूरोप की तरह प्रतिरोध का सामना करना पड़ा . चूँकि यूरोपियन सभ्यता पर ईसाइयत बनाम पोप की प्रभुसत्ता को मजबूती से स्थापित हुए सदियाँ बीत चुकीं थींऔर वे युद्ध के नए-नए हथियारों से लेस हो चुके थे, इसलिए अरबों और तुर्कों को यूरोप में कोई खास सफलता नहीं मिली . कई जगहों पर शिकश्त भी मिली . किन्तु भारत में इन आक्रान्ताओं को ज्यादा प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा . क्योंकि उस दौर में भारतीय समाज पर जैन और बौद्ध ‘मतों’ का प्रभाव अधिक था . शुद्ध शाकाहारी किन्तु छूआछूतवादी वैष्णव् ,ब्राह्मण-वैश्य,और शूद्र वर्ण भी अधिकांश अहिंसा वादी होने के साथ -साथ सहिष्णु थे . “सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे सन्तु निरामया …” के सिद्धांत को पसंद करते थे ,अतः इस्लामिक जेहाद के नाम पर किये गए तमाम आक्रमणों के दौरान तत्कालीन भारतीय आवाम ने यूरोपियन आवाम की तरह कोई संगठित प्रतिवाद नहीं किया . केवल राजे-रजवाड़े और सामंत ही अपने पुरातन हथियारों और मुठ्ठी भर सेना के साथ विदेशी आक्रमणकारियों से जूझते रहे .मुहम्मद-बिन-कासिम ,महमूद गजनवी ,मुहम्मद गोरी ,खिलजी ऐबक ,,तुगलक ,तुर्क और मंगोल याने मुगल कोई भी आक्रमणकारी स्वतंत्र शासक नहीं था . अधिकांस किसी न किसी बादशाह या खलीफा के गुलाम थे. भार त से लूटकर जो भी सम्पदा वे हासिल करते थे ,उसमें से मय कमसिन जवान हिंदुस्तानी लड़कियों के वे’तत्कालीन ‘खलीफा’ के समक्ष पेश करने के लिए बाध्य होते थे . जो ऐंसा नहीं करता था उसे बिन-कासिम की तरह बीच रस्ते मरवाकर टुकड़े-टुकड़े करवाकर बोर में भरवाकर ‘खलीफा ‘ के सामने पेश किया जाता था . इन जुल्मतों को भुलाकर भी भारतीय आवाम ने हमेशा इस्लाम को मानने वालों को यथोचित सम्मान दिया .
भारतीय सामंतों के आपसी संघर्ष और जनता में घोर जातीय विभाजन के कारण- बाह्य आक्रमणकारी भारत के कुछ हिस्से पर काबिज तो हो गए किन्तु वे अधिशन्ख्य जनता को अपने ‘मजहब ‘ में शामिल करने में फिर भी विफल रहे . संभवत : उनका मकसद भी मजहब से अधिक राज्यसत्ता प्राप्ति ही हुआ करता था . कभी कभार किसी कट्टर वादी ने भले ही कोशिश करके देख ली हो किन्तु उसे भी उतनी सफलता नहीं मिली ,जितनी प्यार-मोहब्बत का पैगाम देने वालों , मानवीय सम्वेदनाओं के समवाहक-सूफ़ीसंतों , पीरों ,औलियों और फकीरों को सफलता प्राप्त हुई . भारत के तत्कालीन जातिवादी -छुआछूत से पीड़ित और सभ्रांत समाज से बहिष्कृत लोग और जो लोग अन्यान्य कारणों से परित्यक्त थे वे मजबूरी में विदेशी हुक्मरानों के नौकर-चाकर बन गए और कालान्तर में उन्होंने इस्लाम भी स्वीकार कर लिया। इसके अलावा यदा-कदा जोर जबरजस्ती तथा प्रलोभन से भी भारतीय समाज के एक छोटे से हिस्से का इस्लाम में समाहित होना संभव हुआ ,किन्तु चूँकि भारत में इस्लाम के पूर्व से ही एक शाश्वत मजहब या रिलिजन के रूप में सशक्त ‘सनातन-धर्म ‘ विद्यमान था और उसका अपना व्यापक प्रभाव था इसलिए अधिकांस आवाम ने अपने धर्म या सिद्धांत नहीं बदले . इस्लामिक शासकों के दौर में जब जब सिखों ,ब्राह्मणों ,बनियों , राजपूतों और दीगर समाजों पर मजहब परिवर्तन का दवाव बढ़ा तो भी इन गैर इस्लामिक जमातों ने अपना मजहब नहीं बदला अनेकों उदाहरण हैं जो इतिहास में ‘गुरु गोविन्दसिंह , गुरु तेग बहादुर’ जैसे बलिदानों से भरे पड़े हैं . उस दौर में भारत में निसंदेह सत्ता संघर्ष ने साम्प्रदायिक संघर्ष का रूप धारण कर लिया था . आजादी की लड़ाई में जब हिन्दू -मुस्लिम एक होने लगे तो अंग्रेजों ने अतीत के दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास से गुण-स्सोत्र लेकर भारतीय समाज को जाति-धरम -मजहब में बांटने के उद्देश्य से अनेक चालें चलीं और देश का बँटवारा कर वापिस विलायत चले गए ,साम्प्रदायिकता का जो बीज अंग्रेजों ने बोया था उसकी फसल आजादी के बाद न केवल भारत बल्कि पाकिस्तान के हुक्मरान बखूबी काटते चले जा रहे है और जनता बुरी तरह साम्प्रदायिकता के चंगुल में फंसी हुई है .
