अल्पसंख्यक आयोग द्वारा ओडीशा में साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने की साज़िश – डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

alpभारत सरकार का एक अल्पसंख्यक आयोग है । भारत सरकार का मानना है कि इस देश में अल्पसंख्यक सदा ख़तरे से घिरे रहते हैं । इस देश के लोग अल्पसंख्यकों को नष्ट करने पर तुले हुये हैं । इसलिये उनकी सुरक्षा के लिये अलग से व्यवस्था करना बहुत ज़रुरी है । अल्पसंख्यक आयोग भारत सरकार की इसी सोच का परिणाम है । जिन दिनों भारत में अंग्रेज़ों की सरकार थी , उन दिनों उस सरकार का भी लगभग यही मत था । तब उन्होंने अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिये जिन्ना को नियुक्त कर दिया था । जिन्ना ने अल्पसंख्यकों की रक्षा , पाकिस्तान की स्थापना करके की । पाकिस्तान को बने हुये लगभग सड़सठ साल हो गये हैं । धीरे धीरे भारत सरकार का यह मत फिर दृढ़ होने लगा कि अब फिर अल्पसंख्यक असुरक्षित होने लगे हैं । लेकिन इस बार शायद लगा होगा कि अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का ज़िम्मा किसी अकेले जिन्ना को नहीं दिया जा सकता । वह अंग्रेज़ों का वक़्त था , यह सोनिया गान्धी का वक़्त है । बैसे भी एक अकेला , दो ग्यारह । इसलिये यह काम एक आयोग को सौंपा गया है । यही आयोग अल्पसंख्यक आयोग कहलाता है ।

जैसे जिन्ना ने समय पाकर रंग दिखाना शुरु कर दिया था,उसी प्रकार अब इस आयोग ने भी समय पाकर अपना रंग दिखाना शुरु कर दिया है । आयोग शायद यह मानता है कि अल्पसंख्यकों के अधिकार इस देश के लोगों से अलग हैं । इसलिये उसने ‘अल्पसंख्यक अधिकार दिवस पुरस्कार’ देने की एक नई परम्परा शुरु की है । अंग्रेज़ शासक भी भारतीय समाज को बाँटने के लिये नये नये हथकंडे अपनाते रहते थे । अल्पसंख्यक आयोग भी अंग्रेजों के उन्हीं आज़माये हुये रास्ते पर चल रहा है । इस बार आयोग ने यह अल्पसंख्यक अधिकार दिवस पुरस्कार ओडीशा के जनजातिय क्षेत्र कन्धमाल में विदेशी पैसे के बल पर जनजाति समाज के मतान्तरण के काम में लगे हुये एक पादरी अजय कुमार सिंह को देने का निर्णय किया है । कन्धमाल ज़िला काफ़ी संवेदनशील ज़िला माना जाता है । यहाँ कन्ध जनजाति के लोग रहते हैं । अंग्रेज़ों के समय से ही चर्च कन्धों को ईसाई मज़हब में मतान्तरित करने का प्रयास करता रहा है । कन्ध उसके इन प्रयासों का जी जान से विरोध करते आ रहे हैं । २००८ में चर्च ने माओवादियों की सहायता से कन्धों के देवतातुल्य महापुरुष स्वामी लक्ष्मणानन्द की हत्या कर दी थी । स्वामी जी चर्च के मतान्तरण आन्दोलन का सफलतापूर्वक विरोध कर रहे थे । उस समय कन्धों और ईसाई मिशनरियों में भयंकर दंगा फ़साद हुआ था और कई जानें भी गईं थीं । चर्च द्वारा स्थापित एक संस्था जन विकास परिषद इस पूरे विवाद में कन्धों के ग़ुस्से का शिकार हुई थी । क्योंकि चर्च विदेशी पैसे के प्रयोग से इसी संस्था की आड़ में मतान्तरण आन्दोलन चला रहा है । अजय सिंह नाम का यह पादरी मतान्तरण के आन्दोलन में अग्रणी तो था ही साथ ही स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या के बाद कन्धों को सबक़ सिखाने के अभियान में सबसे आगे था । दरअसल कन्धमाल में कन्धों को प्रताड़ित करने और उन्हें घेरने में जो त्रिमूर्ति वहाँ सबसे ज़्यादा बदनाम है , उसमें जान दयाल , जो अपने आप को चर्च की किसी अखिल भारतीय परिषद का प्रधान भी बताता है , राधाकान्त नायक , जिस पर आरोप है कि उसने जनजाति का ग़लत प्रमाण पत्र देकर सरकारी नौकरी हासिल की और जो कन्धमाल को ईसाई बनाने के षड्यंत्र का मुख्य सूत्रधार माना जाता है और तीसरे यही पादरी अजय कुमार सिंह जो इन दोनों की योजनाओं को सफल बनाने के लिये फ़ील्ड वर्क करता है । इन तीनों की गतिविधियों को भुवनेश्वर में बैठा एक सज्जन राफ़ेल चीथाह नियंत्रित करता है , जो अपने आप को आर्कविशप कहता है और दिशा निर्देश के लिये इटली में वेटिकन से सम्पर्क बनाये रखता है । कन्धमाल में जनजाति समाज निरन्तर यह मांग करता रहता है कि इन चारों की गतिविधियों की जाँच करवाई जाये ।

