संकट में ग्रामीण शिक्षा

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-अभिषेक रंजन-   education

खबरिया चैनलों, अखबारों के माध्यम से आजकल हर रोज कोई न कोई नया सर्वे होने की खबर मिलती रहती है. लेकिन दुखद बात है कि जहां एक तरफ राजनीतिक सर्वे को लेकर दिन-रात बहस होती दिखाई देती है, वहीं देश से जुड़े कुछ अहम् मुद्दे चर्चा के केंद्र बिंदु बनना तो दूर, बौद्धिक चिंतन और विमर्श के बगैर ही पूरे परिदृश्य से गायब हो जाते है. इसका ताज़ा उदाहरण ग्रामीण शिक्षा की बदहाल स्थिति को उजागर करने वाली असर का सर्वे रिपोर्ट है जिसने भारत की बदहाल शिक्षा व्यवस्था का दुखद चित्रण प्रस्तुत किया है. यह रिपोर्ट देश के सुदूर बसे कुछ गांवों में शिक्षा क्षेत्र में सक्रिय हमारे जैसे लोगों के लिए दुखद सच के बराबर था जिससे हम हर दिन रू-ब-रू होते रहते हैं.

इस सर्वे के मुताबिक, गांव में स्थित सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले तीसरी कक्षा के मात्र 32 फीसदी बच्चे ही पहली कक्षा स्तर तक का पाठ पढ़ सकते हैं. निजी विद्यालयों के खुलने के बाद भी स्थिति नहीं बदली. इस मामले में सरकारी और निजी विद्यालयों का संयुक्त अनुपात 40.2 फीसदी है, जो कोई सुखद तस्वीर बयां नहीं करती. ढोल-नगाड़े पीटकर अपनी उपलब्धियों का बखान करने वाली सभी राज्य सरकारे इस रिपोर्ट में शैक्षणिक गुणवत्ता के मामले में लगभग फिसड्डी ही रहे. क्या देश का दुर्भाग्य नहीं है कि 60 फीसदी बच्चे तीसरी में जाने के बाद भी पहली कक्षा की बातें नहीं समझ पाते? यही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर हुए इस सर्वे में यह बात भी सामने आई है कि पांचवीं कक्षा के लगभग आधे विद्यार्थी दूसरी कक्षा के स्तर का पाठ नहीं पढ़ पाते. चिंता की बात है कि इस अनुपात में लगातार वृद्धि हो रही है. यह 2009 में जहां 52.8 फीसदी था, वह 2013 में घटकर 41.3 फीसदी हो गया है. गांव में रहने वाले बच्चों के बुनियादी गणित से संबंधित दक्षताओं में भी काफी चिंताजनक स्थिति देखी गई है, जिसमें कई वर्षों से कोई खास बदलाव नहीं देखने को मिल रहा है. उदाहरण के लिए पांचवीं कक्षा के मात्र 25 फीसदी बच्चे तीन अंकों के भाग बना सकते हैं.

सर्वे में कुछ सुखद पहलू भी है, जिनमें सकल नामांकन अनुपात का लगभग सौ फीसदी होना शामिल है. यूपीए सरकार इस बात का दावा कर सकती है कि बच्चों को घर की परिधि से विद्यालय की चहारदीवारी तक लाने में हम कामयाब रहे हैं. इसकी वजह से प्राथमिक विद्यालयों में सकल नामांकन अनुपात वर्ष 2003-04 के 98.3 फीसदी के मुकाबले 2010-11 में बढ़कर 116 फीसदी हो गई, लेकिन यह नामांकन अनुपात निजी विद्यालयों के खुलने से बढ़ी है। इस बात को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता. आर्थिक स्थिति जैसे जैसे सुदृढ़ हो रही है, लोग अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ाने लगे हैं. इस वजह से निजी विद्यालयों में नामांकन का प्रतिशत बढ़ा है. 2006 में यह जहां 18.7 फीसदी था, वह  2013 में बढ़कर 29 फीसदी हो गया है.

असर अपनी रिपोर्ट 2005 से ही प्रकाशित कर रही है, जिसके आधार पर सरकारी नीतियाँ भी प्रभावित होती रही है. असर का यह सर्वेक्षण रिपोर्ट लगभग 30000 स्वयं सेवकों की मदद से 14724 विद्यालयों और 6 लाख विद्यार्थियों पर आधारित है.