इस देश में अतीत में अनेक धर्म-पंथ -मत-दर्शन और सिद्धांत थे ,नास्तिक भी थे और नास्तिकों को सबसे अधिक सम्मान प्राप्त था किन्तु किसी तरह का साम्प्रदायिक दुराग्रह नहीं था . सभी ओर से आवाज आती थी:-

” सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख्भाग्वेत … ”

” विश्व का कल्याण हो ,सभी प्राणियों में सद्भावना हो , ब्रह्म एको द्वतीयो नास्ति … ”

“अयम निजः परोवेति गणना लघु चेतसाम ,उदार चरिताम तू वसुधेव कुटुम्बकम ….”

इन वैदिक या सनातन मूल्यों और इस्लाम के सिद्ध्नातों में बेहद समानता होने से दोनों ओर के अनुयायी एक दुसरे का सम्मान करते हुए भी अपने-अपने सिद्धांतों पर अटल रहने को स्वाभाविक रूप से संकल्पित थे किन्तु जिस तरह दुनिया के अधिकांस सत्ताधीशों ने आवाम को बांटकर राज्य संचालन के सूत्र अंग्रेजों से ही सीखे हैं, वैसे ही भारत पाकिस्तान के हुक्मरानों ने भी इन्ही कुटिल नीतियों को आज तक इस्तेमाल किया है क्योंकि अंग्रेज दुनिया पर राज कर चुके हैं और इस सिद्धांत को दुनिया भर में आजमा चुके हैं .
शेष विश्व की तरह भारतीय उपमहादीप में भी उपनिवेशवादियों द्वारा इस्लामिक और क्रिश्चियन आक्रान्ताओं के रूप में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए;साम- दाम-दंड -भेद का प्रयोग किया जाता रहा था. भारत में आजादी के दौरान जब हिन्दू महा सभा ,मुस्लिम लीग और राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ गठित हुए तो जनता को साम्प्रदायिक आधार पर विभाजित करना और आसान हो गया . परिणाम स्वरूप भारत में साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ . सनातन मूल्यों की हिफाजत और अन्ध राष्ट्रीयतावाद के कारण न केवल साम्प्रदायिक संघर्ष तीव्र होता चला गया बल्कि नव-उपनिवेशवाद के रूप में साम्राज्यवादियों की आर्थिक गुलामी का आगाज होता चला गया . वैसे भी अतीत में भारत कभी भी धर्म निरपेक्ष राष्ट्र नहीं रहा .कभी मनुवाद- ब्राह्मणवाद ,कभी क्षत्रीय प्रभुत्व का सामंतवाद ,कभी बौद्धवाद ,कभी जैन् वाद ,कभी ‘सवर्णवाद ‘ कभी ‘आर्य् वाद ‘ कभी द्रविण वाद ‘ कभी ‘अहिंसा वाद ‘ को राज्य आश्रय मिलता रहा है . मुगलों और तुर्कों ने यदि इस्लाम को संरक्षण दिया तो युरोपियन कौमों ने ईसायत के लिए सब कुछ किया . केवल हिन्दुओं का कोई उदाहरण नहीं जब किसी राजा या सम्राट ने ‘हिंदुत्व ‘ को संरक्षण दिया हो ! आज जब दुनिया में ईसायत और इस्लामिक संसार में सभ्यताओं के संघर्ष छिड़े हैं तब भारतीय समाज अपने उन मूल्यों का शंखनाद पुन : कर सकता है जो सौ साल पहले स्वामी विवेकानंद ने प्रतिपादित किये थे . उन्होंने कहा था:-

” धर्म या मजहब का मतलब तोडना नहीं जोड़ना होता है ”

हिंदुत्व को वेशक केवल उसके वेहतरीन सिद्धांतों और मूल्यों पर गर्व हो सकता है किन्तु वर्तमान युग में अब उसकी भूमिका वेहद सकारात्मक हो सकती है जब -जब दुनिया में झगडे बड़े तब -तब इसी सनातन धर्म की ओर ही आशा की नजरों से देखा जाता रहां है . चूँकि इसमें जड़ता नहीं है , यह गतिशील धर्म है ,इसके वैज्ञानिक सिद्धांत और बेहतरीन मानवीय मूल्य आज समस्त संसार को लुभा रहे हैं किन्तु ढोंगी बाबाओं ,नकली स्वामियों ,धन्धेवाज कपटी साधुओं और राजनीती में धर्म का द्राक्षासव मिलाने वाले राजनीतिज्ञों ने इस सनातन धर्म को ‘ हिंदुत्व ‘ के नाम से बार-बार दाव पर लगाकर इसे धूमिल ही किया है ।
