विश्वास का संकट

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जावेद उस्मानी

भारतीय लोकतंत्र गंभीर दौर से गुजर रहा है। सत्ता अपने मतदाताओ को और प्रजा अपने निर्वाचितशासक को लेकर असमंजस में है। समूचा जन मानस राजनैतिक और गैरराजनैतिक विचारधारा के भॅवर मे फसा हुआ है। एक दूसरे को काटती दोनो धाराए अपनी अपनी जंग जीतने के लिये ऐसी राह पर है जिसकी कोई मंजिल नही है और उनकी नाकामयाबी,देश को उस दिशा की ओर ले जायेगी, जिसके बंधन से सैकड़ो साल के संघर्ष के बाद हम मुक्त हुए है। आज राजनीति से टूटन के बाद हमारे पास कहने के लिये दलविहीन लोकतंत्र का विकल्प है पर गैर राजनीतिवाद से भरोसा उठाने के बाद हमारे सामने गुलामी और सामंतशाही को स्वीकार्य करने के सिवा कोई विकल्प नही बचता है देश के हितचिंतको, को आने वाले इस संकट से बचने के लिए सकारात्मक हल के लिये गंभ्भीर मंथन की जरुरत है ।

हाल में हुए दो आन्दोलन पहले ही से आरोपो से घिरे सरकार और राजनैतिक दलो के चालचलन पर कई सवालो को खड़े करता है। शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार के विरुद्व कार्यवाही के लिये लोकपाल विधेयक के मसले पर सरकार पहले कथित सिविल सोसायटी के दखल को मंजुर करती है बाद में कानून कायदो की दुहाई देते हुए उसे नकारती है। विदेशो में जमा काले धन की वापसी के मामले में, आन्दोलन के अगुवा के इस्तकबाल के लिए चार वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री की टीम एयरपोर्ट जाती है और इसके बाद मे पुलिस डंडे के सहारे आन्दोलनकारियो को राजधानी से खदेड़ देती है । सरकार की तरह सियासी दुनिया के बड़े करतबसाज, आन्दोलन के पक्ष में जुटे जनसमर्थन को देखकर बहती गंगा मे हाथ धोने की नीयत करके आन्दोलन स्थल तक जा धमके, पर वहां से बैरंग लौटाये जाने पर तयशुदा हिमायत को भूलकर खिलाफत पर उतर जाते है। सत्ताधारी और विपक्षी राजनैतिक दलो और उनके नेताओ के हर पल बदलते रंग ने उनकी विश्वसनीयता को गंभ्भीर धक्का पहुचाया है,आम लोगो के मन में पहले से संदेह था, राजनेताओ की कारगुजारियो ने उनके शुब्हे को और पुख्ता बना दिया है । आम लोगो के मन मे यह सवाल और गहरा चुका है कि जब सरकार देश के अन्दर काला धन जमा करने वालो के खिलाफ सख्ती से पेश नही आती है तो विदेशो में जमा काले धन जमा करने वालो के खिलाफ कितनी दुर तक जायेगी और जो निर्वाचित प्रतिनिधि देश के अन्दर काला धन को सफेद करने वाले प्रस्तावो को मंजूरी देते है वे ऐसे कानून को बनने मे कितने मददगार होगे जो हर स्तर के आर्थिक भ्रष्टाचार का खात्मा कर सके। यह सच्चाई सभी जानते है कि हर राजनैतिक दल मे ऐसे नेताओ की कोई कमी नही है जो काले धन या उनके मालिको की रहमत से सदन में नुमाइन्दही कर रहे है। समयसमय पर,विभिन्न दलो के कई बड़े नेताओ ने चुनावी भ्रष्टाचार का हवाला देते हुए शहीदाना अन्दाज में अपने इस गुनाह पर बिना शर्मसार हुए सारे आम कबूल भी किया है, पर अपनी अनैतिक राह बदलने का कोई संकेत नही दिया है। हमारे रहनुमाओ ने विभिन्न कारणो से सुधरने वालो की अंतिम सूची में अपना नाम आरक्षित करवा लिया है। वहां