कांग्रेस का अवनमन-काल

राजीव रंजन प्रसाद

आजकल राजनीति में एक नई संस्कृति विकसित हुई है-‘पॉलिटिकल नेकेडनेस’ अर्थात राजनीतिक नंगई। इस मामले में कमोबेश सभी दल समानधर्मा हैं। सन् 1885 ई0 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जिसके गौरवपूर्ण अतीत की समृद्ध परम्परा हमारे समाज में मौजूद है; वह भी इस संस्कृति की मुख्य किरदार है। उसकी क्षमता अकूत है, तो गति-मति अतुलनीय। भाजपा अपने जिस साम्प्रदायिक चेहरे का ‘फील गुड’ कराती हुई सत्ता से बेदख़ल हुई थी; अब वहाँ पूँजीपति परिजनों, औद्योगिक घरानों और सत्तासीन मातहतों का कब्जा है। समाचार पत्रों में चर्चित राबर्ट बढेरा एक सुपरिचित(?) नाम है। ए0 राजा, कनिमोझी, सुरेश कलमाड़ी और नीरा राडिया खास चेहरे हैं। यानी ‘हमाम में सब नंगे हैं’ और ‘हर शाख पर उल्लू बैठा है’ जैसी कहावत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में चरितार्थ हो चुकी है। ‘हर कुएँ में भांग पड़ी है’ वाली कहावत भी दिलचस्प है। सभी राजनीतिक दलों में ‘रिले रेस’ इस बात को ले कर अधिक है कि किस कुनबे का गार्जियन कितना सौम्य, विनम्र और सहज है? ताकि अपनी लंपटई और लंठई को उस श्ख़्सियत की नेकनियती के लबादे में भुनाया जा सके। भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आसान शिकार हैं। के0 करुणानिधि, बीएस येदुरप्पा, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह, बुद्धदेव भट्टाचार्य, सुश्री मायावती उनके आगे कहीं नहीं टिकते हैं।

जनता से छल करती कांग्रेस में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कांग्रेस आलाकमान का दुलरूआ बने रहना, उनके इसी ख़ासियत की तसदीक करता है। संपादक शशि शेखर की राय में-‘‘मनमोहन सिंह इस देश के सबसे काबिल और ईमानदार सत्ता नायकों में गिने जाते हैं, हमेशा गिने जाएंगे। पर लगातार दूसरी बार हम उन्हें रह-रहकर मजबूर होते देखते हैं। क्षेत्रीय दल अपनी बैसाखियों के बदले में उनके रास्ते में रोड़े अटकाते हैं और अपनी शर्ते मनवाते हैं।’’ राजीव नगर के बुराड़ी में अखिल भारतीस कांग्रेस कमेटी की ओर से आयोजित 83वें महाधिवेशन में प्रधानमंत्री महोदय का भाषण गौरतलब है-‘‘आज के दिन हमें यह सोचना चाहिए कि महात्मा गाँधी, पण्डित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल और मौलाना आज़ाद जैसे महान नेताओं ने जिन गौरवशाली परम्पराओं की शुरूआत की, उन पर हम किस तरह से चल सकते हैं। सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी की परम्परा, धर्मनिरपेक्षता और सहनशीलता की परम्परा और एक मजबूत और नया भारत बनाने के लिए काम करने की परम्परा।’’

