कांग्रेस के लिए परीक्षा की घड़ी

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रामबिहारी सिंह

वर्तमान हालातों को देखते हुए कांग्रेस एक बार फिर अपना ही पुराना इतिहास दोहराने की राह पर खड़ी है। एक दौर था सत्तार के दशक का। जब कांग्रेस में इंदिरा गांधी सत्ता में थीं और उस दौरान भी भ्रष्टाचार का मुद्दा इतना गरमाया कि उनके खिलाफ छात्रों को आंदोलन करना पड़ा था। आखिरकार युवा छात्राओं का आंदोलन रंग लाया और इंदिराजी चुनाव हार गईं, लेकिन इंदिराजी के जाने के बाद जो सत्ताा में आए, न तो वह सत्ता संभाल सके और न ही जनता की आशाओं पर खरा उतर सके। इसके बाद आया अस्सी का दौर। राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, साफ-सुथरी छवि वाला चेहरा, जिस पर देश की मूक जनता ने आंख मूंद भरोसा किया और लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार 412 सीटों पर उन्हें जीत दिलाई। सत्ता में आने के बाद तीन साल बीतते-बीतते भ्रष्टाचार का मुद्दा एक बार फिर ऐसा गरमाया कि उनकी भी सरकार चली गई। इसके बाद वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने, लेकिन वह भी न सत्ता न संभाल सके। यहीं नहीं वह जनता के लिए भ्रष्टाचार से लड़ते शख्स की आकांक्षा पूरी भी नहीं कर सके और सरकार गिर गई, पर इन सबमें सबसे दुखद राजीव गांधी का शहीद होना रहा।

और अब फिर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार है और भ्रष्टाचार का मुद्दा एक बार फिर तेजी से गरमाता जा रहा है। कुल मिलाकर देश में चिंताजनक हालात हैं। इस बात को इससे भी बल मिलता है कि इस बार लोकतांत्रिक संस्थाओं से सबसे ज्यादा सुप्रीम कोर्ट चिंतित है। उसकी टिप्पणियां देश की आवाम की आंखें खोलने वाली हैं। सुप्रीम कोर्ट ने एक नायाब काम और किया है और वह नायाब कार्य है 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर सख्त टिप्पणी। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट पर भी तल्ख टिप्पणियां की हैं। ऐसे में जब सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट में चल रही गंदगी से परेशान हो जाए तो इसकी गंभीरता सभी को समझना चाहिए। इस सबके बावजूद चारों तरफ से भ्रष्टाचार से घिरी कांग्रेस के लिए यह एक सुनहरा मौका हो सकता है कि वह अपने को बिल्कुल पाक-साफ साबित कर ले। अगर उसका कोई सदस्य इस जांच में आता भी है तो उसकी चिंता न करते हुए उससे पीछा छुड़ा सकती है। इसका बड़ा कारण यह है कि मीडिया में आने और अखबारों में छपने से वोट नहीं घटते हैं और न ही बढ़ते हैं। वैसे इसका सबसे बड़ा उदाहरण बिहार में हाल ही में संपन्न हुआ विधानसभा चुनाव है, जहां कांग्रेस ने प्रचार पर कितना ख़र्च किया, टेलीविजन, अखबार विज्ञापनों से, खबरों से भरे थे, लेकिन कितने वोट मिले। 243 में से मात्र 4 सीटें। बाकी 200 सीटों में कांग्रेस जमानत भी नहीं बचा सकी। ऐसे में भ्रष्टाचार से घिरी कांग्रेस को अपनी रणनीति और दिशा पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

कांग्रेस के सामने किसी तरह की कोई चुनौती नहीं थी। 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में न तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और न ही कांग्रेस चेयरपर्सन सोनिया गांधी का नाम आ रहा है, पर कांग्रेस आलाकमान ने खामोश रहने और खुली आंखों से भ्रष्टाचार देखने का गुनाह तो कर ही लिया। बावजूद कांग्रेस के लिए यह घोटाला तब और चिंताजनक हो जाता है जब उसकी सरकार में सहभागी और सहयोगी तृणमूल कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी यह कह दें कि सरकार को तो जेपीसी बना देनी चाहिए। ऐसे में विपक्ष के तीखे तेवर के बाद कांग्रेस इस मामले में खुद ब खुद अलग-थलग हो चुकी है। इससे बड़ी इंतहा और क्या होगी, कि जब 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जनक और भ्रष्टाचार में सनी डीएमके भी यह कह दे कि उसे जेपीसी से कोई एतराज नहीं है तो भी कांग्रेस का जेपीसी के लिए तैयार न होना एक तरह से विरोधियों को नया अवसर प्रदान करने के समान है।