असर के अलावे अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी हुए सर्वेक्षणों में भी ऐसी मिलती जुलती तस्वीरें सामने आती रही है. अभी हाल ही में 15 वर्ष की आयु वाले विद्यार्थियों के विज्ञान और गणितीय समझ को लेकर 73 देशों में सर्वे हुआ, जिसमें भारत का निराशाजनक स्थान रहा. इस सर्वे में भारत किर्गिस्तान को पछाड़ते हुए नीचे से दूसरे स्थान पर आया. आर्थिक सहयोग और विकास संगठन की तरफ से अंतरराष्ट्रीय विद्यार्थी मूल्यांकन कार्यक्रम (पिसा) के तहत यह सर्वे करवाया गया था. इसके तहत दो घंटे की एक जांच परीक्षा में दुनिया भर के लाखों विद्यार्थी शामिल हुए थे, जिसमें चीन अव्वल स्थान पर रहा. इस सर्वे में सरकार द्वारा विशेष तौर से हिमाचल प्रदेश और तामिलनाडु के बच्चों का चयन किया गया था.

वर्ष 2000-2001 में शुरू की गई सर्वशिक्षा अभियान से पहली बार प्रारंभिक शिक्षा की बदहाली दुरुस्त करने के लिए सार्थक पहल शुरू की गयी थी और यह कहा गया था कि इस योजना के माध्यम से वर्ष 2010 तक 6 से 14 वर्ष के आयु समूह के सभी बच्चों को उपयोगी तथा सार्थक प्रारंभिक शिक्षा प्रदान की जाएगी। लेकिन सर्व रिपोर्ट इस पर प्रश्न चिह्न लगाती नज़र आती है.

ऐसा नहीं है कि सरकार या समाज इन स्थितियों से अनजान है. जमीनी सच्चाई से सब वाकिफ़ है कि किस हद तक सरकारी विद्यालयों के शिक्षण स्तर में सुधार की वजाए गिरावट आ रही है. सवाल उठना लाजिमी भी है कि विद्यालयों की स्थिति सुधारने पर अरबों खर्च किए गए, फिर भी स्थिति में बहुत संतोषजनक सुधार देखने को क्यों नहीं मिले? ऐसा लगता है मानो शिक्षा में सुधार संबंधी सभी अभियानों और योजनाओं का सारा ध्यान विद्यालयों को संसाधन मुहैया कराने पर केन्द्रित हो गया, गुणवत्ता प्राथमिकता में नहीं रही. लेकिन इस सर्वे के बहाने यह आत्मावलोकन का विषय है कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी प्रारंभिक शिक्षा की गुणवत्ता इतनी ख़राब क्यों है! क्या शिक्षा का अधिकार अधिनियम पारित कर सौ फीसदी बच्चों के नामांकन सुनिश्चित करवाने भर से काम चल जाएगा या फिर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का भी अवसर नौनिहालों को मिलेगा? तमाम दावों के बाद भी प्रारंभिक शिक्षा इतना बदहाल क्यों नज़र आ रहा है? दस वर्षों से भी ऊपर  हो गए इस कार्यक्रम को चलाते हुए, कायदे से तो अबतक स्थिति बदल जानी चाहिए थी, लेकिन हकीक़त में ऐसा क्यों नहीं हुआ?

जैसा कि रिपोर्ट में भी आशंका व्यक्त की गयी है कि संतोषजनक शिक्षण स्तर सुनिश्चित किए बिना शिक्षा की गारंटी अर्थहीन है. साफ़ है, बुनियादी शिक्षण स्तर में जल्द सुधार नहीं हुआ तो इससे देश में समानता और विकास पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है. जरुरी है, खाली पड़े लगभग 6 लाख शिक्षकों की नियुक्ति करने की, ताकि छात्र-शिक्षक अनुपात में कमी लाकर शैक्षणिक गुणवत्ता को सुधारा जा सकें. साथ ही साथ सुदूर पर्वतीय, जंगली इलाकों में भी ज्यादा से ज्यादा जवाहर नवोदय विद्यालय, आदर्श विद्यालय खोलने की. शिक्षकों के शिक्षण-गुणवत्ता में सुधार लाने के गंभीर प्रयास किए बगैर गुणवत्ता का स्तर नहीं सुधर सकता. समाज को भी पहल करनी पड़ेगी, क्योंकि सरकारी विद्यालय न केवल सरकार की नज़रों में उपेक्षित है, बल्कि समाज भी निजी विद्यालयों के मुकाबले उसे दोयम दर्जे का ही व्यवहार करता है. संकट की मझदार में फंसी ग्रामीण शिक्षा को आज मिलकर उबारने की जरूरत है.

महात्मा गांधी शिक्षा को केवल अक्षर ज्ञान या अंक ज्ञान नहीं मानते थे. वे चाहते थे कि शिक्षा हाथ, हुनर और हृदय का एक ऐसा संयुक्त संस्करण हो कि यह लगे कि शिक्षा प्राप्त लड़की या लड़का इस देश का एक कुशल, स्वावलंबी और स्वाभिमानी नागरिक है। क्या देश की शिक्षा व्यवस्था की बुनियादी नींव वाकई इतनी मजबूत है जो गांधी की चाहत पूरा कर सकें!

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