प्रधानमंत्री जिस परम्परा के अनुशीलन की बात कर रहे हैं; चेतस और सचेत मन से कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को उस ओर सोचने ख़ातिर प्रेरित कर रहे है; वास्तव में वह हर एक भारतीय का स्वप्न है। स्वाधीन भारत में साँस लेते हम युवाओं की भी यही सदिच्छा है। सचाई में आस्था रखना और अन्धेरे से निकल रोशनी में आने की सोचना हर भारतीय का विशेषाधिकार है। इस मूल अधिकार का न तो यूपी में सुश्री मायावती ज़िबह कर सकती हैं और न केन्द्र और दिल्ली में काबिज़ कांग्रेस सरकार। भट्टा-पारसौल और दिल्ली के रामलीला मैदान में घटित घटना भारतीय कृषकों, मजदूरों तथा आमोंख़ास सभी के सामने जुल्म और ज्यादती का प्रत्यक्ष दृष्टांत है जिसका विस्तार पूर्व की घटनाओं से खुद-ब-खुद जुड़ती चली जाती हैं; चाहे वह सिंगूर-नंदीग्राम का मामला हो या फिर बस्तर, दंतेवाड़ा, नियमागिरि, पलामू और कालाहाण्डी का। ऐसी तमाम पार्टियाँ जो जनता के ज़ज्बातों पर कुठाराघात कर रही है; उसका हिसाब चुक्ता करना जनता से बेहतर भला और कौन जानता है? बाबा रामदेव ने अनशन भले तोड़ दिया हो, लेकिन प्रकरण का पूर्णतः पटाक्षेप नहीं हुआ है। जनता के जेहन में भ्रष्टाचार और काले धन की वापसी के मुद्दे पर जो मार-ठुकाई दिल्ली पुलिस ने की है; उसकी टीस और अंदरुनी कसक शेष है। जनता इस घटना को बड़ी आसानी से भूल जाएगी; यह सोचना सिर्फ कांग्रेस के भाग्य का बलवती होना ही कहा जा सकता है।

कांग्रेस अक्सर आम-आदमी का ज़ुमला उछालती है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को आम-आदमी की पार्टी बताती है। अपनी दृष्टि को त्रिकालदर्शी साबित करने के लिए जो भावनात्मक संदेश गढ़ती है, वह है-‘‘हम लोगों की ऐसी पार्टी है जिसका गरिमापूर्ण भूतकाल है। हमारी पार्टी भविष्य की पार्टी है, इसलिए हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह हरेक भारतीय के बीच उम्मीद जगाए रखे। यह हमारी पुकार है और हमारा दायित्व भी है।’’

सोनिया गाँधी पार्टी के भीतर जिस उम्मीद, पुकार और दायित्व-बोध होने की बात कर रही हैं; वे नाहक नहीं है। लेकिन प्रकृत आचरण में जो कुछ घटित हो रहा है; उसे देखें, तो यह भाषण मानों पवित्र शब्दों में प्रस्तावित छलावा मात्र है। यह भूत के साथ धोखा और भविष्य के साथ खिलवाड़ है। यह भारत के उस मानस के साथ अन्याय है जो पण्डित जवाहरलाल नेहरू के इस कथन से गहरे संस्तर तक जुड़ा हुआ है-‘‘भविष्य हमें बुला रहा है। हम किधर जायेंगे और हम क्या करेंगे? हमें आम आदमी, किसानों और मजदूरों के लिए आजादी तथा आगे बढ़ने के अवसर ले जाने होंगे। हमें गरीबी, जलालत और बीमारी को मिटाना होगा। हमें समृद्ध, लोकतांत्रिक तथा प्रगतिशील राष्ट्र का और सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संस्थानों का निर्माण करना होगा, जो प्रत्येक नर-नारी के जीवन में पूर्णता लाने तथा उन्हें सामाजिक न्याय दिलाने में सहायक होंगे।’’