सोनिया गान्धी ने ईसाई मत को फैलाने और जनजाति समाज में मतान्तरण को गति देने के पुरस्कार में इन में से एक राधाकान्त नायक को तो भारत की राज्य सभा में भेज कर पुरस्कृत किया , जान दयाल को अल्पसंख्यक आयोग के पुरस्कार का निर्णय करने वाले पैनल का सदस्य बना कर पुरस्कृत किया और जान दयाल ने पैनल की बैठक में अपने तीसरे साथी पादरी अजय कुमार सिंह का नाम अल्पसंख्यक पुरस्कार के लिये प्रस्तावित कर षड्यंत्र की अंतिम कड़ी को भी पूरा कर दिया । इस षड्यंत्र की कोई कड़ी कहीं से भी कमज़ोर न रह जाये , इस की ज़िम्मेदारी अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष वजाहत हवीबुल्लाह को करनी थी । हवीबुल्लाह जम्मू कश्मीर सरकार के मुख्य सचिव रह चुके हैं और जम्मू कश्मीर की स्थिति पर कुछ न कुछ लिखते रहते हैं । उस ‘कुछ न कुछ’ को पढ़ लिया जाये तो देश की रक्षा में प्राण न्योछावर करने के लिये तत्पर भारतीय सेना इस देश में रह रहे अल्पसंख्यकों के लिये राक्षस और खलनायक है । अल्पसंख्यकों को सबसे बड़ा ख़तरा , उनके अनुसार भारतीय सेना से ही है । लेकिन हवीबुल्लाह और चर्च के रास्ते में अभी भी एक बाधा थी । पादरी अजय कुमार सिंह क्योंकि ओडीशा में मतान्तरण के काम में लगे हुये हैं , इसलिये पादरी के सिर पर ताज सजाने से पहले ओडीशा सरकार की राय लेना भी ज़रुरी था । ओडीशा सरकार ने अल्पसंख्यक आयोग के इस षड्यंत्र का विरोध कर दिया । उसने कहा कि पादरी के गले में पुरस्कार की यह माला पहनाने से जनजाति समाज की भावनाएँ भड़केंगी और कन्धमाल में फिर तनाव पैदा होगा,इसलिये पादरी को यह पुरस्कार नहीं देना चाहिये ।तब विवश होकर वजाहत हबीबुल्लाह को भी अब अपने असली रुप में आना ही पड़ा । उन्होंने ओडीशा सरकार की राय को दरकिनार करते हुये कहा कि पादरी पर कोई केस दर्ज नहीं है । फिर शायद हबीबुल्लाह को ध्यान आया होगा कि हो सकता है पादरी के खिलाफ कोई केस भी निकल ही आये । इसलिये लगे हाथ उसका भी निपटारा कर दिया जाये । इसलिये उन्होंने यह भी जोड़ दिया कि यदि केस भी दर्ज हो,तब भी जब तक सजा न हो जाये तब तक उसे निर्दोष ही माना जायेगा ।

