संप्रदाय धर्म के विकास का चरण नही होता

religonडार्विन के विकासवाद के सिद्धान्त ने कुछ लोगों को बहुत अधिक भ्रमित कर दिया ऐसे भ्रमित लोगों का तर्क होता है कि धर्म का विकास धीरे-धीरे हुआ और जैन,बौध,इसाइयत और इस्लाम धर्म के विकास के अगले चरण हैं। उनका मानना है कि इन सब धर्मों के सम्मिलित प्रयास से धर्म का वास्तविक स्वरूप बनकर के आता है। इस प्रकार धर्म जो कि आध्यात्मिक और अंतर्जगत की वस्तु है उसे भ्रमवादियों ने भौतिक जगत की वस्तु बनाकर रख दिया । मानो जैसे धर्म किसी कंपनी से निकली हुई कोई गाड़ी हो और जैन,बौध आदि उसके अगले-अगले ऐसे मॉडल हो जो पहले वाले से कहीं उत्कृष्ट हों। वास्तव में धर्म के विषय में जिन लोगों की ऐसी मान्यता है वो धर्म के विषय में कुछ नहीं जानते।

लोगों की इस धारणा से ऐसा लगता है कि जैसे ईश्वर से पहली बार में कोई गलती हुई और उसने सृष्टि को चलाने के लिए फिर कोई दूसरा संविधान दिया,फिर तीसरा दिया और फिर चौथा दिया…..इत्यादि । जबकि ईश्वर की व्यवस्था में ऐसा कोई दोष नहीं है।

धर्म एक ऐसी वस्तु है जो जड़ और चेतन जगत के प्रत्येक पदार्थ और प्रत्येक प्राणी का अलग-अलग है। आग का धर्म गर्मी देना है तो जल का धर्म शीतलता देना है ऐसे ही सूर्य का धर्म प्रकाश या गर्मी देना है तो चंद्रमा का धर्म शीतलता देना है ईश्वर ने अपनी प्रकृति में विभिन्न वनस्पतियां पेड़ पौधे वृक्ष आदि बनाई है उन सब का भी अपना-अपना धर्म है। वे सब भी किसी न किसी रोग की औषधियाँ है। एक भी वनस्पति ऐसी नहीं है कि जो निरर्थक हो वह जिस उद्देश्य के लिए बनाई गई है वह उद्देश्य ही उसका धर्म है जो उसे धारण किए हुए है। यदि धर्म का विकास होता रहता और धर्म परिवर्तनशील होता तो नींबू के साथ लगे आम के पेड़ के फल कुछ काल उपरांत खट्टे होने या आने लगते लेकिन आम का पौधा उसी खेत में से अपने फल के लिए वही तत्व खोजता है जिससे उसमे मिठास भरे और नींबू का वृक्ष उसी खेत की मिट्टी मंस से खटास के तत्वों को ढूँढता है और अपने फल के लिए उसे भेजता है । ये दोनों फलों के पौधे उस खेत की मिट्टी में से जिन जिन तत्वों का संचयीकरण कर रहे हैं या चौबीशों घंटे ऐसे तत्वों की तलाश करने में लगे रहते है और निरंतर अपने फलों के माध्यम से लोकउपकार करते हैं वास्तव में यह साधना ही इनका धर्म है। मैं अपने आवास से लगभग छह सौ किलोमीटर दूर हिमाचल प्रदेश के मनाली शहर में रावी नदी के किनारे बैठा यह आलेख अपने पाठकों के लिए तैयार कर रहा हूँ।मैं सौच रहा हूँ कि इस नदी के उदगम स्थल पर कल मैं होकर आया था जहां ये रोहतांग दर्रे के पास से निकलना आरंभ होती है यहाँ की ऊँची-ऊँची पहाड़ियों पर रोज बर्फ पड़ती है वह बर्फ जाड़ों के दिनो में और भी अधिक बड़ी मात्रा में पड़ती है साधना की एक लंबी प्रक्रिया से गुजरकर पानी समुद्र से उठता है,बादल बनते है यहाँ आकर ठंडे होते है,उसकी सीधे-सीधे बर्फ बनती जाती है। हम घरों में पानी को शुद्ध करने के लिए फ़िल्टर करते हैं और ईश्वर की व्यवस्था में यहाँ पानी रोज फ़िल्टर होकर बर्फ के रूप में आकर जमता है और यहाँ से बर्फ चल देती है पानी की एक-एक बूंद से जलधारा बनकर हम सब की प्यास बुझाने के लिए।इस प्रकार जल की एक बूंद ही एक साधना की कहानी कह रही है और यह साधना ही उसका धर्म है इसीलिए हमारे विद्वानो ने कहा कि -“धर्मो धारयते प्रजा”अर्थात धर्म वह है जो प्रजा को धारता है । अज्ञानी लोगों ने धर्म को हमारे द्वारा धारणे वाली वस्तु मान लिया।