लेकिन आज स्थितियाँ उलट है। कांग्रेस निहत्थों से भिड़ती है; लाठियाँ चमकाती है; यह वही कांग्रेस है जिसकी दिल्ली में सरकार है और अपनी पुलिस को दिल्ली के रामलीला मैदान में आँसू गैस के गोले छोड़ने के लिए आदेश देती है। इस बर्बर कार्रवाई में सैकड़ों लोग लहूलुहान और हजारों लोग घायल होते हैं। जबकि यह सत्याग्रह भ्रष्टाचार के खि़लाफ जन-अभियान था। यह किसी पार्टी विशेष के खिलाफ षड़यंत्र नहीं था जिसका ठीकरा संघ या इसी तरह की अन्य संगठनों के ऊपर मढ़े जाए। इसका मकसद या कहें ध्येय काला धन की वापसी सुनिश्चित करने को ले कर था जो विदेशी बैंकरों में बंद है। लेकिन कांग्रेस इस मुकम्मल अभियान को जिस तरीके से घेरती है; बाबा रामदेव के बहाने पूरे भारतीय जनता की अस्मिता पर चोट करती है; क्या जनता इस सिरफिरे और मदांध सरकार को सबक सिखाने में पीछे रहेगी? इस अनुचित कार्रवाई के पक्ष में कांग्रेस चाहे जितनी तर्क गढ़ ले, उसका खुद को बेदाग साबित कर पाना मुश्किल है। उल्टे यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वैचारिक रूप से

रुग्ण हो जाने का अभिलक्षण है। रोष और उत्तेजना के क्षणों में कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के उस दीक्षांत भाषण को बिसार दिया जिसे उन्होंने शांति निकेतन विश्वविद्यालय में रविन्द्रनाथ टैगोर को उद्धृत करते हुए 9 मार्च 1974 को कहा था-‘‘ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लोगों का रोष भड़काना एक आसान राजनैतिक तरीका हो सकता है, लेकिन हमारी राजनैतिक गतिविधियों का आधार रोष होना है, तो हमारा मूल उद्देश्य पीछे रह जाता है और उत्तेजना अपने आप में एक लक्ष्य बन जाती है। तब आनुषंगिक विषयों को अनावश्यक महत्व मिलने लगता है तथा विचार और कार्य की समस्त गम्भीरता विनष्ट हो जाती है। ऐसी उत्तेजना शक्ति की नहीं बल्कि दुर्बलता की परिचायक होती है।’’ आज कांग्रेस उसी दुर्बलता से पीड़ित है। वह जन-समाज के खि़लाफ ताकत का प्रयोग कर अपनी जिस अदूरदर्शी राजनीतिक इच्छाशक्ति और दृढ़ता का परिचय दे रही है उसका सामना करने के लिए भारतीय जनता सहर्ष तैयार है।

भारतीय जनता को यह भान हो गया है कि ‘‘समाज या दुनिया को बदलने के लिए सबसे पहले राजसत्ता पर कब्जा करना जरूरी नहीं है। यानी राजसत्ता ही सबकुछ नहीं है। सामाजिक रिश्ते बदलते हैं या बदले जाते हैं, तो राजसत्ता का चरित्र भी बदले बिना नहीं रह सकता है। इस सम्बन्ध में भावी पीढ़ी जॉन हॉलोवे को अनुसरण कर रही है जिसकी एक किताब है-‘चेंज दि वर्ल्ड विदाउट टेकिंग पॉवर।’ आज एक बड़ी बदलाव यह देखने को मिल रही है कि अब किसी एक मुद्दे पर देश के विभिन्न हिस्सों में एक साथ कार्रवाईयाँ होने लगी हैं। इसके पीछे ‘न्यू मीडिया’ का बड़ा हाथ है। संचार क्रांति और सूचना राजमार्ग के गठजोड़ से आज दुनिया जिस तरह ‘इंटीग्रेट’ हो रही है, उससे यह जरूर संभव हो गया है कि एक जगह होने वाला आन्दोलन बहुत तेजी से दूसरी जगहों पर फैल जाता है और वह फिर दुनिया की और-और जगहों में भी हवा, फ़िजा या माहौल बनाने में मददगार होता है।’’ अन्ना हजारे और बाबा रामदेव इसी बदलाव के प्रतिमान हैं जिन्होंने पूरे भारत को वर्ग, लिंग, वय, जाति, भाषा और धर्म

से ऊपर उठाते हुए एकसूत्री उद्देश्य में बाँध दिया। बाबा रामदेव में इतनी ताकत है कि 11 लाख क्या 11 करोड़ सेना तैयार कर दें; लेकिन यह विचार-सेना होगी, सशस्त्र सेना हरगिज़ नहीं। इस सन्दर्भ में रेमजे मेकडोनल्ड का कथन ध्यातव्य है-‘समाज विचार के साथ ही आगे बढ़ता है।’

