एक शोक संतप्त लेखक

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-अशोक गौतम-
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अत्यंत दुख के साथ अपने सभी चटोरे मित्रों को रूंधे गले से सूचित किया जाता है कि मेरे प्रिय कंप्यूटर का आकस्मिक निधन हो गया है। हालांकि कि वे इस सूचना को पढ़कर बल्लियां उछलेंगे, यह सोचकर कि चलो कुछ दिन तक तो मेरा लेखन बंद रहेगा। मित्रो! सच कहूं तो कंप्यूटर मेरा सबकुछ था। वह मेरा बाप था, वह मेरी मां थी। मेरा भाई- बंधु सबकुछ मेरा कंप्यूटर ही था। जब जब मैं उसके साथ होता था तो मुझे किसी की कोई कमी नहीं खलती थी। यहां तक कि मेरी प्रेमिका भी मेरा यह कंप्यूटर ही था और पत्नी भी।

इस मरे कंप्यूटर के बीमार होने पर मैंने इसे कहां-कहां नहीं दिखाया, किसे किसे नहीं दिखाया। जिसने जहां कहा, इसे वहां ले गया। यहां तक कि क्रांतिकारी लेखक होने के चलते झाड़फूंक करने वालों पर भी विष्वास किया। मरता क्या नहीं करता। हूं तो मैं भी इसी परिवेश का एक अदना सा क्रांतिकारी लेखक ही न! जैसे कोई देशी कम्युनिस्ट उम्रभर हर मंच से परंपराओं, धर्म का विरोध करते करते टूट गया हो पर जब उसकी अपनी बेटी का विवाह हो तो वह चोरी-चोरी से अपने घर के खिड़कियां, दरवाजे बंद कर भीतर बेटी के विवाह का मंडप सजा वहां अनपढ़ पंडित जी मंत्रोच्चार बनाम हा हाकार करवा रहा हो।

अब बंदा यहीं आकर तो हार जाता है! मौत के आगे किसका वष चलता है भाई साहब? पर यहीं आकर मन मान जाता है कि जाने वाले को बचाने के लिए जितना मुझसे हो सकता था, उतना तो मैंने किया। बस, इसी बात की प्रसन्नता से अपने मन के दुख को कम किए हूं। अपने दिल पर हाथ रखके पूरी ईमानदारी से अपने पूरे होशोहवास में कह रहा हूं कि मैंने दस सालों से बीमार पत्नी को कभी सरकारी अस्पताल तो छोड़िए, मुहल्ले के वैद्य के पास दिखाने तक की कोषिष नहीं की। आप मुझे ऐसा सोच लेखक कम गधा अधिक सोच रहे होंगे और मुझसे पूछना चाह रहें होंगे कि मैंने आखिर ऐसा क्यों किया? वह इसलिए कि पत्नी का विवाह के बाद से बस एक काम होता है और वह यह कि उसका बीमार रहना। सुबह टांगों में दर्द तो दिन में सिर में दर्द। शाम ढली नहीं कि उसने कमर पकड़ी नहीं!

अब रही मां-बाप के इलाज की बात! अस्पताल का डॉक्टर तो छोड़िए, उनके मातृ-पितृ भक्त श्रवणकुमार ने उन्हें कभी अस्पताल का दरवाजा तब नहीं दिखाया। पंचतत्व की इस काया को आखिर एक दिन मिट्टी में ही तो मिलना है। फिर बेचारी को बीमारी की हालत में अस्पताल की बेंचों पर डॉक्टरों का इंतजार करवा क्यों और थकाना! और गलती से डॉक्टर ने दे मारा ऐसा वैसा कुछ तो निकल पड़े वक्त से पहले ही अनंत यात्रा पर। इधर हम परेशान तो उधर बिन बुलाए अतिथि से धर्मराज!