वे यह भूल जाते हैं कि भौगोलिक रूप आज का भारत अतीत में कभी भी एकजुट नहीं रहा .अधिकांस राजा -रजवाड़े इस या उस पंथ को मानने वाले थे और उनके गुरु भी इसी तरह से विभिन्न मत के थे . नतीजा भी साफ़ था कि जनता याने प्रजा केवल शाशकों के ‘आमोद-प्रमोद ‘ के लिए संसाधन जुटाने का साधन मात्र थी . ये गुलामी की इन्तहा तब थी जब भारत में न तो इस्लाम आया था और न ईसाइयत . हालांकि विदेशी यायावरों-हमलावरों के भारत आगमन से पूर्व भी भारत में विभिन्न सम्प्रदायों -पंथों -मतों के आपसी संघर्ष पुरातन काल से चले आ रहे थे . यह सब इस आलेख की विषय वस्तु नहीं है और वैसे भी यह सब कलुषित दास्ताँ मध्य युगीन भारत के घृणित सामंतवादी रक्तरंजित इतिहास के पन्नों पर विद्यमान है . जिसे कुछ मूढमति भग्नावशेष दृष्टा ‘ भारत का स्वर्ण युग ‘ कहने से नहीं अघाते ! जबकि वस्तुतः भारत की मेहनतकश जनता का -किसानों का और शिल्पकारों का तत्कालीन शासक वर्ग ने जितना शोषण किया उतना तो मुगलों और अंग्रेजों ने भी नहीं किया . फर्क सिर्फ इतना था तब शासक या राजा’ विष्णु ‘ का अवतार हुआ करता था और सारी जनता उसकी ‘दास’ हुआ करती थी .जबकि मुगलों ,तुर्को ,अफगानों ,उज्वेगों की गुलामी में शासक चाहे राजा हो ,महाराजा हो किन्तु वो ‘खलीफा ‘ से रिकग्नीशन पाकर ही सत्तासीन हो सकता था .याने वो भी गुलाम और जनता याने रैयत उसकी गुलाम .अंग्रेजों का भी यही हाल था .कहने को वे भारत में -वायसराय ,अंग्रेज बहादुर ,लाट साहब और श्वेत प्रभु थे किन्तु वे भी इंग्लेंड के ‘राजा या रानी ‘ के वेतन भोगी कारिंदे मात्र थे और उनके अधीन समस्त भारत की ही नहीं बल्कि समस्त संसार की आवाम उनकी गुलाम थी . भारत की विराट आबादी को नियंत्रित करने के लिए ब्रिटिश साम्राज्य ने यहाँ की जनता को बांटने का सबसे सरल तरीका यही अपनाया कि ‘फूट डालो और राज करो ‘ एक तरफ उन्होंने मुसलमानों को सहलाया – मुस्लिम लीग बनवाई और दूसरी ओर कट्टरपंथी हिन्दुओं को भरमाया और ‘राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ ‘ के वनाने में परोक्ष रूप से सहयोग प्रदान किया।जब-जब कांग्रेस ने ,आजाद हिद फौज ने ,क्रांतिकारियों ने ,साम्यवादियों ने ,समाजवादियों ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष किया तब-तब मुस्लिम लीग और ‘संघ ‘ ने उपनिवेश वादियों से प्यार की पीगें बढ़ाई . जब द्वतीय महायुद्ध में इंग्लेंड की अर्थव्यवस्था तथा सेन्यशक्ति जर्जर हो गई और दुनिया भर में उसके साम्राज्य का सूर्य अस्त होने लगा तो उसने भारत से भी अपना बोरिया बिस्तर बाँध लेना उचित समझा। जाते -जाते भी उन्होंने बेहद घटिया और अमानवीय दुश्चक्र के तहत देश को साम्प्रदायिक आधार पर बाँट दिया .अखंड भारत में जो साम्प्रदायिकता के बीज इतिहास ने बोये थे उनको खाद-पानी देकर अंग्रेज अपने वतन लौट गए और हम भारत, पाकिस्तान बंगला देश ,नेपाल और श्रीलंका में साम्प्रदायिकतावाद की लहलहाती फसल देखने को अभिशप्त हैं .सत्ता के लोभी इस फसल को काटने के लिए लगातार प्रयत्न शील हैं . भारत में अल्पसंख्यक एक वोट बेंक बन गए हैं अतएव उनको ‘तुष्ट ‘ करने वाले ‘धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सरकार बनाते आये हैं . यदा -कदा बहुसंख्यकों के हितेषी बनकर ‘हिंदुत्ववादी ‘ भी सत्ता प्राप्ति के निमित्त जुगाडमेंट करते रहते हैं . वर्तमान में नरेन्द्र मोदी के नेतत्व में संघ परिवार का यही ध्येय है . साम्प्रदायिक राजनीती की वयान्बाजी से प्रेरित होकर कुछ गुमराह युवक आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं। मुंबई ,हैदराबाद ,सूरत ,दिल्ली ,बोधगया और बेंगलोर इत्यादि मानव कृत हिंसक कार्यवाहियों के मूल में जिन तत्वों का हाथ है वे हिन्दुओं के ,मुसलमानों के , भारत की जनता के और भारत के शुभचिंतक नहीं हो सकते और उन्हें प्रेरित करने वाले हिन्दुत्ववादी या’ मुस्लिम फिरकापरस्त ‘ राजनैतिक व्यक्ति और ‘दल’देश की बागडोर संभालने के योग्य नहीं हो सकते .कांग्रेस और भाजपा दोनों को यदि देश की चिंता है तो साम्प्रदायिक राजनीति से दूर रहना होगा . कांग्रेस ने यदि मुस्लिम फिरकापरस्ती ईसाइवाद और जतीयतावाद से मोह नहीं छोड़ा तो नरेन्द्र मोदी का ‘हिन्दुत्ववादी ‘ अश्वमेध सफल होने से कोई नहीं रोक सकता ,और संघ परिवार ने यदि बार-बार हिंदुत्व राग छेड़ा तो देश का विकाश तो नहीं विनाश जरुर सुनिश्चित है . साम्प्रदायिकता की ज्वाला में सारा भारत ही नहीं बल्कि समूचा ऐशिया धधक उठेगा .