मित्रों, कांग्रेस पार्टी की भीतरी तह का पड़ताल करते हुए यदि हम सन् 1947 के देशकाल में प्रवेश करें, तो हम देखेंगे कि जनतंत्र के लिए राज्य नामक संस्था तो दिक्कत पैदा करती ही है। लेकिन शायद उससे भी ज्यादा दिक्कत पैदा करती है-राजनीतिक दल नामक संस्था। इसीलिए 1947 में महात्मा गाँधी ने पार्टी रहित जनतंत्र की बात कही थी जिसके समर्थन में एम0 एन0 राय भी थे। इन्हीं विचारों को आगे बढ़ाते हुए जयप्रकाश नारायण ने पार्टी रहित जनतंत्र की बात की और उसी आधार पर ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का नारा दिया। इन सभी को भविष्य में पार्टी के निरंकुश होने का भय सता रहा था। हाल में घटित कांग्रेसी कारगुजारियों ने इस भय को आज सबल बना दिया है।

कहना न होगा कि भारतीय राजनीति में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सुदीर्घ परम्परा रही है। किसी ज़माने में कांग्रेस पार्टी आचरण की शुद्धता और पवित्रता का पर्याय थी। आज वह खुद विधर्मी हो चली है। कथाकार मुंशी प्रेमचन्द आज के समय होते, तो क्या ऐसा लिख पाते-‘‘कांग्रेसवाले किसी पर हाथ नहीं उठाते. चाहे कोई उन्हें मार ही डाले. नहीं तो उस दिन जुलूस में दस-बारह चौकीदारों की मजाल थी कि दस हजार आदमियों को पीट कर रख देते. चार तो वहीं ठंडे हो गए थे, मगर एक ने हाथ नहीं उठाया. इनके जो महात्मा हैं, वह बड़े भारी फ़कीर हैं. उनका हुक्म है कि चुपके से मार खा लो, लड़ाई मत करो.’’ मुंशी प्रेमचन्द लिखित कहानी ‘मैकू’ आज प्रासंगिक है।

स्वाधीनतापूर्व लिखी गई इस कहानी में प्रेमचन्द कांग्रेसजनों की बडाई करते नहीं थकते हैं। उनका पात्र मैकू जब यह संवाद बोलता है, तो उसकी दृढ़ता उस पात्र की ही नहीं खुद प्रेमचन्द की दृढ़ता को प्रकाशित करती है। कांग्रेस ने कितनी जल्दी अपने स्मृतियों से हाथ छुड़ा लिया है या फिर उन स्मृतियों से उभरने वाली जनसेवी हाथ की आकृति को स्याह कर दिया है; इस बारे में ज्यादा चिन्तन या अनुसंधान की जरूरत नहीं है।

कांग्रेस में अवतरित कुछ नए प्रणेताओं(?) ने खुलेआम कहना शुरू कर दिया है कि बाबा रामदेव सरकार को ‘ब्लैकमेल’ या फिर जनता से धोखाधड़ी कर रहे थे। प्रश्न है कि इस कथित आरोप को जनता अपने खिलाफ की गई ठोस कार्रवाई के उचित विकल्प के रूप में कैसे सही मान ले? आन्दोलन की शुरूआत से पहले योगगुरु के दिल्ली आगमन के समय चार-चार कांग्रेसी मंत्रियों का एयरपोर्ट जाना; किस प्रोटोकॉल के अन्तर्गत आता है? क्यों नहीं बाबा रामदेव को वहीं से बैरंग लौटा दिया गया था? सौ-टके का एक सवाल यह भी है कि दिल्ली के रामलीला मैदान में जिस घड़ी सबकुछ सामान्य ढंग से घटित हो रहा था। दिल्ली पुलिस को बिलावज़ह ‘पॉवर’ दिखाने की अनुमति आख़िरकार क्यों दी गई? अब कांग्रेसी दलील की भाषा चाहे जो हो, असल में कांग्रेस की यह कार्रवाई जनमानस की चेतना पर एक परोक्ष प्रहार है। सीधी चेतावनी है उन देशवासियों को जो चेतना में जीवित हैं; मूल्यों की एकता में विश्वास करने वाले हैं; साथ ही देश की मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा पर आँच न आए; इस तरफ़दारी में खुद को होम कर देने वाले हैं। दरअसल, सामूहिक गोलबंदी का यह जनज्वार कांग्रेसी चूलें हिलाने में समर्थ है; कांगेसी सियासतदारों को यह भान हो

