कारवां गुजर गया और गुबार ही गुबार रहा….

रहिमन धागा प्रेम का मत तोडो चटकाय

टूटे तो जुड़े नाहीं, जुड़ै तो गांठ पडि जाए।

इंसानी फितरत ने समाज के दो तबकों को इत तरह बांट दिया है कि विश्वास की डोर कमजोर ही नहीं टूट चुकी है। मानवता कराह उठी और हालात ने दो समाजों को नफरत के आग में जला दिया। असल में मुजफ्फरनगर व आसपास के दंगों ने लोगों को अन्दर से हिला कर रख दिया है। वो सरसराहट गन्नों की नही इंसानी रूह में पनपे डर की है जिससे लोग अपनी चाल तेज कर दे रहे हैं। जब विश्वास की डोर कमजोर होती है तो इंसान के अन्द डर का साम्राज्य कायम हो जाता है। यह असफलता नागरिक समाज के साथ-साथ सरकार के कानून-व्यवस्था नाफिस करने वालीं संस्थाओं से उठती विश्वास व सामाजिक सौहार्द के बिखरते ताना-बाना की है। धर्म लोगों के लिए अफीम है। इसी उक्ति का इस्तेमाल कर सोमों व राणाओं ने लोगों को नशे में लाकर लड़ा दिया है! ये भीड़ सामान्य communal-riotsजल पुरूषों के साथ शायद ना चल सके! वजह साफ है इंकलाबी व जुनूनी उन्माद ये जल पुरूष नहीं पैदा कर सकते हैं। शायद यही वजह है कि लोग अमन की बात सुनने को तैयार नहीं।

बदलते सामाजिक परिवेश में मानवीय नजरिया पर राजनीत का गहरा अक्स पड़ा है। धर्म-जात में बंटते समाज में फिरकापरस्त ताकतें लोगों को लड़ाकर अपना उल्लू सीधा करना बखूबी सीख लिया है। डिवाइड एण्ड रूल वाली सियासत का दौर चालू है। जहां सोमों व राणाओं का फलसफा आसानी से लागू हो जा रहा है! अब सवाल दंगों के होने व उसमें सरकारी अमला की मुस्तैदी का नहीं रहा। यहां सवाल है सरकार की नीयत व नीयति का। कारवां गुजर गया और गुबार ही गुबार रहा…. ।

दंगा होने के महिने भर बाद भी सियासी जमातें व सरकार लोगों के जख्मों पर मरहम की जगह सियासी लेप लगा कर वोट पर गिद्ध नजर गडाये हुए है। राहत काम की जगह आफत बरसाने में ये सौदागर पीछे नहीं। जब तक सियसत व सियासतदां की मंशा साफ न होगी तब तक नागरिक समाज की भागीदारी किसी भी अच्छे काम में होना सम्भव नहीं है। नागरिक समाज के पास सोचने की सलाहीयत है और उसका इस्तेमाल भी वह करना बखूबी जानता है मगर हालात में सियसी जहर घोलने वाले लोग उसे गुमराह करने में कामयाब हो जा रहे हैं। साम्प्रदायिकता फैलाने वालों के जाल में फंसकर नागरिक समाज रिश्तों की तासीर को भूल कर आपस में लड़ने पर आमादा हो जा रहा है। सरकार के साथ लोगों के हिमायत व हिफाजत का दंभ भरने वाली सियासी जमातों को चाहिए कि नागरिक समाज में पनपे अविश्वास को दूर करने के लिए सियासी चश्में के इस्तेमाल के बजाय घटती मानवीय संवेदना को दो समुदाय के बीच मुहब्बत कायम कर लोगों को आपस में जोड़ने की ईमानदार पहल किया जाए। यहां सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि कानून-व्यवस्था नाफिस करने वाले अमलों को ताकीद किया जाए कि पक्षपाती रवैया से उपर उठ कर कानून को सामने रख कर लोगों के हिफाजत व अमन कायम करने के लिए हर कठोर व मुम्किन कदम उठाये। तब कहीं जाकर नागरिक समाज को पास लाया जा सकता है। जब समाज पास आयेगा तक विश्वास बहाली का रास्ता बनता नजर आयेगा वर्ना बाते तो होती रहेंगी विश्वास बहाली की सरकार व सियासी जमात जैसे गिद्ध मुरदार में जीने की राह तलाशती हैं वैसे दंगों पर वोट की खुराक तलाशती रहेगी ! ऐसे में नागरिक समाज के पास आपसी रंजिश निकालने व लड़ने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता नजर आता है। रहीम दास के शब्दों में प्रेम की डोर अगर एक बार टूट जाये तो जल्दी जुड़ती नहीं, जुड़ने पर गांठ रह जाता है। जख्म भर जाने पर भी घाव का निशान रह जाता है। ऐसे में मुजफ्फरनगर व आसपास के लोगों में पनपे अविश्वास को दूर करने के लिए ईमानदार प्रयास के साथ आपसी भईचारे की रवाज को कायम करना होगा। जरूरत है वक्त के सोमों व राणाओं को कुचल देने की ताकि मानवता के चेहरे पर दंगों के छींटें ना आने पाये।

एम. अफसर खां सागर

3 COMMENTS

  1. दंगो में हमेशा निर्दोष गरीब ही मरे जाते हैं ,अफसर जर्नलिस्ट को बधाई ,इतने सुन्दर लेख पर !

  2. इस तरह के दंगों से समाज का ताना-बान टूटता है. समाज और सरकार के मुंह पर कलंक हैं ये दंगे.
    सही ही लिखा की कारवां गुजर गया और गुबार ही गुबार रह गया. कौन पर्स हाल है उन यतीमों का जिन्हों ने इन दंगों में अपना सब कुछ खो दिया है.
    कहाँ है मानवता और कहाँ हैं मानवता के आलम बरदार.
    दुखद घटना.
    सार्थक आलेख.
    ढेरों मुबारकबाद.

  3. दंगों के दाग धुलना इतना आसान नहीं है। दंगों में निर्दोश लोग ही मारे जाते, उनमादी तो भाग जाते हैं आग लगा कर। मानवता का चीरहरण करके लोग राजनीतिक गोटी सेंक रहे हैं जबकि मानवता कराह रही है। बेहतर आलेख। धन्यवाद प्रवक्ता।

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