विगत बीसवीं शताब्दी में तो साम्प्रदायिक उन्माद से दुनिया को बचाने के लिए बेहतरीन कवच थे . महान अक्तूबर क्रांति -सोवियत साम्यवादी वोल्शैविक क्रांति हुई ,भारतीय स्वाधीनता संग्राम और उसके क्रान्ति जन्य मूल्य थे . चीन की लाल क्रांति हुई , दक्षिण अफ्रीकी क्रांति हुई . पूंजीवादी -साम्राज्वाद के आपसी द्वन्द के शीत युद्ध जनित भय से त्रस्त आवाम को ‘ विश्व शांति ‘ के रूप में भारत के ‘पंचशील सिद्धांत’ थे . दुनिया तब ‘मोनोपोलर ‘थी .अब तो एक ध्र्वीय विश्व की चौखट है और उसके डालर के आगे भारत का रुपया चीं बोल रहा है ऐंसे हालत में भारत को साम्प्रदायिक अलगाव के ध्रुवीकरण की नहीं बल्कि ‘धर्म निरपेक्षता ‘ की सख्त जरुरत है .ताकि सबको रोटी-कपडा -मकान , सभी को अपने -अपने मजहब-धर्म -पंथ के पालन का या धर्मनिरपेक्ष रहने का अधिकार हो . सभी को शिक्षा -स्वास्थय और आजीविका उपार्जन के अवसर सामान हों . सभी को राष्ट्र निर्माण और वैश्विक चुनोतियों से मुकानले का भान हो .सभी को वास्तविक प्रजातांत्रिक स्वतंत्रता -समानता और सद्भाव का ज्ञान हो फिर चाहे वो हिन्दू हो या मुसलमान हो .यह तभी संभव है जब कांग्रेस और भाजपा अपनी-अपनी साम्प्रदायिक रणनीति का राजनीती से त्याग करें . इसकी शुरुआत बहुशंख्य्कों याने हिन्दुओं को स्वयम करनी होगी .
मानव सभ्यता के इतिहास में यह दर्ज किये जाने योग्य अकाट्य सत्य है कि भारत के मुसलमान दुनिया के अन्य मुसलमानों के सापेक्ष हर मायने में बेहतर हैं .इस्लाम और उसकी शिक्षाओं को जो आदर- सम्मान भारत में उपलब्ध है वो अन्यत्र दुर्लभ है . देवबंदी ,बरेलवी ,मदनी सहित देश के अधिकांस मुस्लिम संस्थानों के विद्द्वानों को न केवल भारत अपितु सारे ‘मुस्लिम ‘ संसार में सम्मान प्राप्त है . भारत में जितनी मस्जिदें हैं ;उतनी दुनिया में अन्यत्र कहीं नहीं . भारत में जितने मुसलमान हैं; दुनियां में अन्यत्र कहीं नहीं। भारत में जितनी दरगाहें हैं; दुनिया में अन्यत्र शायद कहीं नहीं .भारत में वक्फ बोर्ड के पास जितनी जमीन और मिलकियत है उतनी किसी छोटे मुल्क की समस्त सम्प्दा भी नहीं है . यहाँ ‘गरीब नवाज’ हैं ; ख्वाजा मोयनुद्दीन चिस्ती हैं , हजरत निजामुद्दीन ओलिया हैं ,शेख सलीम चिस्ती हैं . भारत में मुस्लिम विरासत के अनेक प्रतीक हैं , अनेक भव्य कीर्तिमान सुरक्षित हैं . यह केवल भारत ही है जहां अल्पसंख्यक होने के बावजूद किसी किस्म का भेदभाव नहीं किया जाता . सारे संसार में शायद एकमात्र यह भारतीय प्रजातांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र भारत ही है जहां हिन्दुओं का बहुमत होने के वावजूद एक मुसलमान – भारत का राष्ट्रपति , उपराष्ट्रपति , मुख्य – न्यायधीश , मुख्य चुनाव आयुक्त विदेश मंत्री ,विदेश सचिव और राज्यपाल भी हो सकता है .