भी अंतिम व्यक्ति के रुप मे बने रहने की सामूहिक आखिरी ख्वाहिश के चलते मारामारी है। सुधरा हुआ पहला आदमी बनना सभी को नापसंद है। पथप्रदशर्को के इस चरित्र का अनुसरण उनके दल और कार्यकर्ता द्वारा किया जाना लाजमी है। लोकपाल विधेयक और विदेशो में जमा काले धन के मुददे को लेकर जिस तरह लोग गैर राजनैतिक नेतृत्व के पीछे गोलबंद हुए है उससे साफ है कि राजनीति अपनी साख खो चुकी है और लोगो का भरोसा टूटने के कगार पर है । अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के अगुवायी मे चले आन्दोलन के पक्ष मे समूचे देश हुई जन प्रतिकि्रया इसका सबूत है कि आम लोग सियासत की पैतरेबाजी से विक्षुब्ध है। राजनैतिक दलो ओर राजनेताओ के लिये यह चेतावनी थी पर अपने मतलब की बात छोड़कर हर तरह की बातो को अनसुना करने की सियासी फितरत में कोई बदलाव आया हो ऐसा लगा नही है । उल्टे सियासतदानो के पलटवार से ऐसी स्थिति बनने लगी है कि राजनीति की तरह गैरराजनीतिवाद के अगुवा भी धर्मसंकट है। संसदीय प्रकि्रयाओ के लिये जिस शक्ति की जरुरत है वह उनके पास नही है वे अपने मतलब साधने तक के लिये राजनैतिक दलो का साथ चाहते है, इसके लिये उन्हे अच्छे बुरे से कोई परहेज नही है।साधन की शुचिता और लक्ष्य प्राप्ति के अर्न्तद्वन्द और कामयाबी की चाह की दुविधा में फसे, वे ,हर बात पर राजनेताओ की तरह सफाई दे रहे है। अन्ना हजारे की टीम चाहती है कि लोकपाल विधेयक को लेकर वे क्या चाहते है? क्या कर रहे है? या क्या कह रहे ह?ै उसे पूरा देश जाने, इसलिए वे लाइव टेलीकास्ट की मांग कर रहे है,ताकि जनता मे उनकी साख बरकार रह सके । उनकी टीम का हर सदस्य जानता है कि उनकी यह चाहत पूरी नही होगी , पर वे यह भी जानते है कि इस बहाने वे मीडिया के माघ्यम से अपने मसौदे के महत्वपूर्ण हिस्से को देश के सामने रख सकते है। इसलिये वे बार बार इस मांग को उछाल रहे है और इससे बने बहस के मौको का इस्तेमाल अपने हित में करने की कोशिश कर रहे है। अन्ना के आन्दोलन के पहले चरण मे राजनेताओ की खुलओम पगड़ी उछाली गयी थी , अब अन्ना के वही सिपाही अपना मतलब साधने के लिये उनके दरवाजे पर दस्तक देकर सफाई देने और उनका समर्थन पाने मे जुटे है। यह चरित्र राजनेताओ की तरह दुहरा है। जो एक तरह से उनकी कमजोर पड़ती साख की निशानी है । अन्ना की तरह चौतरफा हमले से घिरे बाबा रामदेव भी अपनी साख कायम रखने के लिए हाथ पैर मार रहे है। राजनैतिक बिसात पर पहली चाल पर बुरी तरह आह्त हो चुके बाबा रामदेव को अन्ना के चौगुनी कसरत करनी पड़ रही है वे मूल सवाल को भूलकर अपनी कमाई,दवाई और अपने आन्दोलन के साथियो के बारे में सफाई पर सफाई दे रहे है ।

 

1 COMMENT

  1. एक सर्वे के अनुसार देश की ५४% जनता भ्रष्टाचार के प्रति उदासीन है …पहला काम तो जन मानस को जागृत करना है. उसमे अन्ना और रामदेव काफी हद तक सफल रहे हैं. जिस दिन जनता जाग जाएगी -उसी दिन से इन भ्रष्ट नेताओं की उलटी गिनती भी शुरू हो जाएगी. … आप भी इस जन जागरण के आन्दोलन में ऐसे ही अपना योगदान डालते रहिये …साधुवाद ..

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