जो जीत को हार में बदल दे उसे कांग्रेस कहते हैं!

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जगमोहन फुटेला.

चुनाव और उस में हार जीत हो जाने के बाद समीक्षक हो जाना बहुत आसान होता है. जो जीते उसके लिए डींगें हांकना भी. लेकिन आंकड़े कई बार सच नहीं, मूर्खता भी उगलते हैं.

मिसाल के तौर पर पंजाब और उस में अकाली-भाजपा गठबंधन की जीत. कितने आराम से कह रहे हैं विशेषज्ञ कि ये सुखबीर बादल के विकास मुद्दे की जीत है. और इसलिए हमारे महान कलमकार सुखबीर बादल में पंजाब का भविष्य और भविष्य में सुखबीर बादल को पंजाब का प्रतीक समझने लगे हैं. वे समझें, लिखें जो जीमें आये. इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और आज आप पंजाब में बादल-गुणगान करें तो किसी भी सुरेन्द्र अवस्थी की तरह किसी न किसी पद से नवाजे भी जा सकते हैं. मगर आज की इस चकाचौंध से पल भर नज़र हटा और इस अति उत्साह से सिर्फ सांस भर का समय निकाल कर कोई बतायेगा कि अगर विकास एक बड़ा मुद्दा था और पंजाब के लोग बादल परिवार के कृत-कृतघ्न तो उनके दामाद महज़ 59 वोटों से ही क्यों जीत पाए. दामाद तो पंजाबियों की संस्कृति में बड़े आदर और सम्मान का पात्र होता है.उसे तो औरों से और भी ज़्यादा ‘प्यार’ मिलना चाहिए था जनता का! फिल्लौर से अकाली दल के अविनाश चंदर तो और भी कम, सिर्फ 31 मतों से जीते. जगराओं से शिवराम कलेर 206 के बहुमत से जीते और कभी लोकसभा के डिप्टी स्पीकर रह चुके चरणजीत सिंह अटवालकुल 630 के अंतर से. इन्हें मिला कर नौ ऐसे अकाली उम्मीदवार हैं जो एक हजार से कम के फासले से जीत पाए हैं. या कहें कि कांग्रेसी जीतते जीतते हारे हैं.

डेराबस्सी को ही देख लो. जिस दीपेंदर ढिल्लों को वो पिछले कई सालों से स्थापित करती आई थी कांग्रेस, उसने चुनाव आया तो टिकट उसे नहीं दिया. बाहर से एक बंदालाई. वो अपनी ज़मानत तक नहीं बचा सका. ढिल्लों बिना पार्टी, बिना मदद, बिना किसी छोटे या बड़े नेता की अपील के इक्यावन हज़ार वोट पा गया और हारा सिर्फ बारह हज़ारके अंतर से. टिकट उसे मिली होती तो जीत सकता था इस से भी बड़े अंतर से

आप कह सकते हैं कि बुआ के दाढ़ी होती तो वो ताया न होती? …ठीक. मगर सवाल है कि बढ़िया खेत में बढ़िया फसल हो सकने वाली ज़मीन पे झाड़ी उगी क्यों? तर्क के लिए तर्क तो ये भी है ही न, कि ये नौ सीटें अगर कांग्रेस जीत गयी होती तो अकाली-भाजपा गठबंधन के विधायक नौ कम और कांग्रेस के नौ ज़्यादा होते. अब इनमें कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवारों से ज़्यादा वोट लेने वाले दर्जन भरबागी उम्मीदवार और जोड़ें तो कैसे कांग्रेस की सीटें 65 के पार नहीं होतीं. वामपंथी वोटरों के मनप्रीत की पीपीपी के साथ जाने के बावजूद.

तकनीकी तौर से कांग्रेस से ये समझने में भी भूल हुई कि मनप्रीत सिंह भी बादल हैं, बादलों को छोड़ कर निकले हैं तो उन्हीं का नुक्सान करेंगे. कांग्रेस ये मोटी सी बात नहीं समझ सकी कि जिसने वोट लेने सरकार और बादल परिवार के खिलाफ बोल के हैं तो उन्हें मिलेंगे तो वोट वैसे भी सरकार के खिलाफ वाले ही. तो ये करीब सात फीसदी वोट भी कांग्रेस के खाते से गए. कांग्रेस और कुछ नहीं तो कामरेडों को तो पंजाब में अपने साथ जोड़ नहीं तो मनप्रीत से तोड़ करने के लिए कुछ कर ही सकती थी. वो भी न सही. कांग्रेस ने उस बलवंत सिंह रामूवालिया को भी ऐन चुनाव के दौरान अकाली दल से अलग कर लिया होता तो साख के रूप में कुछ नुक्सान होता अकाली दल का. ट्रिब्यून के मुताबिक़ अगरसुखबीर कांग्रेसी उम्मीदवारों को हरा सकने की क्षमता वाले किसी भी पार्टी के उम्मीदवारों की हर तरह से मदद कर सकते हैं तो फिर कांग्रेस क्यों नहींकर सकती थी?

