विज्ञान के क्षेत्र में पिछड़ता देश

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• संदर्भ :- प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने औधौगिक अनुसंधान परिषद के 70वें स्थापना दिवस के अवसर पर जतार्इ चिंता

प्रमोद भार्गव

प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने एक बार फिर यह चिंता जतार्इ है कि भारत विज्ञान एवं वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में लगातार पिछड़ रहा है। बीते दो दशक में यह स्थिति बदतर हाल में सामने आर्इ है। यह बात प्रधानमंत्री ने औधोगिक अनुसंधान परिषद के 70 वें स्थापना दिवस के मौके पर कही। यही वह समय है जब मनमोहन सिंह द्वारा देश में उदारवादी नीतियां अपनार्इ गर्इं और शिक्षा का बड़े पैमाने पर निजीकरण हुआ। जाहिर है यही वे नीतियां हैं जिनके कारण देश विज्ञान के क्षेत्र में तो पिछड़ ही रहा है, आर्थिक विषमता भी बड़ रही है। ये हालात कालांतर में विज्ञान और प्रौधोगिकी के प्रति छात्रों की उत्सुकता और गुणवत्ता में गिरावट लाएंगे। ऐसे हालात में हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि विज्ञान के क्षेत्र में भारत 20 साल पहले की स्थिति बहाल कर ले। फिर भी इस स्थिति में बदलाव के लिए जरूरी है कि हम देश के प्रमुख वैज्ञानिकों का सम्मान तो बहाल करें ही देशज वैज्ञानिक और उनके द्वारा निर्मित उपकरणों की भी कद्र करें।

इस वास्तविक्ता को प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने भुवनेश्वर में विज्ञान कांग्रेस के उदघाटन समारोह में भी स्वीकारा था। लेकिन यह दुखद है कि नितांत मौलिक चिंतन से जुड़ी इस समस्या का समाधान वे निजीकरण की कुंजी और शोध-खर्च को बढ़ावा देने में तलाश रहे हैं। जबकि हमारी संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को बाजार के हवाले कर दिया गया है और वह गुणवत्ता की पर्याय बनने की बजाए, डिग्री हासिल कर किसी भी तरह से वैभवपूर्ण जीवन जीने का पर्याय बनकर रह गर्इ है। ये आधार व्यकित के मौलिक चिंतन और शोध की गंभीर भावना को पलीता लगाने वाले हैं। यहां फोब्र्स की उस सूची का जिक्र करना जरूरी है, जो 2011 में जारी हुर्इ थी और जिसमें उन देशज वैज्ञानिक आविष्कारकों को शामिल किया गया था, जिन्होंने ग्रामीण पृष्ठभूमि से होने के बावजूद ऐसी अनूठी तकनीकें व उपकरण र्इजाद किए थे, जिन्हें अपनाने से देशभर के लोगों को जीवन में बदलाव के अवसर मिले। यहां आश्चर्य में डालने वाली बात यह भी है कि इनमें से ज्यादातर लोगों ने प्राथमिक स्तर की भी शिक्षा हासिल नहीं की है। इसलिए यहां यह जरूरी है कि अनुसंधान के अवसर उन लोगों को मुहैया कराएं जो वाकर्इ अनुसंधान के मौलिक-सूत्र बटोरने की जिद ठान लेते हैं। इसके लिए यह भी जरूरी है कि प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा का माध्यम हर हाल में मातृभाषा हो।

विज्ञान आधुनिक प्रगति की आधारशिला है। नतीजतन जो देश विज्ञान को जितना महत्व देता है, प्रगति के उतने ही सोपानों पर आरूढ़ होता है। 17 वीं सदी की औधोगिक क्रांति के बाद तो विज्ञान और विकास का रिश्ता समानांतर हो गया। लेकिन इस रिश्ते की समानता कायम रखने में हम पिछड़ते जा रहे हैं और चीन हमसे कहीं ज्यादा आगे निकल गया है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उदारवादी अर्थ-व्यवस्था लागू होने के बाद हमने न केवल आर्थिक विकास पर जोर दिया, बलिक उन शैक्षिक बुनियादी ढांचों को भी बाजारवाद के हवाले करते चले गए जो प्रतिभाओं की आंतरिक सोच को परिमार्जित कर परिपक्व बनाते हैं और मौलिक चिंतन को अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराते हैं। हालांकि प्रधानमंत्री ने इस कमजोर नश को पकड़ा है। वे कहते हैं ‘अनुसंधान से नर्इ जानकारी मिलती है और हमें समाज के लाभ के लिए इस जानकारी का इस्तेमाल करते हुए नवाचार की जरूरत भी है। हमें नवाचार को व्यावहारिक सार्थकता देनी है ताकि यह सिर्फ शाब्दिक खेल बनकर न रह जाए।