साहित्य -संगीत – कला -फिल्म, शाशन-प्रशाशन और व्यापार के किस क्षेत्र में मुसलमान पिछड़े हुए हैं ? क्या अन्य धर्मावलम्बियों और सम्प्रदायों के सापेक्ष मुसलमान बेहतर स्थति में नहीं हैं? इन तमाम सकारात्मक उपलब्धियों के बावजूद यदि मुसलमानो को या उनके तथाकथित हितैषी – खैरख्वाहों को लगता है कि केवल उनके साथ ही अन्याय हो रहा है; तो उन्हें यह जानने में किसी आर टी आई क़ानून की आवश्यकता नहीं होगी कि भारत के चालीस करोड़ निर्धनतम नागरिकों में महज दो करोड़ मुसलमान ही अति-दरिद्र की श्रेणी में आते हैं बाकी अड्तीश करोड़ गैर मुस्लिम अति दरिद्रों की दुर्दशा पर आंसू बहाने से उन्हें किसी शरीयत क़ानून या ‘कुराने -पाक’ ने नहीं रोक रखा है ! यदि कौम के शुभचिंतकों को सम्पूर्ण राष्ट्र के व्यापक हितों से परे केवल अपनी मजहबी-जात- बिरादरी की ही चिंता है तो ये सरासर निहित स्वार्थ है , नाइंसाफी है , वास्तविकता तो ये है कि वे न केवल जाग रहे हैं बल्कि सोने का बहाना करते हुए जानबूझ कर अपने हिस्से के कर्तव्यों से भी वंचित हो रहे हैं . वे जाने-अनजाने उन तत्वों को उत्प्रेरित किये जा रहे हैं जो इस्लामिक ‘जेहाद’ के नाम पर भारत के न केवल हिन्दुओं बल्कि मुसलमान सहित अन्य तमाम आवाम को भी यदा -कदा अपने आतंकी उन्माद से लहुलुहान करते रहते हैं .
इन दिनों दुनिया भर में और खास तौर से भारतीय उपमहादीप में लगातार साम्प्रदायिक आधार पर आवाम की दुरावस्था का बखान किया जा रहा है . बेशक समेकित के रूप से -शोषण-उत्पीडन की शिकार मेहनतकश आवाम में हिन्दू-मुस्लिम -ईसाई और वे तमाम मजदूर -किसान भी हैं जो अपने आपको किसी खास मजहब या पंथ से जोड़ना जरुरी नहीं समझते . यह देश का दुर्भाग्य है कि इस ‘सर्वहारा ‘ वर्ग को जाति -मजहब -भाषा और क्षेत्रीयतावाद के पृथक्करण का शिकार बनाया जाता रहा है ताकि यह वर्ग एक ताकत के रूप में पूंजीवादी वर्ग को कोई चुनौती न दे सके . यह एक जाना -माना घ्रणित पूंजीवादी हथकंडा है- जिसे हिन्दुत्ववादी अपने तरीके से, मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यक अपने तरीके से और सर्वधर्म- समभाव् वादी [कांग्रेस इत्यादि] अपने तरीके से निरंतर अपनाते रहते हैं।कांग्रेस अपने आपको धर्मनिरपेक्षता का प्रहरी बताकर निरंतर सत्ता सुख भोग रही है जबकि वास्तव में वह धर्म-निरपेक्ष है ही नहीं। वह तो धर्म सापेक्ष अर्थात सर्व धर्मं सम -भाव याने गांधी जी के -इश्वर-अलाह तेरे नाम … की अनुमोदक है . वास्तविक धर्मनिरपेक्ष तो केवल साम्यवादी और समाजवादी ही हो सकते हैं क्योंकि वे जिस मेहनतकश वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं – वह धर्म-मजहब – जाति से परे समस्त ‘शोषित सर्वहारा’ वर्ग के दृष्टिकोण का पोषक है। जिसने स्वामी विवेकानंद के उस कथन को ह्रुदय्गम्य किया है कि – भारत की निर्धन को धर्म – मजहब -अध्यात्म ज्ञान की नहीं’ रोटी ‘ की जरुरत है .
