भ्रष्टाचार मुक्ति आन्दोलन

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नरेश भारतीय

अन्ना हजारे ने भारत में भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान छेड़ते हुए आमरण अनशन किया. लोकपाल विधेयक के लिए अड़े और अन्ततः एक समिति के गठन पर सरकार से अपनी मांगे मनवाने में सफलता हासिल की. जंतरमंतर में जब ये सब चल रहा था मैं दिल्ली में ही था और स्थितिविकास पर ध्यान धयान केंद्रित किए हुए था. लगा कि देश ने एक बार फिर संघर्ष का दामन थाम लिया है. सैंकड़ों वर्षों तक भारत ने विदेशी आक्रांताओं के चंगुल से आज़ाद होने के लिए इसलिए संघर्ष किया था क्योंकि उनके द्वारा की जाने वाली लूटपाट और जनशोषण से आम लोग तंग आ चुके थे. अनेक बलिदानों के पश्चात जब आजादी मिली तो उन्हें उम्मीद थी कि शोषण की यह प्रक्रिया समाप्त हो जायेगी. गरीब को लूट कर अपनी जेबें भरने की उनके द्वारा कायम की गयी कुप्रवृत्तियों से हम निजात पा लेंगे, लेकिन देश का दुर्भाग्य कि ऐसा नहीं हुआ.

देश बंटा, क्योंकि आजादी की यही पूर्व शर्त थी जो हमारे तत्कालीन नेतृत्व द्वारा स्वीकार कर ली गयी थी. सहज स्वाभाविक सामाजिक समरसता सत्ताबुभुक्षा की भेंट चढ़ कर टूट बिखर कर रह गयी थी. उसके बाद जिस कांग्रेस के सिर पर देश को आज़ादी दिलाने का एकछत्र सेहरा बाँधा गया उसने अंग्रेजों से सत्ता की कमान अपने हाथ में ले ली. आम आदमी की उम्मीद जगी थी कि उसे स्वच्छ शासन मिलेगा, क्योंकि अब विदेशियों का नहीं उनके अपनों का शासन कायम हुआ था. परन्तु दिन, महीने और वर्ष पर वर्ष बीतते चले गए और जिस तरह का शासन तंत्र पनपा उसकी सब उमीदें एक के बाद एक ढहती चली गयीं.

गरीब और अमीर के बीच की खाई निरंतर और चौड़ी होती चली गयी. आज देश का बच्चा बच्चा जनता है कि सरकार तंत्र में जिस तरह से भ्रष्टाचार ने अपने कदम जमा रखे हैं वह दासताकाल में विदेशियों के द्वारा किए गए शोषण से कहीं अधिक क्रूर और व्यापक है. अपनों के द्वारा अपनों का ही रिश्वतों के माध्यम से शोषण, घपले घोटालों से लदी देश की राजनीति और काले धन का प्रछन्न साम्राज्य जिसमें विदेशी बैंकों में जमा धन देश के लिए नितांत अहितकर और उसके अभूतपूर्व शोषण की पुष्टि करता है. देश की जनता सहती ही रही है और इस उम्मीद के साथ सांस रोके प्रतीक्षा करती रही है कि कभी तो उन्हें होश आयेगी जिन्हें अपने प्रतिनिधि चुन कर वह संसद और राज्य विधान सभाओं में भेजती है.

करोड़ों रूपये खर्च करके चुनाव में विजयी हो कर जब कोई भी राजनीतिज्ञ सांसद, विधायक और उसके बाद मंत्री पद पाने के लिए लालायित रहता है तो किस लिए? क्या देश और जनता की निस्वार्थ सेवा के लिए? क्या वह सही मानों में जनता का सेवक प्रतिनिधि बन पाता है? या फिर सबसे पहले उसका ध्यान इस विषय पर केंद्रित होता है कि उन करोड़ों रुपयों की वापसी का इंतजाम कैसे करे जो उसने चुनाव पर खर्च किए हैं और उसके बाद अपने घर को जितना भी और जिस भी तरीके से भर सके उसका प्रबंध करे? माना कि सभी राजनीतिज्ञ ऐसे नहीं हैं, लेकिन जो ऐसे नहीं हैं उनके द्वारा भी देश की आजादी के बाद से अब तक, मात्र चुनावी नारों के, वस्तुतः क्या और कैसे प्रयत्न किए गए जिससे भ्रष्टाचार को महामारी का रूप ग्रहण करने से रोका जाता?

