कवि चतुष्टयी जन्मशती पर- विभूतिनारायण राय का साम्राज्यवादी आख्यान

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

बाबा नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय और शमशेर का यह जन्मशती वर्ष है। यह समारोह ऐसे समय में आरंभ हुआ है जब देश भयानक मंदी की मार और नव्य-उदार आर्थिक नीतियों की मार से गुजर रहा है। सवाल उठता है क्या इसे तिलांजलि देकर कवि चतुष्टयी की जन्मशती मनायी जा सकती है? लेकिन हिन्दी के कई प्रतिष्ठित लेखकों आलोचकों और संस्थानों ने साम्राज्यवाद और सत्ता के प्रति आलोचनात्मक रूख को तिलांजलि देकर इस आयोजन का आरंभ कर दिया है।

बाबा नागार्जुन को मंदी और नव्य-उदारीकरण के संदर्भ में पढ़ना निश्चित रूप से बड़ी उपलब्धि है। मैंने करीब एक दशक से बाबा को नहीं पढ़ा था,कभी पढ़ा भी तो चलताऊ ढ़ंग से पढ़ा और रख दिया, लेकिन इस बीच में उनकी जो भी किताबें बाजार में दिखीं खरीदता चला गया और इस सप्ताह उन्हें मन लगाकर पढ़ गया।

बाबा नागार्जुन से मुझे कईबार व्यक्तिगत तौर पर जेएनयू में पढ़ते समय मिलने और बातें करने का मौका मिला था। उनसे मेरी पहली मुलाकात 1981 में हुई जब मैंने उनकी आपात्कालीन कविताओं पर एम.फिल् करने का फैसला किया था। केदारनाथ सिंह गाइड थे। उसके बाद तो कईबार मिला और उनके साथ लंबी बैठकें भी कीं।

बाबा नागार्जुन सहज, सरल, पारदर्शी और धुनी व्यक्तित्व के धनी थे। प्रतिवादी लोकतंत्र उनके स्वभाव में रचा-बसा था। उनकी कविता लोकतंत्र की तरह पारदर्शी और आवरणहीन है। उन्हें प्रतिवादी लोकतंत्र का बिंदास लेखक भी कह सकते हैं। प्रतिवादी लोकतंत्र की प्राणवायु में जीने वाला ऐसा दूसरा लेखक हिन्दी में नहीं हुआ। नामवर सिंह को नागार्जुन का व्यंग्य खास लगता है मुझे उनका प्रतिवादी लोकतंत्र के प्रति लगाव खास लगता है।

नागार्जुन के व्यक्तित्व और कविता की यह खूबी थी कि वे जैसा सोचते थे वैसा ही जीते भी थे। आज हिन्दी के अधिकांश लब्ध प्रतिष्ठित लेखक इससे एकदम उलट हैं। सोचते कुछ हैं जीते कुछ हैं। आज के हिन्दी लेखकों के कर्म और विचार में जो महा-अंतराल आया है वह हमारे लिए चिन्ता की बात है। कवि चतुष्टयी की जन्मशती पर कम से कम हिन्दी के स्वनामधन्य बड़े लेखक इस सवाल पर सोचें कि उनके कर्म और विचार में महा-अंतराल क्यों आया है? उनके हाथ से सामयिक यथार्थ क्यों छूट गया है?

कवि चतुष्टयी जन्मशती पर बड़े-बड़े प्रतिष्ठानी जलसों की खबरें आ रही हैं। इन जलसों के बहाने सत्य को असत्य में तब्दील करने की कोशिशें आरंभ हो गयी हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह काम प्रगतिशील आंदोलन के पुरोधाओं की आंखों के समाने हो रहा है वे असत्य का जयगान सुन रहे हैं। यह हिन्दी के प्रतिवादी कवियों का अपमान है। मैं यहां सिर्फ एक झलकी दिखाना चाहता हूँ।

हाल ही में वर्धा स्थित महात्मा गांधी विश्वविद्यालय ने एक बड़ा ही भव्य कार्यक्रम शमशेर, अज्ञेय, केदार और नागार्जुन के जन्मशती पर आयोजित किया था। इसमें जो विचार वक्ताओं ने रखे हैं ,उन पर विस्तार से चर्चा करने की जरूरत है। हमारे प्रगतिशील लेखक किस संसार की छवि बना रहे हैं और सत्ताभक्त साहित्य प्रशासक विभूतिभूषण राय किस नजरिए से संसार की छवि बना रहे हैं, इसे देखना बड़ा ही दिलचस्प होगा।

मैंने कभी राय साहब को देखा नहीं है। मिलने का भी सौभाग्य नहीं मिला। लेकिन जो रिपोर्ट इस सेमीनार की सामने है उस पर कहे बिना नहीं रह सकता। एक वाक्य में कहूं तो विभूतिनारायण राय ने बाबा नागार्जुन और अन्य प्रतिवादी कवियों की आत्मा को अपने बयान से कष्ट पहुंचाया है। राय साहब ने कहा है –

