भारतीय समाज में जाति के आधार पर भेदभाव, धर्म के आधार पर भेदभाव, प्रदेश के आधार पर भेदभाव, रूप-रंग के आधार भेदभाव, छोटे-ब़डे के आधार पर भेदभाव और अमीर-गरीब के आधार पर भेदभाव को देखकर लगता है। पता नहीं कि इसके धर्म-दर्शन कहां चले गए? सुना था कि शकों, हुणों, कुशाणों, पहलवों, सातवाहनों और मुगलों ने भारतीय सभ्यता-संस्कृति पर प्रहार ही नहीं किया अपितु नष्ट भी कर डाला पर आ़जादी के लगग 65 वर्षो के बाद भी ऐसा क्यों? देश की आधी आबादी क्यों बार-बार अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करें। उसे बराबर का हक कब मिलेगा?
ता़जा मिसाल एयर इंडिया के क्रू मेंबर्स को लेकर है जब 1997 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने जहा़ज में उ़डान के समय महिला सुपरवाइ़जर की पोस्ट से इनकार न किया कि वे इस काम के लिए उपयुक्त नहीं है। आखिर उच्च न्यायालय ने ऐसा क्यों किया। महिलाओं के साथ गैर बराबरी का यह नियम कहां तक उपयुक्त है? क्या स्त्री होने के नाते गैर बराबरी करना ठीक है? क्या एयर इंडिया में उ़डान के समय वह सुपरवाइ़जर नहीं बन सकती पर उनके अधीनस्थ पुरूष जो महिलाओं द्वारा प्रशिक्षित किए जाते थे। लेकिन वे सुपरवाइ़जर हो जाते थे।
सुप्रीम कोर्ट ने 17 नवंबर, 2011 को अपने महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि महिलाएं भी उ़डान के समय सुपरवाइ़जर बन सकती है जबकि 2005 में एयर इंडिया प्रंबधक ने यह स्पष्ट प्रावधान किया था कि उ़डान के समय महिलाएं भी सुपरवाइ़जर पद को सुशोभित कर सकती है। लेकिन पुरूष प्रधान समाज के झंडाबरदारों ने इसे चुनौती दे डाली। उन्होंने कहा कि वे महिला सुपरवाइ़जरों के मातहत काम नहीं कर सकते। आखिर जब एक महिला पुरूष को प्रशिक्षण देकर सुपरवाइ़जर बना सकती है। उसके अधीन कार्य कर सकती है तो पुरूष क्यों उसके अधीन कार्य नहीं कर सकते।
2007 में भी दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि प्रबंधन का यह निर्णय स्वागत योग्य है। भारतीय सेवा नियमावली के अनुसार कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव असंवैधानिक है। यह भी कहा कि रिटायरमेंट तथा गर्भावस्था को आधार मानकर भेदभाव नहीं होना चाहिए। इसमें भी जिम्मेदारियों के पूर्व निर्वाह पर ही ध्यान केंद्रित होना चाहिए। क्या किसी को औरत होने के आधार पर योग्यता एवं क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगाया जा सकता है। प्रायः स्त्रियों को यह कहा जाता है कि वे स्त्री होने के नाते देर रात में ड्यूटी तथा कुछ विशेष कार्यो को न करें। ऐसा क्यों?
समाज कार्य के लिए समान वेतन का होना जरूरी है लेकिन असंगठित क्षेत्र के महिलाओं के साथ इस प्रकार के भेदभाव किए जाते है। भारतीय संविधान में प्रदत अधिकार तो समानता की बातें किया करते है। पर व्यावहारिक जीवन में प्रायः कम ही दिखायी प़डता है। भारत में महिला आबादी 2001 की जनगणना के अनुसार 49 करो़ड 60 लाख है पर 12 करो़ड 70 लाख महिलाओं को यदि देखा जाए तो चौथाई ही कामकाजी होगी। इसमें शहरों एवं देहातों की जब हम तुलना करते है तो शहरी महिलाओं का प्रतिशत ज्यादा दिखाता है।
यह ठीक है कि इंडियन एयरलाइन्स में महिला क्रू मेंबर्स के पक्ष में माननीय उच्चतम न्यायालय से फैसला हो चुका है। पर नारीवादी संगठनों को यह विचार करना ही होगा कि किस प्रकार पुरूषों के बराबरी हक को प्राप्त करें, क्योंकि बराबरी का हक पाना हमारा अधिकार भी है। यह अधिकार हमें लंबे संघर्षो के बाद मिला है। सामाजिक क्षेत्र के समस्त प्रबुद्व महिलाओं का यह दायित्व बनता है कि नर-नारी भेदभावों की प़डताल करें तथा उसका निदान प्रस्तुत करें।
हां, यह ठीक है कि महिला क्रू मेंबर्स को अब सुपरवाइ़जर बनने का हक माननीय उच्चतम न्यायालय ने दे दिया है पर उन मेंबर्स को स्कर्ट तथा टॉप छो़डकर शालीन वस्त्रों को धारण करना चाहिए। यह भी ठीक है कि हर व्यक्ति की निजता पर प्रहार नहीं होना चाहिए। आप अपने घर में चाहे जैसे रहें लेकिन देखने वालों के मन में सकारात्मक दृष्टियों का विकास होना चाहिए ताकि उटपटांग वस्त्रों से पुरुषों ध्यान आकर्षित न हो। प्रायः यह देखने-सुनने को मिलता है कि महिलाओं के साथ अभद्रता के कारणों में वस्त्र की भूमिका महत्पूर्ण होती है।