जाहिर है परमाणु शकित संपन्न होने और अंतरिक्ष में उपस्थिति दर्ज करा चुकने के बावजूद कुल मिलाकर विज्ञान के क्षेत्र में हम अन्य देशों की तुलना में पीछे हैं। मानव विकास दर में हम 95 वें स्थान पर हैं। भूख और कुपोषण हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा। किसानों की आत्महत्या का सिलसिला जारी है और बेराजगारों की फौज में लगातार इजाफा हो रहा है। आर्थिक असमानता की खार्इ लगातार चौड़ी होती जा रही है। आर्थिक व सामाजिक विशेषज्ञों का दावा है कि ये हालात निजीकरण की देन हैं। बावजूद प्रधानमंत्री वैज्ञानिक शोधों को बढ़ावा देने के लिए निजीकरण की राह तलाश रहे हैं। उनके पास शायद सभी मजोर्ं की एक ही दवा है, निजीकरण ! इसीलिए उन्होंने पूंजीपतियों को आगाह किया है कि वे वैज्ञानिक शोधों को बढ़ावा देने के लिए आगे आएं। इस नजरिए से प्रधानमंत्री ने वैज्ञानिक अनुसंधान और विकास पर खर्च होने वाली राशि में बढ़ोत्तरी की मंशा भी जतार्इ है। 12 वीं पंचवर्षीय योजना के अंतिम साल में इसे दोगुना किया जा सकता है। जाहिर है, इसमें ऐसे प्रावधान जरूर किए जाएंगे, जो औधोगिक घरानों के हित साधने वाले होंगे। तय है अनुसंधान की बढ़ी राशि इन घरानों को अनुसंधान के बहाने अनुदान में दिए जाने के रास्ते खोल दिए जाएंगे ? यदि ये घराने देशज वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करने लग जाएं तो कर्इ तकनीकी अविष्कार देश का कायाकल्प करने में कारगर साबित हो सकते हैं।

फोब्र्स द्वारा जारी देशज आविष्कारकों और अविष्कारों की जानकारी से इस बात की पुषिट हुर्इ है कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। लेकिन शालेय व अकादमिक शिक्षा व कुशल-अकुशल की परिभाषाओं से ज्ञान को रेखांकित किए जाने की मजबूरी के चलते केवल कागजी काम से जुड़े डिग्रीधारी को ज्ञानी और परंपरागत ज्ञान आधारित कार्यप्रणाली में कौशल-दक्षता रखने वाले शिल्पकार और किसान को अज्ञानी व अकुशल ही माना जाता है। यही कारण है कि हम ऐसे शोधों को सर्वथा नकार देते हैं, जो स्थानीय स्तर पर ऊर्जा, सिंचार्इ, मनोरंजन और खेती के वैकलिपक प्रणालियों से जुड़े हैं। जबकि जलवायु संकट से निपटने और धरती को प्रदूषण से छुटकारा दिलाने के उपाय, इन्हीं देशज तकनीकों में अंतनिर्हित हैं। ऐसे में यदि प्रधानमंत्री के इस कथन को कि ‘नवाचार को व्यावहारिक सार्थकता देनी है, ताकि यह सिर्फ शाब्दिक खेल बनकर न रह जाए चरितार्थ करना है तो फोब्र्स की सूची में दर्ज ग्रमीण आविष्कारकों और आविष्कारों को प्रेरणा का अभिमंत्र मानना होगा।

इन वैज्ञानिकों ने आम लोगों की जरूरतों के मुताबिक स्थानीय संसाधनों से सस्ते उपकरण व तकनीकें र्इजाद कर समाज व विज्ञान के क्षेत्र में ऐतिहासिक व अतुलनीय काम किया है। इस सूची में दर्ज मनसुख भार्इ जगनी ने मोटर साइकिल आधारित ट्रेक्टर विकसित किया है। जिसकी कीमत महज 20 हजार रूपए है। केवल दो लीटर र्इंधन से यह ट्रेक्टर आधे घंटे के भीतर एक एकड़ भूमि जोतने की क्षमता रखता है। इसी क्रम में एक दूसरे मनसुखभार्इ पटेल ने कपास छटार्इ की मशीन तैयार की है। इसके उपयोग से कपास की खेती की लागत में उल्लेखनीय कमी आर्इ है। इस मशीन ने भारत के कपास उधोग में क्रांति ला दी है। इसी नाम के तीसरे व्यकित मनसुख भार्इ प्रजापति ने मिटटी से बना रेफ्रिजरेटर तैयार किया है। यह फ्रिज उन लोगों के लिए वरदान है, जो फ्रिज नहीं खरीद सकते अथवा बिजली की सुविधा से वंचित हैं। ट्रार्इका फार्मा के एमडी केतन पटेल ने दर्द निवारक आइक्लोफेनैक इंजेक्शन तैयार किया है। ठेठ ग्रामीण दादाजी रामाजी खेबरागढ़े भी एक ऐसे आविष्कारक के रूप में सामने आए हैं, जिन्होंने चावल की नर्इ किस्म एचएमटी तैयार की है। यह पारंपरिक किस्मां के मुकाबले 80 फीसदी ज्यादा पैदावार देती है। इसी तरह मदनलाल कुमावत ने र्इंधन की कम खपत वाला थ्रेसर विकसित किया है, जो कर्इ फसलों की थ्रेसिंग करने में सक्षम है। ‘लक्ष्मी आसू मशीन के जनक चिंताकिंडी मल्लेश्याम का यह यंत्र बुनकरों के लिए वरदान साबित हो रहा है। यह मशीन एक दिन में छह साडि़यों की डिजाइनिंग करने की दक्षता रखती है।

