भरोसे का संकट और अलोकतांत्रिक मीडिया

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papers.19185128बाबा भारती की कहानी आपने ज़रूर सुनी होगी। बाबा के पास एक बहुत प्यारा घोड़ा रहता है, उस घोडे को पाने के लिये डाकू एक तरकीब निकालता है और बीमार बनकर घोड़े भगा ले जाता है। और बाबा चीख कर उससे यही निवेदन करते हैं कि यह बात किसी को बताना मत नहीं तो लोग एक दुसरे की मदद करना छोड़ देंगे। बाबा को अपने घोडे की चिंता नहीं हुई बल्कि उनको ये चिंता हुई कि अगर ये घटना डाकू किसी को कह देगा तो समाज में भरोसे का एक मुश्किल संकट पैदा हो जाएगा। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत का मीडिया वैसे ही एक भरोसे के संकट की दौर से गुजर रहा है। यूँ तो समाज का हर व्यवसाय या कार्यकलाप भरोसे की बदौलत ही संभव हो पाता है लेकिन समाचार माध्यम तो एक ऐसा धंधा है जिसमें आपकी विश्वसनीयता ही आपकी पूंजी होती है। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ इसको यूँ ही नहीं कहा गया है। वास्तव में इसके बिना लोकतंत्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। तकनीक भले ही लाख आगे बढ़ जाए, सूचना प्रोद्योगिकी के क्रांति पर हम फूले ना समायें लेकिन आपकी साख ही मीडिया के लिये सबसे बड़ी तकनीक है। आप इतिहास को देखें,आजादी के आन्दोलन के दौरान जब टेलीविजन का नामोनिशान नहीं था, रेडियो विलासिता का साधन था। केवल अखबार ही एक जनमाध्यम था लेकिन उसको भी खरीदना भी उस समय आम लोगों के बूते की बात नहीं थी। फिर भी नेताओं का एक हुंकार, गांधीजी के भूख हड़ताल की एक खबर कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक को मिनटों मे झकझोर कर रख देता था। तब का मीडिया जनमत के निर्माण और परिष्कार का ऐसा साधन बन गया था कि फिरंगी थर्रा उठते थ। लेकिन आज भले ही मल्लिका के चोली को आप राष्ट्रीय पोशाक का दर्जा देकर कितनी भी टीआरपी बटोर लें,लेकिन समाज में आपकी छवि एक विदूषक से ज्यादे की नहीं रह गयी है। विदूषक भी ऐसा जो लोकतंत्र को ही मज़ाक बनाने पर तुला हुआ हो। इलेक्ट्रोनिक मीडिया को तो चलो कभी किसी ने गंभीरता से नहीं लिया है। निजी चैनलों की शुरुआत से ही आम जनता उसको दूकान ही समझती रही है। लेकिन हालिया लोकसभा चुनाव में अखबारों ने जिस तरह बेशर्मी की हद तोड़कर अपने हर पेज को बेचा है, उसके बाद तो कहने को कुछ बच ही नहीं जाता। इतना ज़रूर लगता है कि अब लोकतंत्र को अपने तीन ही पाये से काम चलना पड़ेगा। अब ये गाँव शायद बिना चौपाये के ही बसेगा। देश के एक सम्मानित सम्पादक की बात पर भरोसा करें तो इस चुनाव में एक-एक बड़े अखबार ने 200 करोड़ तक की उसूली की हैं। एक पार्टी विशेष के मीडिया से जुड़े होने के कारण कुछ तो इस लेखक ने भी अपनी आँखों से देखा है। तो जब एक-एक शब्द भाई लोगों ने बेच डाला हो, शायद ही ऐसी कोई खबर बची हो जिसमें किसी तरह का पूर्वाग्रह नहीं रहा हो तो आखिर ऐसा अखबार लेकर क्या करेंगे आप? ऐसे मीडिया के साथ लोकतंत्र की चर्चा करने में अपना समय खऱाब करने से क्या फायदा? अव्वल तो अधिकाँश संस्थानों और मीडिया प्रोफेशनल ने किसी तरह की कोई भी सफाई इस मुद्दे पर देने की ज़रुरत नहीं समझी,कुछ मालिको ने दिया भी तो यही कहा कि उसको अपने संस्थान को चलाने के लिये वेतन देने के लिये तो पैसा चाहिए तो इस तरह की व्यावसायिक गतिविधियों से ही तो पैसा आएगा। सवाल यह पैदा होता है कि क्या आप पैसा कमाने के लिये खबर को भी बेच देंगे? इस तरह की धोखाधड़ी करेंगे आप? क्या अपने अधिकारों का दुरूपयोग करके ढेर सारे तरह से दवाव आदि डालकर भी सरकारों और राजनितिक दलो से प्राप्त विज्ञापन काफी नहीं है कि आपको खबर को भी बेच देने की ज़रुरत पड़ गयी। क्या खबर और विज्ञापन का कोई भी फ र्क करना आपको कुबूल नहीं?