मंडल कमीशन , सच्चर कमिटी ,कांग्रेस ,सपा ,बसपा,बुखारी ,ओवेसी ,लालू ,नीतीश और कु छ अधकचरे प्रगतिशील वामपंथी बुद्धिजीवी भी -कई मर्तबा मुसलमानों और तथाकथित पिछड़ों की ही दयनीय स्थति का ही बखान करते आ रहे हैं क्यों ? यदि नरेन्द्र मोदी ‘सर्वांगीण’ विकाश का कोई माडल पेश करने की कोशिस कर रहे हैं तो उनकी बात सुनी जानी चाहिए ,यदि मोदी के विचार से किसी की कोई असहमति है तो उसे भी सामने आना चाहिए . हम सभी जानते हैं कि भारत में शोषित-पीड़ित -निर्धन -मेहनतकश- हिन्दुओं, बौद्धों , ईसाइयों से मुसलमानों की स्थति फिर भी हर क्षेत्र में बेहतर है . स्वाधीनता संग्राम में और उसके बाद भारत राष्ट्र निर्माण में भारत के मुसलमान किसी से पीछे नहीं रहे। भारत-पाकिस्तान -बँगला देश का बंटवारा एक ऐतिहासिक दुह्स्वप्न था। जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद की वजह से देखना पड़ा . आजादी के बाद जिन मुसलमानों ने भारत के साथ अपना नाता जोड़ा उन्हें इस बात का फक्र होना चाहिए कि वे दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक राष्ट्र में न केवल प्रजातांत्रिक अधिकारों का भरपूर दोहन कर रहे हैं बल्कि इस्लाम के नियम-कायदों का अनुपालन कने के लिए वे पूर्ण स्वतंत्र हैं . यदि व्यवस्था गत दोषों,सर्र्कारों की गलत आर्थिक नीतियों और सामाजिक बुराइयों के कारण देश में आर्थिक-सामजिक असमानता है भी तो सभी समुदायों के लोग इस दंश को भुगत रहे हैं , फिर क्यों कुछ लोगों को लगता है कि भारत में केवल मुसलमानों के साथ अन्याय हो रहा है ? क्यों क्यों केवल मुसलमान अल्पसंख्यक ही भारत में असुरक्षित और दोयम समझने के लिए प्रेरित किये जाते रहे हैं? क्यों कांग्रेस और अन्य राजनैतिक दल बारबार के चुनावों में मुस्लिम वोटों के लिए उन्हें आरक्षण ,हज ,इत्यादि का प्रलोभन देते हैं ? क्यों अल्पसंख्यक आयोग के सारे विमर्श केवल ‘मुस्लिम ‘ केन्द्रित हैं , इतना सब कुछ होता रहेगा तो क्यों नहीं संघ परिवार और नरेन्द्र मोदी उनकी निष्ठां पर सवालिया निशान लगाने की रात -दिन चेष्टा करेंगे ? और इस बहाने उन्हें यदि सत्ता मिलती भी है तो उसके लिए तथाकथित साम्प्रदायिक धुर्वीकरण के लिए अकेले मोदी या संघ परिवार को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है ? यदि सत्ता में आने के लिए कांग्रेस -मुलायम -नीतीस -लालू और मायावती न केवल मुस्लिम अल्पसंख्यक कार्ड खेलते हैं ;बल्कि कट्टर जातीयता वाद का ‘काढा भी सत्ता प्राप्ति के लिए देश की जनता को पिलाने में अव्वल रहते हैं; तो हिंदुत्व वादी – राष्ट्रवादी -सवर्ण वादी कार्ड खेलने से संघ परिवार और उनके वर्तमान ‘ब्रांड एम्बेसडर ‘ नरेन्द्र मोदी को रोकने का प्रयास तो केवल हास्यापद ही है . क्या संघ परिवार और ‘मुस्लिम संगठनों की साम्प्रदायिकता एक ही सिक्के के दो पहलु नहीं हैं ? गोधरा और गुजरात में जो हुआ वो निंदनीय और बेहद दुखदाई है किन्तु ‘सितारों से आगे जहां और भी हैं’ …! ताली क्या दोनों हाथों से नहीं बजा करती ?