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाता है. आज भारत विश्व की एक महा शक्ति बनने का स्वप्न साकार करने कि चेष्ठा में है. विश्व भर के अर्थ वित्त विशेषज्ञों का ध्यान भारत पर केंद्रित है. लेकिन इसके साथ ही वे भारत में सर्व व्याप्त भ्रष्टाचार की दुखद गाथा से अनभिज्ञ नहीं हैं. हाल ही में कुछ ऐसे प्रसंग उभर कर सामने आये हैं जिससे देश विदेश में गहरी हलचल मची है. भारत की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचा है. उसकी विश्वसनीयता को आंच आई है. क्या इससे उसके एक विश्व शक्ति बनने के स्वप्न को साकार करने में बाधाएं खड़ी नहीं होंगी?

अनेक वर्षों से जो लोग भारत से विदेश में जा बसे हैं उन्हें आश्चर्य होता है कि कथित विकास के पथ पर अग्रसर उनका अपना मूल देश भारत चेत क्यों नहीं रहा है? यह क्यों नहीं कर पा रहा कि भ्रष्टाचार की दलदल से स्वयं को निकाल सके और विकसित राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा होने का अपना सही सामर्थ्य सिद्ध कर सके. रामदेव का सतत आह्वान और अन्ना हजारे का अनशन भारत की जनशक्ति का प्रदर्शन बखूबी कर चुके हैं. दैनंदिन भ्रष्टाचार ग्रस्त परिवेश में घुटन भरा जीवन जीते हुए आम लोगों के मन में आशा उभरी है कि अन्ना के अनशन से उपजी जन जाग्रति और रामदेव के ओजस्वी उद्बोधनों के फलस्वरूप देश भर में ऐसा आंदोलन छिडेगा जो तब तक नहीं थमेगा जब तक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती. समय की आवश्यकता को महत्व देते हुए किस तरह की कुशल रणनीति के साथ यह आंदोलन आगे बढ़ता है इस पर सबकी दृष्टि बनी हुई है. आंदोलन के नेतृत्व का बीड़ा उठाने वाले योग्य एवं साहसी दोनों व्यक्तित्वों को धयान देना होगा कि आम आदमी की इस तरह जगी आशाओं पा तुषारापात न हो.

देश की आज़ादी के संघर्ष में एक तरफ विदेशी शासन से मुक्ति के लिए जहां गांधीजी ने एक व्यापक जन आंदोलन खड़ा किया था, वहीं भगत सिंह सरीखे शिखर क्रांतिकारी ने एक सशक्त वैचारिक क्रांति को जन्म दिया था जिसमें उन्होंने अंग्रेजों को अदालत में ललकारते हुए भारत के उनके द्वारा शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी. एक ऐसे समाज की परिकल्पना प्रस्तुत की थी जिसमें एक व्यक्ति के द्वारा दूसरे के शोषण के लिए कोई स्थान न हो. आज पुनरपि शोषण के विरुद्ध एक संघर्ष का आह्वान किया गया है जिसमें राष्ट्रहित सर्वोपरि वैचारिक अहिंसक क्रांति की आवश्यकता महसूस की जा रही है. जनता संघर्ष हेतु तत्पर है उसे कटिबद्ध, सशक्त एवं एकीकृत नेतृत्व चाहिए.