इस बात की कोई उम्मीद भी नहीं करता आपसे की आप अपने धंधे को मिशन समझें। प्रोफेशन समझ कर भी अपने फायदे के लिये भी काम करें इसमें भी किसी को कोई ऐतराज़ नहीं है। इस उपयोगितावादी समाज मे मीडिया ही अपवाद क्यू रहे आखिर। लेकिन सवाल तो यह है धंधे के भी कुछ उसूल होते हैं। सिगरेट के पेकेट पर भी वैधानिक चेतावनी लिखी होती है कि वह स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। लेकिन आप तो पैसे लेकर खबर को ही विज्ञापन बना देते हैं। कई चरणों मे हुए चुनाव मे जहां-जहां जिस दिन चुनाव था वहाँ के सबसे बड़े अखबार ने अपना बैनर लगाया कि ‘प्रदेश में अमुक पार्टी की लहर’ उस बैनर को पढ़कर कही से भी नहीं लग रहा था की यह विज्ञापन है। किसी ने लिखा भी तो (हिंदी अखबार में) अंगरेजी मे इतने छोटे शब्द में कि आप दूरबीन से ही पढ़ पाए। तो आप गौर करें, क्या किसी व्यावसायिक कम्पनी से भी आप इस तरह के धोखाधड़ी की उम्मीद कर सकते हैं? ना केवल प्रायोजित खबरें बल्कि जान-बूझकर इस लोकसभा के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों को ताक पर रखा गया। जन सरोकारों से जुड़े इतने सारे विषय थे, लेकिन किसी कुंवारे नेता की शादी होगी या नहीं या प्रभावशाली नेत्री की बेटी की जींस का रंग कौन सा था ऐसी ही खबर पूरे चुनाव के दौरान जगह पाते रहे। आपने देखा होगा की कही भी किसी भी मीडिया में लोगों को प्रभावित करने वाले मुद्दों का अकाल था। महंगाई, आतंकवाद, रोजगारों का छिना जाना जैसे मुद्दों को तो कही तरजीह ही नहीं दी गयी थी और उसका परिणाम ये हुआ की हर जगह लोगों ने स्थानीय और क्षेत्रीय आधार पर ही वोट किया। प्रधानमंत्री के चुनाव में अपने महापौर के या मुख्यमंत्री के काम के आधार पर वोट करना संघ के लिये तो खतरनाक है ही, पार्टी विशेष के लिये असुविधाजनक साबित होने वाले मुद्दों का इस तरह मैनेज कर दिया जाना लोकतंत्र के लिये कैसा हो सकता है, आप कल्पना कर सकते हैं। सवाल न केवल इस लोकसभा चुनाव का है बल्कि हर मामले मे सभी समाचार माध्यम जनसरोकारों से इतनी दूर चले गये हैं जिसकी को सीमा नहीं है। जब मीडिया और सरोकारों की बात हो तो बस एक शेर ही याद आता है मुझे क्वक्वदोस्तों से वफ़ा की उम्मीदें,किस जमाने के आदमी तुम हो। क्वक्व अभी छत्तीसगढ़ में पुलिस अधीक्षक समेत 30 जवान नक्सल हमले मे शहीद हुए और उस दिन सभी चैनल बेचारे बाबी डार्लिंग को समलैंगिकता की आजादी दिलाने की चिंता मे दुबले हुए जा रहे थे। लालगढ़ में एक भी माओवादी या अर्द्धसैनिक बलों की मौत भले ना हुई हो लेकिन चुकि वो वामपंथी राज्य है और इस बार वहाँ की सरकार ने तय कर लिया था कि अपने ही पाले-पोसे भाईयों का सफाया करना ही है तो आपने देखा हीे,सारे चैनल वहाँ पहुच गये थे। अभी पिछले साल की बात है बस्तर में नक्सलियों ने बिजली आपूर्ति ठप्प कर दी थी आपको ताज्जुब होगा जानकर की कुल 29 लाख लोग हफ्तों अँधेरे मे रहकर समुचित इलाज़ के बिना बेमौत मर भी रहे थे। लेकिन आरुषी को क्वक्वन्याय क्वक्व दिलाने की चिंता मे व्यस्त भाई लोगों ने इन आदिवासियों के बीच झाँकने की भी जहमत नहीं उठायी।ऐसे सैकडों उदाहरण ‘समाचार चैनल’ कहे जाने वाले इन कंपनियों की बदतमीजियों के हैं। अपने बुद्धिमान होने के सामंती घमंड मे चूर कोई मीडिया व्यवसायी आपकी बात सुनेगा क्यू भला? सीधी सी बात है की कड़े कानूनों द्वारा ही इनको नियंत्रित करने की ज़रुरत है। आप सोचिये सिनेमा एक कथात्मक माध्यम है। वो कभी भी आपको जगाने का दावा नहीं करतो। लेकिन सेंसर के कठिन दौर से उसको गुजरना पड़ता है। तो आखिर इन समाचार व्यवसाइयों ने क्या पुण्य कर लिया है की इनको स्व-नियंत्रण की आजादी चाहिये। आम आदमी को मिले अभिव्यक्ति की आजादी का सारा मलाई इन्हें ही चाहिए लेकिन उस आजादी पर लगे यूक्ति-यूक्त निर्बन्धन की इन्हें कोई चिंता नहीं। यदि कानून की बात करें तो संविधान में कही भी प्रेस के लिये कोई विशेषाधिकार का प्रावधान नहीं है। उसके अनुच्छेद 19 में जो वाक एवं अभियक्ति का अधिकार है वो आम लोगों को दिया गया मौलिक अधिकार है। प्रेस भी उसी का इस्तेमाल कर ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ उठाने का उपरोक्त वर्णित ढोंग कर रहा है। लेकिन उस अधिकार का इस्तेमाल करते हुए उसी अनुच्छेद मे वर्णित ढेर सारे प्रतिबंधों को नजरंदाज कर जाना आज की बड़ी समस्या हो गयी है। सीधी सी बात है कि आप वही तक स्वतंत्र हैं जहां तक किसी दूसरे की आजादी का हनन ना होता हो। लेकिन मीडिया द्वारा नागरिको को मिले इस अधिकार को जबरन हथिया लिये जाने के कारण तो कई बार व्यक्ति के जीने के मौलिक अधिकार का ही उल्लंघन हो जाता है।