विगत दिनों पाकिस्तान के डेरा गाजी शहर में एक मुस्लिम महिला को सरे आम पत्थरों से मार डाला क्यों ? सिर्फ इसलिए कि वो महिला मोबाइल रखने की अपराधी थी ! पाकिस्तान में ताकत् वर लोग कमजोरों का शोषण तो कर ही रहे हैं साथ ही प्रगतिशील -रोशनखयाल लोगों को तथाकथित ईस् – निंदा के आरोप में मौत के घाट उतारने में भी अव्वल हैं ,शुक्र है भारत के मुसलमान इन आफतों से बचे हुए हैं . इस्लामिक संसार में आज के आधुनिक -वैज्ञानिक और वैश्वीकरण के दौर में भी कई जगह महिलायें टीवी कार्यक्रम भी बुर्का नशीं होकर देखतीं हैं,उन्हें डर है कि कहीं टीवी में दिखने वाला पुरुष पात्र उन्हें देख न ले ! काश इस्लाम के रहनुमाओं , मुसलमानों के शुभ चिंतकों और सच्चर कमेटी ने इन बिन्दुओं पर विचार किया होता। भारत के अलावा शेष संसार के मुसलमानों की बदहाली के बरक्स यदि भारत में सभी नागरिकों को आर्थिक्-सामाजिक -प्रजातांत्रिक समानता प्राप्ति के लिए संघर्ष किया जाता तो तो शायद साम्प्रदायि’क सौहाद्र कुछ ज्यादा सुनिश्चित होता और मजहब -जाति के आधार पर किसी खास व्यक्ति या समूह को तुष्ट’ करने या आरक्षण की वैशाखी का झुनझुना बजाने की नौबत ही न आती। तब शायद नरेन्द्र मोदी का और उनके ‘प्रमोटर्स ‘ का दुस्साहस इतना नहीं बढ़ पाता . देश में साम्प्रदायिक वैमनस्य के बजाय साम्प्रदायिक सौहाद्र पर बात होती तो कुछ और बात होती . कांग्रेस का जो धडा मोदी को साम्प्रदायिकता के आधार पर घेरने की कोशिश में जुटा है वो मोदी को सत्ता में बिठाने के लिए जिम्मेदार होगा ! जो धडा मोदी की आर्थिक सामजिक नीति की आलोचना कर रहा है वो पहले अपने गरेवान [मनमोहनी आर्थिक नीति] में झांककर देखे .! क्योंकि नरेन्द्र मोदी की कोई आर्थिक नीति नहीं वो तो देश के पूंजीपतियों द्वारा बनाई गई नीति के अनुसार सोचते हैं किन्तु मनमोहन सिंह तो अमेरिका के पूंजीपतियों के अनुसार सोचते हैं . इस मामले में भी मोदी कम से कम ‘ राष्ट्रवादी ‘ हैं ही ! धर्मनिरपेक्षता में भले ही कांग्रेस को कुछ ऐतिहासिक बढ़त हासिल हो किन्तु भाजपा ने भी मुख्तार नकवी या शाहनवाज हुसेन जैसे हज़ारों चेहरे तैयार किये हैं किस सोच का प्रमाण है ये ?
हालाँकि प्रगतिशील विद्द्वानों ने साम्प्रदायिक सौहाद्र को भी एक निम्नतर सत्य ही माना है , क्योंकि यह सभी सम्प्रदायों के फलने -फूलने के वादे र आश्रित होकर न केवल उनके अनुयाइयों को आपस में लड़ाता है . बल्कि शोषण की ताकतों को अमृत पान भी कराता है . प्रगति और मानवता के यह विरुद्ध है क्योंकि यह यथास्थितीवाद का खतरनाक रहनुमा है , क्योंकि यह धर्मनिरपेक्षता का संहारक और साम्प्रदायिक कट्टरवाद की प्रतिस्पर्धा का उन्नायक है।हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई …!..का नारा केवल बहकाने के लिए है ,यह नारा इस बात की तस्दीक करता है कि व्यक्ति का हिन्दू -मुस्लिम -ईसाई -बौद्ध-जैन -सिख या किसी विशेष धर्म का अनुयाई होना आवश्यक है . लोकतांत्रिक राष्ट्र में यह कतई जरूरी नहीं है .याने भाईचारे की प्राथमिक शर्त ये है कि आप किसी सम्प्रदाय से जुड़े हैं तो ही किसी अन्य सम्प्रदाय के भाई हो सकते हैं ! क्या कोई धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति या समूह आपस में भाईचारा नहीं रख सकता ? क्या एक धार्मिक या साम्प्रदायिक व्यक्ति दूसरे धार्मिक या साम्प्रदायिक व्यक्ति से मतैक्य नहीं रखता ?क्या राज्य संचालन के लिए धर्म सापेक्षता संभव है ? नहीं ! नहीं !नहीं ! साम्प्रदायिक झगड़ों को देख-सुनकर ही इकवाल ने नहीं कहा था ;- मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ……! बापू को कहना पडा ;- ईश्वर -अलाह तेरे नाम …! हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान की प्रस्तावना में बिलकुल सही कहा है कि ;- हम भारत के लोग …..सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न …..धर्मनिरपेक्ष -समाजवादी- गणतंत्र – भारत …..! करते हैं …!आज़ादी के वाद सत्ता प्राप्ति के लिए साम्प्रदायिक तत्वों से सौदेबाजी की जाती रही है और उन्ही के दवाव में धर्मं निरपेक्षता को त्यागकर धर्म सापेक्षता को महिमा मंडित किया जाता रहा है .यही वजह है कि जहां अल्पसंख्यक वर्ग का नेतत्व अल्पसंख्यको को भारतीय नागरिक मानने के बजाय एकमुश्त वोट बैंक मानकर विभिन्न राजनैतिक दलों से सौदेबाज़ी करने में जुटे रहते हैं . इस अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता के बरक्स बहुसंख्यक-हिन्दुओं के स्वघोषित हितेषी ‘संघ परिवार ‘ को भी अपने हिस्से की नकारात्मक भूमिका अदा करने का अवसर प्राप्त होता रहता है .
किन्तु ये सिलसिला अब रोक जाना चाहिए क्योंकि जाति ,मज़हब ,भाषा ,क्षेत्रीयता और सम्प्रदाय को राजनीति के उपादान बनाए जाने से इन सभी में घोर वैमनस्यता का स्थाई भाव पैदा हो चूका है ,जो देश को और देश की जनता को संकटापन्न स्थति में ल सकता है .