मगर नहीं कर सकती थी वो. कांग्रेस से तो खुद अपने नेताओं और उम्मीदवारों कीमदद न हुई. पहले वो अपने शर्तिया जीत सकने वाले नेताओं को टिकट न दे सकी और फिर जिन्हें दिया उन में से नौ उसके हज़ार से कम में हारे. इनके अलावा कम से कम नौ औरों को वो खुल के हराने में जुटी हुई थी. भट्ठल फिर भी जीत गईं तो ये उनकी खुद की हिम्मत (या किस्मत) है.

अब इस से ज़्यादा बड़ा सबूत क्या होगा कांग्रेस के दिमागी दिवालियेपन का कि वो जनताअपने साथ होने के बावजूद हारी है. तमाम बेवकूफियों, गलत टिकट बंटवारे और भितरघात के बावजूद अकाली-भाजपा के मुकाबले ज़्यादा वोट मिले हैं उसे. न सिर्फ सत्ता खोई उसने. उस सुखबीर बादल से निजात दिला सकने का भरोसा भी खोया उसने जिस की वैसी छवि के चलते खुद अकाली दल ने उसे भविष्य के अपने नेता के रूप में प्रोजेक्ट करने का साहस नहीं दिखाया. खुद के सर्वेक्षण में पाया उन ने कि बस डूबा ही जहाज़. अगर छवि ये गयी कि राज सुखबीर करेंगे. उन्होंने समझदारी दिखाई. चार कदम आगे जाने के लिए एक कदम पीछे हटाया. कहा, सत्ता में आये तो मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल होंगे.

आज हालत क्या है? सत्ता तो शायद सबको कहीं न कहीं एडजस्ट और व्यस्त कर ही देती. मगर अपनी अपनी पे उतरे अमरेंदर और भट्ठल आज भी हैं. बाकियों में निराशा और हताशा के साथ. अब आगे लोकसभा चुनाव के लिए भी आइकान कौन है, उपलब्धि क्या है? प्रधानमत्री की खाली कुर्सियों वाली सभा के साथ ये नारा तो भो थरा हो ही गया है कि देखो प्रधानमंत्री सिख है.

लोकसभाका चुनाव और उसमे पंजाब अभी कुछ दूर है. डर मगर ये है कि उस से पहले हिमाचल विधानसभा का चुनाव है और कांग्रेस के भीतर की हालत वहां भी पंजाब सेको ई बहुत अलग नहीं है.

 

 

2 COMMENTS

  1. आप ने इस बार भी कांग्रेस की विरुदावली अच्छी तरह गाई..इसके लिए कांग्रेस पार्टी से बहुत बख्शीश मिलना तो तय है.अगर कांग्रेस के उत्तर प्रदेश के हार की भी व्याख्या कर देते तो ज्यादा अच्छा लगता.ऐसे आपने यह तो ध्यान ही नहीं दिया या शायद ध्यान देने की आवश्यकता हीं नहीं समझी कि चुनावी पंडितों के मतानुसार बंधी बंधाई लिक पर चुनावी गाडी चलती तो कांग्रेस की पंजाब में जीत होती.क्या यही कम शर्म की बात है कि आप जैसे लोगों को अच्छी तरह से विरुदावली गाने का मौक़ा भी नहीं मिला.अगर और लेकिन का सहारा लेने की आवश्यकता पड़ गई

  2. हाय री किस्मत! लेख के विषय को ले कर जगमोहन फुटेला जी द्वारा चिंतन को मैं भली भांति समझ सकता हूं| इस बीच हार जीत की नौटंकी में देश की जो दुर्दशा हो रही है उसे देख मेरे पंजाब में चुनाव के समय का एक बहुत पुराना लोकप्रिय चुटकुला मुझे याद हो आया| भा.ज.पा. और कांग्रेस के दो चुनाव प्रतियोगियों में उनकी पार्टियों को लेकर तर्क-वितर्क हो गया| भा.ज.पा. उमीदवार ने शिकायत की कि उसके प्रतिद्वंदी ने गॉव की सड़क के ठेके से पांच लाख बनाए है; स्कूल की नई इमारत में अधिक रेत मिला एक लाख रूपए खाए हैं जबकि उसकी छत पहली बरसात में ही गिर गई; इसने गौशाला का चंदा भी खाया है; इसे वोट मत दो| कांग्रेस उमीदवार ने बड़े निर्भय हो कर माना कि उसने सड़क के ठेके से पांच लाख हजम किये हैं; स्कूल की इमारत से भी एक लाख बनाया है और यह भी सच है कि गौशाला का चन्दा मैंने निजी खर्चे पर लगाया है, और ऊँची आवाज़ में बोला मैंने पैसे बनाए है लेकिन यह न भूलो कि अब इसने पैसे बनाने हैं| इस लिए भाइयो-बहनों इसे वोट मत देना!

    कौन जीता और कौन हारा यह तो मुझे याद नहीं पर तथाकथित स्वतंत्रता के चौंसठ वर्षों के पश्चात मेरे गाँव ने केवल अपनी जनसंख्या में ही उन्नति की है!

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