लिया था।

मित्रवर, यह कांग्रेस का अवनमन-काल है। दृष्टिकोण में अंतर और पार्टी नीतियों में हो रहे घटोतरी विकास का सूचक है। पूँजी समर्थित गठजोड़ से बनी यूपीए सरकार अब गाँधी-नेहरू की पार्टी नहीं है। विचलन का कोण इतना अधिक एकान्तर हो गया है कि स्वाधीनताकालीन कांग्रेस से आज के कांग्रेस की तुलना ही बेमानी है। ए0 ओ0 ह्यूम जो कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक थे; उनकी दिली इच्छा थी कि वह खुद को भारत के मूल निवासी के रूप में देखें। उनकी एक प्रसिद्ध उक्ति है-‘आई लूक अपॉन माईसेल्फ एज ए नैटिव ऑफ इंडिया।’ वस्तुतः ह्यूम किसानों से गहरे संस्तर तक जुड़े थे। भारतीय किसानों की दुर्दशा को लेकर उन्होंने सन् 1879 ई0 में ‘एग्रीकल्चरल रिफार्म इन इण्डिया’ नामक पुस्तक लिखी थी। वे वृक्षारोपण के हिमायती थे। उनका मानना था कि अधिकाधिक वृक्षारोपण एक ऐसी शाश्वत व्यवस्था है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति बरकरार रहती है और सुखाड़ की नौबत नहीं आती है। उन दिनों भारत के बहुलांश भूभाग सूखे और अकाल के चपेट में होते थें। बाद के

स्वाधीनता संग्राम में कांग्रेस की भूमिका के बारे में विशद वर्णन करना अपनेआप में एक मुकम्मल शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत करना है।

ऐसे दूरदर्शी चिन्तकों के मार्गदर्शन में पुष्ट-संपुष्ट हुई पार्टी को भारतीय स्वाधीनता का ‘प्रथम कदम’ जिन भारतीयों ने माना; आज उसी कांग्रेसी जत्थे के लोग कांग्रेस पार्टी की लूटिया डूबोने में जुटे हैं। आज कांग्रेस के भीतर नेहरू जैसे व्यक्तित्व की आभा मद्धिम-मलिन है जबकि इन्दिरा गाँधी के बाद आई हुई पीढ़ी का वर्चस्व और हस्तक्षेप अधिक। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साइट पर जाइये, तो पाएंगे कि वहाँ ‘इन्दिरायन संस्करण’ का बोलबाला हैं। वेब-पोर्टल के मुख्यपृष्ठ पर डॉ0 राजेन्द्र

प्रसाद, डॉ0 आम्बेदकर, पण्डित जवाहर लाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, अबुल कलाम आजाद, लाल बहादुर शास्त्री सरीखे जननेताओं का स्थान गौण है। अगर इन

परिवारवादियों के नाम में ‘गाँधी’ शब्द का पुच्छला न लटका होता, तो शायद उनकी तस्वीर को भी कोई तवज्ज़ों नहीं मिलता।

हाल ही में एक दैनिक समाचारपत्र में 21 मई को राजीव गाँधी को श्रद्धाजंलि देते हुए विभिन्न पृष्ठों पर तीन से अधिक विज्ञापन छपे थे; वहीं 27 मई को पण्डित जवाहर लाल नेहरू की पुण्यतिथि के अवसर पर मात्र एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। ये उदाहरण तो सिर्फ संकेत मात्र हैं; ताकि यह जाना जा सके कि कांग्रेस अपनी मूलाधार से कितनी विलग और विचलित हो चुकी है। हर कदम पर भारत बुलंद का सपना देखने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आम आदमी के बढ़ते कदम पर नकेल कसने के लिए किस किस्म का षड़यंत्र रच सकती है; यह 4 जून 2011 को दिल्ली के रामलीला मैदान में घटित घटना से जगजाहिर है?