आप गौर करें मीडिया के अलावा समाज का कोई भी अनुषंग ऐसा नहीं है जिसको काबू में करने का इंतजाम ना किया गया हो। लेकिन प्रेस हर तरह के प्रतिबंधो से मुक्त है,स्वछन्द है। जब भी उसके नियमन के लिये किसी भी तरह का प्रयास किया जाता है तो सारे के सारे सम्बंधित लोग एक साथ गिरोहबंदी कर लेते हैं और स्वनियंत्रण का राग अलापना शुरू कर देते हैं। आखिर स्व-नियंत्रण की आजादी तो देवताओं को भी नसीब नहीं है। तो मीडिया को ही यह विशेषाधिकार क्यूँ? ना तो नेताओं की तरह इन्हें हर 5 साल पर या कई बार उससे पहले भी लोगों से अपनी मुहर लगवानी होती है,ना ही उनकी तरह उसका हर कदम न्यायिक समीक्षा के दायरे मे भी होता है। तो आखिर आप ही अपवाद क्यू रहे? रामायण में गोस्वामी जी ने लिखा “समरथ को नहीं दोष गुसाई” आखिर इतना सामर्थ्यवान आपको क्यू बना दिया जाए कि आपको खुद का दोष दिखाई ही ना दे? अब यह समय आ गया है कि समाज और मीडिया में दिन प्रतिदिन होते जा रहे तकनीकी और नैतिक परिवर्तन के मद्देनजऱ एक न्यायिक अधिकार प्राप्त निकाय का गठन किया जाये। निश्चित ही ईमानदार लोगों को ऐसे इंतजाम से कोई तकलीफ नहीं होगी। लेकिन “दुकानदार” किनारे होते जायेंगे और मीडिया फिर से अपने जिम्मेदार स्वरुप में खुद को पेश कर पायेगा। अगर ऐसी व्यवस्था हो पायी तो फिर कोई केवल व्यवसाय करने मीडिया में नहीं आएगा अपितु वास्तव में जब-जब तोप मुकाबिल होगा तो क्रांतिकारी लोग फिर से अखबार निकालने की हिम्मत कर पायेंगे।

-पंकज झा

लेखक इससे पहले “जयराम दास” नाम से लिखते रहे हैं.

