कहां से कहां आ गए हम!

-फखरे आलम-
corruption

7 अप्रैल से पूर्व और 16 मई के मध्य! हम कहां से चले थे और आज कहां पहुंच गए। हमने प्रण लिया था कि हम चुनाव लड़ेंगे। एक बेहतर भविष्य के लिए! साफ सुथरी और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन के लिए! एक मजबूत और सशक्त भारत के लिए! वर्तमान शिक्षा और स्वास्थ्य का व्यवस्था हो! हर घर में प्रकाश होगी। चलने के लिए सड़कें! पीने के लिए पानी होगी! घर में चूल्हा जलाने के लिए रसोई गैस होगी! महंगाई गरीब बच्चों का दूध् नहीं छीनेगी! निर्धन और गरीब भूखे पेट नहीं सोएंगे। अनाज खुले आसमान के नीचे नहीं सड़ेगी। सार्वजनिक और सरकारी सम्पत्ति एवं धरोहर का लूट नहीं होगा। अपने ही देश के अन्दर अपने हथियार त्याग देंगे। अपने सैनिकों पर अपने नागरिकों के द्वारा हमले नहीं होंगे! समाज बंटेगा नहीं! सभी वर्ग और जाति मिलकर देश को मजबूती प्रदान करेंगे! मजबूत और आधुनिक भारत में सभी वर्गों और धर्मों का समान श्रम और सहयोग रहेगा, जिससे कोई भारत की नींव को हिलाने की हिम्मत न करे।

न केवल देश ने बल्कि विश्व की निगाहें भी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के जश्न पर लगी है। न केवल अपने बल्कि पराए भी हमारे लोकतंत्र के उत्सव पर नज़र बनाए हुए हैं। मतदान से पूर्व कई अपेक्षाएं ओर आशाएं थीं। हजारों सपने सजने लगे थे। युवाओं का मन हर्ष से उत्साह में था। निराश मन भी एक नए सवेरा लिए था। मगर आज जब मतदान के अंतिम चरणों में नजर दौड़ाएं तो एसा लगने लगा है कि आशा, उम्मीदें, अरमानों का गला घुटने वाला है। बेहतर ओर सुखमय भविष्य की आशा रखने वाला को निराशा ही हाथ लगने वाली है।

मतदान और चुनाव से पूर्व परिवर्तन की जो बयार दिखाई दे रही थी! उसने अपना रास्ता बदला है। चोला बदला है, रंग और रूप भी बदला हे। विकास, प्रगति, शिक्षा, स्वास्थ्य, भ्रष्टाचार, राष्ट्रवाद, अनेकता में एकता, देश का निर्माण सब कुछ पीछे छूटता दिखाई देने लगा है। व्यक्तिगत हमलों, आरोप-प्रत्यारोप, कीचड़ उछालने, धमकियां देने, वर्ग और जातियों पर टिप्पणी करने, अपशब्दों का प्रयोग करके अपने आप को खबरों में बने रहने का चलन चल पड़ा है। समाचार माध्यमों में चुनाव की गर्मी और उत्साह को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने और आरोप, अभद्र शब्द बाणों को सुर्खियां बनाकर टीआरपी हासिल की जाने लगी है और एसा लगने लगा है कि जनादेश 2014 का उत्साह और उमंग सिर्फ मीडिया तक सिमटकर रह गया हो। जबकि हकीकत इन सबसे जुदा और अलग है। भारत का बहुत बड़ा भाग आज भी पिछड़ा हुआ है। देश की जनता अपने मूलभूत समस्याओं में उलझी है। उनके लिए रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ-साथ पानी, बिजली की बड़ी समस्याएं हैं। वह दिन भी चलने वाले जनादेश वाद-विवादों से अलग, मीडिया में पार्टी की चमक दमक से दूर है और अपने अपने क्षेत्रों के प्रत्याशियों को न तो जानती है और न पहचानती है और उनके मतदान का आधर जाति और वर्ग है। वह अपने मूलभूत समस्याओं से ऊपर देश और समाज के निर्माण के लिए मतदान को अभी तैयार नहीं है। जो अभी तक के मतदान प्रतिशत से ज्ञात होता है। मुझे अब लगने लगा है कि यह चुनाव देश और समाज को जोड़ता कम बल्कि दरार पैदा करता दिखाई देने लगा है। जो जितना जहर घोल रहा है उसे उतना सोहरत मिल रहा है। अभद्र और अपशब्द के प्रयोग करने वालों और फिर उसे जनता के मध्य परोसने पर उन्हें अधिक से अधिक रुतबा दिया जाने लगा है। दोषी बेलगाम और असभ्य राजनेता और अपरिपक्वता हमारी मीडिया दोनों ही है।

हरी है, शाख-ए-तमन्ना अभी जली नहीं है।
जिगर की आग दबी है, मगर बुझी नहीं है।।
जफा के तेग से गरदन ए वफा शुआरों की!
कटी है! बर सरे मैदान मगर झुकी तो नहीं!!
जहां भूचाल बुनियाद-ए-फसिल ए दर में रहते हैं।
हमारा हौसला देखो हम एसे घर में रहते हैं।

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