छल-कपट और कुटिलता से होता है – धर्मांतरण

 आर.एल.फ्रांसिस

धर्मांतरण को लेकर चर्च के पादरी हमेशा सर्तक रहते है जब भी उन पर धोखाधड़ी या लालच देकर धर्मांतरण करवाने के आरोप लगते है तो वे इसे सिरे से खारिज कर देते है। आरोप लगाने वालो से प्रमाण पेश करने को कहा जाता है।

 

झांसी निवासी कैथोलिक र्इसार्इ विचारक पी.बी. लोमियों द्वारा लिखित ‘बुधिया-एक सत्यकथा धर्मांतरण को लेकर पादरियों की पोल खोलती है यह कोर्इ काल्पनिक गल्प (कथा) नहीं है। अपितु सत्य के धरातल पर उकेरा गया, वह संदेश है, जो वर्तमान चर्च को एक सुधारवादी दृषिटकोण अपनाने का संकेत देता है। शर्त बस यही है, कि चर्च इसे, नकारात्मक दृषिटकोण से न देख कर ठोस सकारात्मक सोच अपनाए।

 

धर्मांतरण और कैथोलिक चर्च की अधिनायकवादी सोच पर लिखा गया उतर भारत का यह पहला उपन्यास होगा। आज तक ब्राह्रामणवादी व्यवस्था में दलित और अछूत वर्गो को लेकर अनेकों उपन्यास और कहानियाँ लिखी गर्इ है पर किसी भी उपन्यासकार ने चर्च के अंदर उत्पीड़त होते इन वर्गो पर लिखने और उनकी दयनीय दिशा का समाज से परिचय करवाने का प्रयास नही किया है।

 

यह लघुउपन्यास भारत के उन लाखों-करोड़ों धर्मांतरित र्इसाइयों की व्यथा कथा भी है, जो चर्च के झूठे प्रलोभनों में फंस कर प्रगति और सामाजिक विकास तथा सम्मान की आशा लिये हुए, अपनी मूल जाति और हिन्दू धर्म को त्याग कर र्इसार्इ बन गए थे, र्इसार्इ बनने के बाद उनकी दिशा पहले से भी बदत्तर हुर्इ है, और वह चर्च में पादरियों के गुलामों जैसा जीवन जी रहे है।

 

‘बुधिया-एक सत्यकथा की नायक (बुधिया) एक पंडवानी की कलाकार है जो छतीसगढ़ से पंडवानी खेलते हुए पाकदिलपुर मिशन स्टेशन (उतर प्रदेश) में आते है और यही पर पादरियों की उन पर नजर पड़ती है और वह इन आत्माओं को बचाने के लिए अमेरिका से आने वाले तेल, दूध पाऊडर, दलिया, पनीर, बटर आयल, गेहूँ-चावल – इत्यादि के भंडार इनके लिए खोल देते है। यहीं से पंडवानी खेलने वाले इस परिवार का दुर्भाग्य शुरु हो जाता है। चर्च के पादरी जल्द ही इस परिवार को कैथोलिक में दीक्षित कर पोप के सच्चे अनुयायियों में शामिल कर पाकदिलपुर मिशन स्टेशन से जूडपुर-झांसी में लाकर बसा देते है।

 

जूडपुर, कैथोलिक र्इसार्इ मिशनरियों का कृषि फार्म विलेज है। यह झाँसी से लगभग सात किलोमीटर दूर पूर्वोत्तर में सिथत है। यहां कैथोलिक पादरियों के खेतों में बंधुवा मजदूरी करते-करते पंडवानी कलाकारों का दुख:दायी अंत शुरु हो जाता है। उन दिनों पंडवानी को नौटंकिया नाच-गाना ही समझा जाता था। वक्त बदला, छत्तीसगढ़ क्षेत्र की ही तीजन बार्इ ने इस लोककला को देश ही नहीं विदेशों तक में शोहरत दिलार्इ – एक अमिट चिरस्थार्इ पहचान दिलार्इ। तीजन बार्इ को आज दुनिया जानती है; लेकिन उनकी ही सहोधरा, बुधिया का नाम कोर्इ नही जानता। उसी जमीन से तीजन उपजी हैं। उनकी लोककला उपजी है – उसी जमीन से बुधिया का आगमन हुआ था। वह भी पंडवानी कला में उतनी ही पारंगत थी जितनी तीजन बार्इ हैं। लेकिन भाग्य और दुर्भाग्य में, यही तो अंतर है। यदि बुधिया का परिवार र्इसार्इ बन कर, अपना दुर्भाग्य न लाता, तो शायद उनका नाम भी इस लोक कलां के इतिहास का हिस्सा होता।

 

बुधिया-एक सत्य कथा, में लेखक ने स्वयं को भी कथा का पात्र बनाया है। वह स्वयं भी कैथोलिक मिशनरियों की तानाशाही तथा कुटिल धर्म सत्ता द्वारा सताया गया व उपेक्षित पात्र रहा है। उसके संघर्ष के साथी उसका साथ न देकर कायरता का परिचाय देते है। इससे समाज के ठेकेदारों को अपनी मनमानी करने की छूट मिलती है और संघर्ष के मार्ग पर चलने वालों पर विराम लग जाता है। लेखक ने चर्च की खामियों को उजागर करने में कोर्इ कसर नही छोड़ी, उन्होंने चर्च के अंदर व्यप्त वर्ग भेद पर जमकर प्रहार किया है। प्रशासनिक दांव-पेंच चलाते फादरों और ननों को भी नही बकशा है। बुधिया की यह सच्ची कहानी चर्च के अंदरुनी दांव-पेंचों और उसके धर्मांतरण के कारोबार का कच्चा-चिठठा खोलती है।

धर्म कोर्इ भी हो, सबमें अच्चछाइयों के साथ-साथ बुरार्इयाँ भी गतिमान रहती है लोग इन बुराइयों को देखना ही नहीं चाहते या जानबूझ कर आाँखें बंद किये रहते है। ”बुधिया-एक सत्य कथा चर्च में व्यप्त बुराइयों को देखने की आखें देती है।

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