“बीसवीं शताब्दी को यदि एक वाक्य में परिभाषित करना हो तो मैं उसे हाशिए की शताब्दी कहना चाहूंगा। इस सदी में उपनिवेशवाद का अंत हुआ, लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ स्थापित हुईं और सदियों से समाज के हाशिए पर रहने वाले लोग- जैसे दलित, आदिवासी और स्त्रियाँ- पहली बार मनुष्य का जीवन जीने का अवसर पा सके। इससे पहले हाशिए पर अटके लोगों के मानवाधिकार समाज के प्रभु वर्ग द्वारा अपहृत कर लिए गये थे। दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई और विश्व मानवाधिकारों के चार्टर की घोषणा हुई तो मानव सभ्यता को जो उपहार मिला वह किसी भी धार्मिक पुस्तक से नहीं मिल पाया था।”( https://hindustaniacademy.blogspot.com)

इस साधुभाषा का हिन्दी के प्रतिवादी कवियों के सोच से क्या संबंध है? राय साहब इतने भोले कैसे हैं कि उन्हें समाजवादी व्यवस्था का उदय और पराभव नजर नहीं आया, उन्हें दो-दो विश्वयुद्ध नजर नहीं आए और उन्हें अमेरिकी साम्राज्यवाद का आतंकी नव्य उदार चेहरा नजर नहीं आया, आखिरकार विभूति बाबू किसकी चारण वंदना कर रहे हैं? उन्होंने जैसा भाषण दिया है वैसा भाषण अमेरिका के ह्वाइट हाउस के कर्मचारी रोज देते हैं। हिन्दी के प्रगतिशील लेखक यह कैसे भूल सकते हैं कि अमेरिकी साम्राज्यवाद नाम का पूरा विचारधारात्मक तंत्र है जिसके जबड़े में हम सब फंसे हैं। राय साहब के साहबी बयान से तय हो चुका है कि अब ज्ञान-गंगा किधर बहेगी।

हम सोचें कि क्या किसी लेखक को अमेरिकी साम्राज्यवाद के गुनाहों पर इस साधुभाषा के बहाने पर्दा डालने की अनुमति दी जा सकती है? क्या नागार्जुन, केदार और शमशेर की साम्राज्यवाद विरोधी चेतना और अज्ञेय की अमेरिकी साम्राज्यपरस्त समझ में पटरी बिठायी जा सकती है? जी हां, यह काम इस साधुभाषा के बहाने किया जा रहा है।

मजेदार बात यह है कि नागार्जुन, केदार और शमशेर और अज्ञेय को आप एक साथ कैसे रख सकते हैं? कभी उनका नजरिया नहीं मिला तो अब उनकी एक साथ जन्मशती कैसे मना सकते हैं? जब इस तरह का घल्लूघारा होगा तो समाजवाद और साम्राज्यवाद का क्या करोगे? काग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम के साथ अज्ञेय के रिश्ते का क्या करोगो? जन्मशती के नाम पर इस तरह की विचारधाराहीनता सिर्फ अब हिन्दी के सत्ताभक्तों के यहां ही संभव है यही वजह है कि विभूति बाबू ह्वाइट हाउस के कर्मचारी की भाषा बोल रहे हैं।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि हिन्दी के मंच,गोष्ठी या सेमीनार अमेरिकी साम्राज्यवाद की भाषा के मंच नहीं रहे हैं। विभूति बाबू ने इस बयान के साथ ही सत्ता के गलियारों में अपनी पकड़ और भी पुख्ता कर ली है। इस मौके पर मुझे नागार्जुन की एक कविता याद आ रही है,उसका शीर्षक है “इतना ही काफी है”। नागार्जुन ने लिखा है –

“बोल थे नेह -पगे बोल, यह भी बहुत है! इतना ही काफी है!”

2 COMMENTS

  1. aap luhar ko sunaar banane ki koshish kar rhe hain …vibhooti narayan bade chhapas pipasu adhikari hain jbki baba nagarjun khantee jameeni sarvhara parast janwadi kavi …aapka aalekh gyaanvardhak hai kintu charon kaviyon ke saamne vibhooti ko khada kar kuchh jyada hi tbajjo di hai .

  2. जगदीश्‍वर चतुर्वेदी जी,

    आप आलोचना इस प्रकार से प्रारंभ करते हैं –

    यह समारोह ऐसे समय में आरंभ हुआ है जब देश भयानक मंदी की मार से गुजर रहा है। सवाल उठता है क्या इसे तिलांजलि देकर कवि चतुष्टयी की जन्मशती मनायी जा सकती है?

    (१) किसी भी angle से देखें अब कहीं भी अर्थ व्यवस्था में मंदी नज़र नहीं आती है.
    भारत, चीन, ब्राज़ील में कहाँ मंदी है.
    राष्ट्र मंडल खेल में कितना व्यर्थ खर्चा हो रहा है.

    सरकार, निजी संसथान कितना वेतन बढ़ा रहे हैं.

    ९% विकास दर. विकास का सूचक – खाद्य महंगाई १६%. अनाज प्रबंधन – नो कंसर्न. यह सभी मंदी के सूचक नहीं हैं.

    आपको क्या आलोचना प्रारंभ करने के लिए कुछ और appropriate नहीं मिला ?

    (२) आपकी second preliminary objection है देश नव्य-उदार आर्थिक नीतियों की मार से गुजर रहा है.

    यह आपकी preliminary नहीं अपितु permanent objection सदा ही रहेगी.

    Negativity छोड़ अपनी कलम से कुछ अच्छा लिखें.

    – अनिल सहगल –

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