वास्तव में कहें, तो कांग्रेस आलाकमान सोनिया गाँधी कचरे की पेटी पर पालथी मार बैठी हैं। पार्टी नीतियों में संगत तालमेल का अभाव है। विचारवेत्ता सभी हैं, लेकिन परिपक्व विचार किसी में नहीं हैं। कांग्रेस सुप्रिमों की दिशा-निर्देशन वाली यूपीए सरकार अपनी अदूरदर्शिता को ले कर आलोचना की शिकार है। पार्टीगत निर्णय हो या सरकारी क्रियाकलाप; सभी जगह अफरा-तफरी का माहौल है। कोई किसी को सुनने को तैयार नहीं। सभी राजनीतिज्ञों में अपनी बात कूटने या फिर मनवाने की बुरी लत है।

बहरहाल, कांग्रेसी बागडोर जिन हाथों में सौंपा जाना है; राहुल गाँधी उसके घोषित दावेदार तो हैं, किन्तु उन्हें कब, कहाँ और कैसे बोलना है? यह पूर्व निधार्रित है। देश में उनकी छवि को जानबूझकर स्टार-प्रचारक की बनाई गई है। वे लोगों को अपनी अभ्यास-भाषा से प्रभावित कर ले जाते हैं; मीडिया को इसका गुमान है। जबकि सचाई यह है कि जनता आज भी वीएस0 अच्युतानंदन के साथ है जो राहुल गाँधी को ‘अमूल बेबी’ के निकनेम से सम्बोधित करते हैं। महंगाई को गठबंधन की विवशता और भ्रष्टाचार को इस व्यवस्था की विवशता कहने वाले राहुल गाँधी 19 जून को ‘हैप्पी बर्थ डे’ धूमधाम से मना सकते हैं; लेकिन सार्वजनिक स्तर के संवेदनशील मुद्दे पर जुबान नहीं खोल सकते हैं। हाल के दौरों या फिर ‘रोड शो’ में राहुल गाँधी संचार-क्रांति और सूचना-राजमार्ग के बरअक्स भारत में तकनीकी संजाल बिछाने की बात करते हैं।

सभी को अंग्रेजी कॉलम पढ़ने का सहूर सिखाने के लिए अंग्रेजी की पैरोकारी भी करते हैं, लेकिन बतौर युवा राजनीतिज्ञ उनकी सम्प्रेषण शैली और वक्तव्य कला में लोचा ही लोचा है। क्योंकि उनकी कहनशैली अधिकांशतः ‘टेप्ड’ मालूम पड़ती है। राहुल गाँधी का राजीव गाँधी की तरह प्रखर और ओजस्वी वक्ता नहीं होना; भावी प्रधानमंत्री के लिए बिछे लोक-आवरण में पगबाधा आउट करार दिए जाने की माफिक है। यों तो मुद्दे और विषय जनहित और लोककल्याण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण एवं दूरगामी परिणाम वाले होते हैं; किन्तु ये उद्घोषणाएँ जनता की नज़र में राजनीतिक पैठ जमाने का सशक्त जरिया है।

1 COMMENT

  1. समाज परिवर्तन एवम विकास के लिए राजनीति सर्वाधिक महत्वपुर्ण है यह तथ्य ईतिहास के झरोखे से देखने पर बेमानी दिखता है। अध्यात्म मे जो ताकत है चिरस्थायी परिवर्तन करने की वह राजनीति मे नही है।

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