आज भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए आंदोलन में ऐसे ढांचे का निर्माण करते हुए दिशा निर्धारण की आवश्यकता है जिसमें भ्रष्टाचार के विषबीज कहाँ कहाँ और कितने गहरे ज़मीन में पैठे विषवृक्ष बनते जा रहे हैं उन्हें जड़ से उखाड़े जाने की प्रक्रिया शुरू की जा सके. उस सोच को बदले जाने की आवश्यकता है जो अपने हक से अधिक दूसरे का हक मारते हुए सुगम धन बनाने को प्रवृत्त करती है. उस तंत्र को बदलने की आवश्यकता है जो भारत के लोकतंत्र को भोगतंत्र बनाता है और जनप्रतिनिधियों को जनता के सेवक नहीं स्वामी बनाता है. मात्र नारेबाजी से अब देश की इस महती समस्या का समाधान संभव नहीं है. निस्वार्थ भावना के साथ इसकी सफलता के लिए सशक्त, बहुआयामी एवं कुशल रणनीति अपनाये जाने की आवश्यकता है.

स्पष्ट है कि एक लोकपाल विधेयक बन जाने से भ्रष्टाचार का उन्मूलन नहीं होगा, लेकिन उसके उन्मूलन की दिशा में यह पहला कदम अवश्य सिद्ध हो सकता है. बशर्ते, कि लोकपाल किसी राजनीतिक दबाव से मुक्त रहे, उसे व्यापक अधिकार हों और उसके निष्कर्षों और निर्णयों को लागू करने का प्रावधान हो. अन्ना हजारे ने आज़ादी के इतिहास के पन्नों को पलट परख कर गांधीजी का अहिंसा मार्ग अपनाने के साथ साथ भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अपने अभियान में जोड़ा है. शिवाजी की युद्धनीति का बखान तक किया है. प्रकटत: यह देश के समस्त समाज को जोड़ने के उद्देश्य से है. यही उचित भी है. बाबा रामदेव भी यही करते आए हैं जिससे उनके सामर्थ्य को अपूर्व विस्तार मिला है.

निस्संदेह, आज सशस्त्र क्रांति नहीं, अपितु निशस्त्र एवं सशक्त वैचारिक जन जागरण के साथ इस आन्दोलन को दिशा दी जाने की आवश्यकता है. देश अपना है, देश की सम्पति अपनी है, देश के राजनीतिक अपने हैं जो जनता की उभरती शक्ति की उपेक्षा नहीं कर सकते. आज जनता और उसके प्रतिनिधियों के बीच खाई को पाटने की आवश्यकता है. लेकिन इसके लिए भारत की जनता को अपनी शक्ति का सही अहसास होना भी समय की मांग है. वह जनता जिसे चुन कर सत्ता के गलियारों तक पहुंचाती है उसे निश्चय ही यह अधिकार भी होना चाहिए कि काम सही न होने से उन्हें वापस बुला सके. इसलिए राजतन्त्र में बदलाव की आवश्कता है. देश में न तो अन्ना हजारों की कमी है और न ही रामदेवों की. देश के भावी कर्णधार युवाओं की शक्ति देश को इस भ्रष्टाचार मुक्ति संघर्ष में विजयी बना सकती है. अनेक आगे आकर जूझने के लिए तत्पर प्रतीत होते हैं. इस वातावरण को बनाए रखने की आवश्यकता है.

कदम उठे हैं अब थमने नहीं चाहिएं. एक आंशिक विजय के बाद यदि थम गए तो फिर उठाने में मुश्किल आयेगी क्योंकि देश की जनता अब परिणाम चाहती है. जैसा उत्साह अन्ना अभियान और रामदेव के आह्वान संबोधनों में दिखा है उसे बनाए रखना और आगे बढ़ाने का उपक्रम करते रहना समस्त समाज के लिए आज इस मुक्ति आन्दोलन की सफलता के लिए नितान्त आवश्यक है. भ्रष्टाचार मुक्त भारत ही विश्व अग्रणी बन सकता है अन्यथा नहीं.

 

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