3 COMMENTS

  1. इसी आशय का लेख मैने गुजरातीमे देखा था। उसमे एक चुनाव अयोगके चावलाजी का साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था। चावलाजीने कहा था, गत लोकसभा चुनावमे पहली बार समाचार पत्रोंके पृष्ठ बेचे गए थे। (१)पूरे पृष्ठ को आप खरीद सकते थे। और आप चाहे, वैसे उस पृष्ठ मे अपना समाचार, या विरोधी पार्टीका बुरा समाचार प्रकाशित कर सकते थे।(२)कुछ वृत्तपत्र विरोधीयोंको सीधे सीधे कहते थे,कि आपकी अच्छी बात हम नही छापेंगे, बुरी बातहि छापेंगे।।(३)समाचारको (स्पीन)मोड देकर छापा जाता था। आप समाचारका विश्लेषण करनेपर आप भी उसका सही अर्थ निकाल सकते थे। (४)समाचारके पन्नोका, विज्ञापनसे भी अनेकगुना मूल्य वसूला गया था।और पहला पन्ना अनेकगुना महंगा था।(५) कुछ वृत्तपत्रोने संपादकीय भी बेचा था। इसको प्रत्युत्तर देनेके लिए,नरेंद्र भाइने, एक गुजरातीके बिके हुए, प्रमुख “गुजरात समाचार” पत्रके जैसीही ४ पन्नोकी पूर्ति “सत्य गुजरात समाचार” नाम देकर और गली गली के वितरकोंको देकर उसे “गुजरात समाचार” के बीचो बीच रखकर वितरित की थी। ये था नरेंद्र भाइ का अनोखा प्रचार, वास्तवमे इसका पूरा लाभभी उन्हे नही मिला। फिर भी प्रसार माध्यम जब धृतराष्ट्र बन जाए, तो सत्यकी विजय कैसे हो? और बाकी समाज तो “अकर्मण्येवाधिकारस्ते”– “सर्व फलेषु सदाचन”(अकर्मण्य रहकर सारे फल चाहता है)।तो फिर “असत्यमेव जयते”हि चरितार्थ होगा।-अमरिकासे एन. जी.ओ.ने अनुमानित ३०० मिलियन डॉ. भेजे थे।वो क्या क्या कर पा सकते? भोले भारत को हम जगे नही, तो बिकना पडेगा। सुझाव—समाचारकी एनॅलॅसीस “प्रवक्ता” करे? तो? और छापे? सत्य का संशोधन करे। और छापे।दूर दर्शन पर वक्ताका बिना श्रोता ओ का दृश्य आप देखे तो मानिए के श्रोताओंकी भीड नही है…….? ? ऐसे बिंदू रेखांकित हो। प्रस्तुत किए जाए। “स्वतंत्रता का मूल्य प्राण है” –एक गीतकी पंक्तियां है।

  2. प्रिय् पन्कज् भाई
    आपकॆ लॆख् मॆ जॊ भी बातॆ कही गई है वॆ सब् सही है. क्या किया जा सकता है पत्रकारिता पहलॆ सॆ ही वॆश्याव्रित्ति सॆ कुछ् बदतर् हॊ गई थी . अब् और् भी रसातल् मॆ जानॆ कॊ बॆताब् है तॊ इस‌मॆ क्या अछर‌ज् हॊगा. ऎक् शॆर् याद् आ र‌हा है
    ग‌ज़‌ल् असीर् हॊ गई, क‌ल‌म् गुलाम् हॊ ग‌या
    म‌ग‌र् इस् कॊशिश् मॆ Roti का इन्त्जाम् हॊ ग‌या.
    विभाश् कुमार् झा
    राय्पुर्
    ‍‍‍‍

  3. Dear Pankaj Jha Ji,
    Yeh Aur Kuchh Nahin sirf media dwaara satta per kabja karne ka prayaas hi hai.

    See the Word of famous writer Oscar Wilde about Media:-

    In old days men had the rack. Now they have the press. That is an improvement certainly. But still it is very bad, and wrong, and demoralizing. Somebody — was it Burke? — called journalism the fourth estate. That was true at the time no doubt. But at the present moment it is the only estate. It has eaten up the other three. The Lords Temporal say nothing, the Lords Spiritual have nothing to say, and the House of Commons has nothing to say and says it. We are dominated by Journalism.

    For getting power, Media has almost lost values of their profession.
    Satish Mudgal

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