विगत २ ० १ १ में इजिप्ट [मिश्र] में जो कोलाहल हुआ था उसे दुनिया के तमाम मुल्कों ने और वहाँ के मीडिया ने लगभग संतुलित रूप से मूल्यांकन किया था .लेकिन भारतीय दक्षिणपंथी वुद्धिजीवी या पत्रकार ही नहीं बल्कि हमारे बहुत से वामपंथी विचारक , वुद्धिजीवी भी ढेर सारी ग़लतफ़हमी के शिकार थे और वे अब भी अपने रूढ़ अभिमत को खंडित होते देख या तो मौन हैं या वैज्ञानिक -निष्पक्ष विश्लेषण से इसलिए कतरा रहे हैं कि उनकी समझ से वे इजिप्ट में हो रहे तत्कालीन ‘सत्ता संघर्ष ‘ को प्रगतिशील जनवादी क्रांति के रूप में उभरता हुआ देख रहे थे . तब मैने इजिप्ट के तत्कालीन आंतरिक ‘द्वन्द ‘ पर – ‘ये क्रांति नहीं भ्रान्ति
है ‘ शीर्षक से एक आलेंख लिखा था जो ‘प्रवक्त.काम .’एवं हस्तक्षेप .काम पर प्रकाशित हुआ था और जो अभी भी मेरे ब्लॉग -जनवादी . ब्लागस्पाट .काम पर उपलब्ध है .उस आर्टिकल में लिखा गया हर शब्द सत्य साबित होता जा रहा है . विशुद्ध वैज्ञानिक और ग्लोबल दृष्टिकोण से मेरा आकलन था कि न केवल इजिप्ट बल्कि तुर्की में भी तथाकथित आर्थिक संकट या कुव्यवस्था के बरक्स जो ‘बदअमनी ‘ फैली है उसकी डोर केवल ‘अमेरिकन साम्राज्यवाद ‘ के हाथों में ही नहीं बल्कि इस सनातन संघर्ष की जड़ को सींचने में मज़हबी सूत्रधारों की भूमिका को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता .
मिश्र में जो उठापटक हो रही है ,तुर्की में जो कोहराम मच हुआ है ,सीरिया लीबिया , ईराक सूडान ,यमन ,अफगानिस्तान ,फिलिस्तीन जॉर्डन और पाकिस्तान जैसे इस्लामिक मुल्कों में जो भी अशांति है, उसके प्रतिक्रियास्वरूप इन देशों के अलावा अन्यत्र भी दिग्भ्रमित कतिपयकट्टरवादी तत्व-यत्र-तत्र-सर्वत्र गैर इस्लामिक राष्ट्रों-भारत ,चीन ,म्यांमार, इजरायल अमेरिका और इंग्लॅण्ड में भी हिंसात्मक प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करते रहते हैं . उसके लिए केवल ‘श्वेत भवन ‘ या उसकी तथाकथित पूंजीवादी – बहुराष्ट्रीय उद्द्य्मितावादी आर्थिक नीति का ‘आम संकट ‘ ही जिम्मेदार नहीं है . वास्तव में इन इस्लामिक राष्ट्रों की आंतरिक बैचेनी के मूल में ” सभ्यताओं का संघर्ष ” भी एक अहम् भूमिका अदा कर रहा है . एक ओर अल-कायदा ,तालिवान ,इत्तेहाद -मुसलमीन ,मुस्लिम ब्रदर हुड,फिदायीन जैसे सेकड़ों – फंडामेंटलिस्ट संगठन दुनिया भर में अपने पुरोगामी कट्टरपंथी -आतंक और हिंसा के लिए बदनाम हैं ,दूसरी ओर इन राष्ट्रों की सत्ताओं पर काबिज ‘ अर्ध सामन्ती और अर्ध जनतांत्रिक ‘ ताकतों और उनके सैन्य बलों के अपने सामूहिक स्वार्थ है . इन दोनों विचारधाराओं में सिर्फ एक समानता है कि वे शक्ति शाली वर्ग के हितों की रक्षा के सवाल पर एकमत हैं . इस संघर्ष को अनवरत बनाए रखना केवल पूंजीपतियों , साम्प्रदायिक -कठमुल्लाओं और साम्राज्यवादियों के हित में है . अतएव तमाम मुस्लिम राष्ट्रों के ताकतवर लोगों से,सेनाओं से – अमेरिका का याराना है। जनता के शोषण या आर्थिक दुरावस्था के सवाल पर होने वाले जनांदोलनो को ,अमेरिका और उसके स्थानीय पिठ्ठू कुचल डालने में देर नहीं करते लेकिन जिस तरह की मारामारी अभी इजिप्ट ,तुर्की ,सीरिया ,सूडान ,अफगानिस्तान और पाकिस्तान में चल रही है वो किसी जनवादी क्रांति का सूत्रपात नहीं बल्कि इन राष्टों की स्वेच्छिक ‘हाराकिरी’ है।

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