फुलटाइम लेखक होने का साहस करने वालों के साथ बहुधा ऐसा ही होता आया है, यह कोई नई बात नहीं। नई बात तो तब हो जो वह अपने मां- बाप का इलाज सीना चौड़ा कर करवा सके और उस लेखक के मां बाप मरने के बाद यमराज के पास फक्र से सिर ऊंचा किह सकें कि वे अमुक लेखक के मां बाप हैं और इलाज करवाने के बाद मरे हैं। जिस तरह आज के नेता की आत्मा जनता में न बस कुर्सी में निवास करती है, उसी तरह आज के लेखक की आत्मा थॉट में नहीं कंप्यूटर में निवास करती है। कंप्यूटर का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि एक ही रचना को उसके अलग-अलग एंगल से टांग-बाजू तोड़ दस जगह बेहिचक भेजा जा सकता है।

हे मेरे दुख में खुश होने वालो! जितना मेरे जेब का बजट था उतना मैंने अपने प्रिय स्वर्ग सिधारे कंप्यूटर को ठीक करने की कोशिश की। मुझे बस इसी बात का सबसे अधिक संतोष है, जो कंप्यूटर के न रहने के मेरे गम को कुछ हल्का किए हैं। मैं घर के आटे दाल के बजट पर कट लगा जो कर सकता था मैंने इस कंप्यूटर क इलाज के लिए अपनी हद से अधिक किया। ऐसा करने से कम कम चुनाव नतीजे आने के बाद हार का ठीकरा फोड़ने के लिए सिर ढूंढ़ने के लिए गरीब सिर की तलाष नहीं करनी पड़ी। जानता हूं, जो लेखक आज अमुक अखबार में कॉलम लिखता है कल उसे जाना है। यही लेखन का धर्म है। उसके बाद दूसरे उस अखबार में उस कॉलम को लिखने के लिए ठीक उसी तरह से संघर्ष तो करेंगे ही, जैसे आत्माएं पुनर्जन्म के लिए एक बेहतर कॉरपोरेटी शरीर पाने के लिए संघर्श करती हैं। पुनर्जन्म शाश्वत नहीं, पुनर्जन्म के लिए एक उम्दा शरीर मिलने के लिए आज के लोक में संघर्ष शाश्वत है।

रही बात जाने वाले की! तो जाने वाले को जाने से कौन रोक सकता है? किसी को आने से हम भले ही रोक लें। एक अखबारू बुद्धिजीवी होने के नाते यह भी जानता हूं, जिस तरह से पैसों के चक्कर में लेखक एक अखबार के कॉलम से दूसरे अखबार का कॉलम बदलता है, उसी तरह वह लोन-शोन ले कंप्यूटर भी बदल लेगा, भले सेकेंड-हैंड ही सही। पर सच कहूं, हे कंप्यूटर तेरी और विवाह से पहले के प्रेम की याद तो मरने के बाद भी दिलो दिमाग में छाई रहेगी। पहले प्यार वाले प्रेेमी और पहले कंप्यूटर वाले लेखक के लिए विवाह और दूसरा कंप्यूटर पार्ट टाइम ही होते हैं।

तो मित्रो! मेरे दिवंगत कंप्यूटर की रस्म किरया एवं भोग आने वाले इतवार को बारह बजे लेखक गृह में होगा। लेखक गृह में लेखक कुछ भी कर सकता है। वही तो उसका इस लोक में एकमात्र अपना घर होता है। हे कंप्यूटर! जबतक मैं हूं, तुम मेरी हर सांस में जिंदा रहोगे। मैं तुम्हारे साथ बिताए हर पल को अपने साथ संजोए रखूंगा। तुम्हारी मधुर स्मृतियां मेरे दिल में सदा बसी रहेंगी। तुम्हारे बिना ऐसा फील कर रहा हूं कि जैसे वक्त रूक सा गया है। हे कंप्यूटर! तुम जहां भी रहो। शांति से रहो। मेरी चिंता मत करना!

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