यदि जेपीसी जांच चलती है तो वह कांग्रेस के कुछ नेताओं की पोल जरूर खोल सकती है पर यदि जेपीसी जांच नहीं होती है तो कांग्रेस के लिए अगले 36 महीनों का सफर आसान नहीं होगा और उसे मीडिया के साथ ही अखबारों में आने वाली हर झूठी-सच्ची खबरों का जबाव देना होगा। ऐसे में यह मौका कांग्रेस के लिए किसी सुनहरे अवसर से कम नहीं होगा। कांग्रेस स्वयं को पूरी तरह पाक-साफ साबित कर सकती है और अगर उसका कोई सदस्य इस जांच में आता भी है तो उससे पीछा छुड़ाकर पार्टी को बचाया जा सकता है, पर कांग्रेस जिस हालत में है उसमें उसे अपनी रणनीति व दिशा पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। इसमें वह विपक्ष की कमजोरियों को भुनाकर इस मामले में आगे निकलने में कामयाब हो सकती है। अन्यथा बिहार की ऐतिहासिक हार को फिर याद करना पड़े तो फिर उसे चिंतित नहीं होना चाहिए, जहां मुसलमानों तक ने जद (यू) के नीतीश को पसंद किया और कांग्रेस को किनारे लगा दिया। समय का तकाजा ही है कि धीरे-धीरे वक्त बदल रहा है और देश में युवा मतदाताओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में जाति और धार्म से अलग युवा पीढ़ी के साथ ही पुराने लोग वादों, सपनों को टूटता देख कोई ऐतिहासिक निर्णय कर बैठें तो इसमें भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

राहुल गांधी कांग्रेस के अघोषित सर्वमान्य भावी प्रधानमंत्री हैं और उनके तरुणाई विचार, उनका युवा दिमाग, उनकी संयमित भाषा और दूरदर्शी समझ के साथ संगठन क्षमता की परीक्षा भी आने वाले समय में देश के कई राज्यों में होने वाले विधानसभा और इसके बाद लोकसभा चुनावों में होगी। यहीं नहीं चुनावी सभाओं में जुटने वाली भीड़ को वोट में बदलने की क्षमता भी राहुल गांधी को दिखानी होगी। इस परीक्षा की घड़ी में वह अकेले होंगे, उनकी मदद उनकी मां सोनिया गांधी भी नहीं कर पाएंगी। इसका कारण भी साफ है कि जब जनता सवाल करेगी तो जनता के सामने वह अकेले ही होंगे। इसका ताजा उदाहरण भी तब देखने को मिला, जब राहुल की बंगाल यात्रा के दौरान शांति निकेतन के छात्रों ने उनसे पूछा था कि जब वह प्रधानमंत्री बनेंगे तो शिक्षा में बदलाव का उनका स्वरूप क्या होगा। राहुल उलझ गए और यह कहते हुए जबाव टाल गए कि उनके पास प्रधाानमंत्री बनने से जरूरी अन्य काम हैं, जबकि यहां पर राहुल को छात्रों को संतुष्टिजनक जबाव देना चाहिए, पर ऐसा नहीं हो सका और छात्रों के मन में एक अलग छवि बनी, जिसमें ज्यादातर में निराशा का भाव था। यह बताते हैं कि जिसे देश की जनता भावी प्रधाानमंत्री के रूप में देख रही है उस राहुल के पास शिक्षा में बदलाव का कोई नक्शा नहीं। अन्यथा वह यह सवाल नहीं टाल जाते। देश के प्रधानमंत्री का पद संभालने वाले को बहुत से सवालों के जवाब जानना जरूरी है। इस सबके बावजूद कांग्रेस अगर संतुलित मार्ग अपना कर नहीं चली तो वह फिर से अपने गले मुसीबत लगा लेगी, जैसा कि उसने पहले ही राजा के भ्रष्टाचार की मुसीबत अपने सिर लेकर विपक्षी दलों के साथ ही आम जनता की नजरों में भी गिर गई है।

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