इस लिहाज से जरूरत है, नवाचार के जो भी प्रयोग देश में जहां भी हो रहे हैं, उन्हें प्रोत्साहित करने की ? क्योंकि इन्हीं देशज उपकरणों की मदद से हम खाधान्न के क्षेत्र में तो आत्मनिर्भर हो ही सकते हैं, किसान और ग्रामीण को स्वावलंबी बनाने की दिशा में भी कदम उठा सकते हैंै। लेकिन देश के ऐसे होनहार वैज्ञानिकों पर शैक्षिक अकुशलता का ठप्पा चस्पाकर नौकरशाही इनके प्रयोगों को मान्यता दिलाने की राह में प्रमुख रोड़ा है। इसके लिए शिक्षा प्राणाली में भी समुचित बदलाव की जरूरत है। क्योंकि हमारे यहां पढ़ार्इ की प्रकृति ऐसी है कि उसमें खोजने-परखने, सवाल-जबाव करने और व्यवहार के स्तर पर मैदानी प्रयोग व विश्लेषण की छूट की बजाए, तथ्यों, आंकड़ों, सूचनाओं और वस्तुनिष्ठ प्रश्नों की घुटटी पिलार्इ जाती है। यह स्थिति वैज्ञानिक चेतना व दृषिट विकसित करने में एक बड़ी बाधा है।

लिहाजा प्रधानमंत्री ने वैज्ञानिक नवाचार के लिए बजट प्रावधान दोगुना करने का जो प्रस्ताव रखा है, उसमें देशज वैज्ञानिकों को भी प्रात्सोहित करने के लिए अनुदान देने की शर्त रख दी जाए तो हम चीन से आगे निकलने का रास्ता आसानी से नाप सकते हैं। क्योंकि चीन ने अपने सस्ते उत्पादों के जरिए ही दुनिया के बाजार में धाक जमार्इ है। चीन अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1.4 फीसद इसी मद में खर्च करता है और वर्ष 2011 में चीन ने 153.7 बिलियन डालर खर्च किए। चीन का भी इरादा 2020 तक इस खर्च को दोगुना करने का है। यहां यह भी ख्याल रखने की जरूरत है कि चीन इस मद का एक हिस्सा देशज वैज्ञानिकों पर भी खर्च करता है और उनके अनुसंधानों की जानकारी मिलने पर उन्हें सीधे विश्वविधालयीन अनुसंधानों से जोड़ता है। यही वजह है कि चीन स्थानीय स्तर पर सस्ते उपकरण र्इजाद करने में लगातार कामयाबी हासिल करता जा रहा है। लिहाजा जरूरी है कि हमारे यहां वैज्ञानिक अनुसंधानों पर जीडीपी का जो खर्च महज 0.9 फीसदी है, उसे 2017 मे दोगुना किए जाने पर, देशज वैज्ञानिकों को भी प्रोत्साहन राशि बतौर अनुदान दी जाए और उनके अनुसंधानों को वैज्ञानिक संस्थानों में परीक्षण की मान्यता मिले ? इस काम को औधोगिक घराने और बेहतर ढंग से अंजाम तक पहुंचा सकते हैं। बशर्ते वे भी डिग्री की अनिवार्यता और अंग्रेजी ज्ञान की मानसिक दासता से मुक्त हों। यदि ऐसा होता है तो वैषिवक स्तर पर 20 साल पहले हमारी वैज्ञानिक अनुसंधानों में जो भागीदारी 9.5 प्रतिशत थी और अब घटकर 2.3 प्रतिशत रह गर्इ है, उसमें शायद इजाफा हो जाये।

 

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