लेकिन असली प्रश्न इस के बाद शुरु होता है ? आख़िर कन्धमाल समाज , जनजातिय लोगों और ओडीशा सरकार के विरोध के बावजूद सोनिया गान्धी की सरकार का अल्पसंख्यक आयोग कुख्यात पादरी अजय सिंह के सिर पर यह मोर मुकुट सजाने के लिये वजिद क्यों है ?यहीं पूरे षड्यंत्र की गुत्थी छिपी हुई है । दरअसल चर्च को लगता था कि स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या के बाद कन्धमाल का जनजाति समाज भयभीत और अनाथ हो जायेगा । इस भय और निराशा की स्थिति में वह चर्च के आगे आत्मसमर्पण कर देगा । स्वामी जी की हत्या का एक और संदेश भी था । जो भी चर्च के रास्ते में आयेगा, उसका यही हश्र होगा । यदि चर्च ने स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती जैसे व्यक्तित्व को नहीं बख़्शा तो आम कन्ध की क्या औक़ात हो सकती है ? लेकिन हुआ इसके विपरीत । स्वामी जी की शहादत ने कन्ध समाज का, चर्च द्वारा किये जा रहे मतान्तरण आन्दोलन का विरोध करने का संकल्प और पक्का कर दिया । पादरी अजय सिंह को पुरस्कार, कन्ध समाज के इसी आत्मबल और आत्मविश्वास को सरकारी सत्ता के बल पर तोड़ने का नया प्रयास है । चर्च का कन्ध समाज को संदेश स्पष्ट है । सोनिया गान्धी की सरकार हमारे साथ है । जो पादरी तुम्हारे लिये खलनायक है , वही पादरी सोनिया गान्धी के योजनाकारों के लिये नायक है । तुम अपनी लड़ाई किसके बलबूते पर लड़ोगे ? इस देश की जनता को यही उत्तर देना होगा । भारत भारतीयता की लड़ाई किसके बलबूते लड़ेगा ? यहाँ तक सोनिया गान्धी की सरकार का सवाल है,उसने अपना स्टैंड साफ़ कर दिया है । वह पादरी के साथ है ।

लेकिन एक उत्तर वजाहत हबीबुल्लाह के प्रश्न का भी । हबीबुल्लाह का कहना है कि पादरी के खिलाफ कोई केस किसी अदालत में नहीं चल रहा । हबीबुल्लाह स्वयं अच्छी तरह जानते हैं कि जिस प्रकार के प्रश्नों और मुद्दों की लड़ाई वे स्वयं और चर्च अल्पसंख्यक आयोग की ढाल में लड रहा है , उसके निर्णय अदालतों के केसों से नहीं होते । जिन्नाह पर भी किसी अदालत में केस नहीं चल रहा था , लेकिन उन्होंने अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा देश को तोड़ कर की । हबीबुल्लाह तो कश्मीर घाटी में रह कर ही नहीं आये बल्कि वहाँ जो चल रहा है , उसको लेकर सरकारी निर्णयों में उनकी भी भागीदारी रही है । अल्पसंख्यकों की रक्षा के नाम पर वहाँ से लाखों हिन्दु भगा दिये गये , उन भगाने वालों में से किसी पर किसी भी अदालत में क्या कोई केस चल रहा है ? केस नहीं चल रहा , इसलिये हबीबुल्लाह की नज़र में तो वे निर्दोष ही होंगे । हो सकता है इस बार पादरी के बाद अगली बार हबीबुल्लाह कश्मीर के किसी ऐसे ही मौलवी को अल्पसंख्यक अधिकार पुरस्कार दे दें ,जो घाटी में रात को मस्जिद में लाऊडस्पीकर लगा कर हिन्दुओं को कश्मीर छोड़ने का अल्टीमेटम दे रहा था । प्रश्न हबीबुल्लाह या जान दयाल का नहीं है और न ही पादरी अजय सिंह का है । क्योंकि ऐसे लोग हर काल में हर सरकार को अपने एजेंडा को पूरा करने के लिये मिल ही जाते हैं । सोनिया गान्धी की सरकार पर्दे के पीछे से आख़िर भारत को लेकर किस तस्वीर में रंग भर रही है ? स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या के पाँच साल बाद एक बार फिर कन्धमाल फ़ोकस में है ।

 

 

 

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