मनुष्य जीवन सभी योनियों में उत्तम है पर इस जीवन की साधना के दो स्वरूप है-एक आध्यात्मिक स्वरूप और दूसरा भौतिक स्वरूप।

आध्यात्मिक स्वरूप के माध्यम से हमारी साधना हमे भीतर से शुद्ध पवित्र और महात्मा बनने के लिए प्रेरित करती है जबकि भौतिक साधना हमे हमारे अंतर्जगत के भावों के अनुसार उन्नत और महा मानव बनने के लिए प्रेरित करती है।हमारा बाहरी जगत हमारे भीतरी जगत की परछाई है। हम लाख छुपाने की कोशिश करें पर हम जैसे भीतर से होते है वैसे ही लोगों को बाहर दिख ही जाते है।इसलिए हमारे ऋषियों ने धर्म के आंतरिक स्वरूप को बाहरी स्वरूप का आधार माना और इसलिए भीतरी जगत की पवित्रता पर अधिक बल दिया। भीतरी जगत के विकारों की विशाल सेना को मरवाकर मनुष्य को भीतर से देवता बनाकर बाहरी संसार में प्रकट करना और अंत में उसे मोक्ष का अधिकारी बना देना यह हमारे जीवन की साधना का निचोड़ होता था। बस,साधना का यह पथ ही हमारे लिए धर्म था। इसलिए महर्षि कनाद ने कहा था कि धर्म वह है जो हमें अभ्युदय अर्थात इस लोक की भौतिक उन्नति और निश्रेयस की सिद्धि अर्थात परलोक की अथवा आध्यात्मिक जगत की सिद्धि करने में सहायक हो।

ऋग्वेद ने इसीलिए मनुष्य से अपनी जीवन साधना की उन्नति और उत्तम फल प्राप्ति हेतु एक अनिवार्य शर्त रखी कि-सत्यम वद,धर्मम चर अर्थात सत्य बोल और धर्म पर चल । तुझे अपने से विपरीत विचार रखने वाले या किसी भी प्रकार से साथ-साथ रहने वाले मनुष्यों या प्राणियों के जीवन का अंत करने का अधिकार नहीं है।तू अपनी साधना पर ध्यान लगा और आगे बढ़। इस प्रकार वेद ने या सनातन धर्म ने प्रत्येक मनुष्य को ही नहीं अपितु प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक जड़ पदार्थ को साधना संगीत की स्वर लहरियों पर झूमने वाला एक संगीतमय फुवारा बनाकर प्रस्तुत किया । संसार की पूरी व्यवस्था के पीछे एक व्यवस्थापक है,संसार के प्रत्येक नियम के पीछे एक नियामक हैं प्रत्येक पदार्थ और प्रत्येक प्राणी की इस साधना के पीछे व्यवस्थापक और किसी नियामक का होना पूरे एक विज्ञान की कहानी को पेश करता है।कदाचित यह विज्ञानमयी स्वरूप ही हमारा धर्म है। अतः विज्ञान और धर्म दो विपरीत विचार नहीं है अपितु धर्म अपने मूल स्वरूप में पूर्णत: वैज्ञानिक है।

इस धर्म ने प्राचीन कल से अब तक हमें प्रत्येक क्षेत्र में साधने और सवारने का प्रशंसनीय कार्य किया है। लोक में इसकी साधना के विभिन्न स्वरूप हैं-कहीं यह हमारे लिए नीति बन जाता है,कहीं यह हमारे लिए नियम बन जाता है,कहीं यह हमारे लिए न्याय बन जाता है,कहीं यह हमारे लिए स्नेह बन जाता है तो कहीं यह श्रद्धा बन जाता है,कहीं यह हमारे लिए प्रेम बन जाता है,कहीं यह हमारे लिए भक्ति बन जाता है,कहीं यह हमारे लिए राष्ट्र प्रेम बन जाता है,तो कहीं यह अपने सर्वोत्रक्रष्ट और सर्वांग सुंदर स्वरूप में हमारे लिए मानवता बन जाता है।

 

माँ और संतान के बीच में यह ममता बनकर प्रकट होता है,पिता और संतान के बीच में यह वात्सल्य बनकर प्रकट होता है भक्त और भगवान के बीच यह भक्ति बनकर प्रकट होता है,देश और देशवाशियों के बीच यह देशभक्ति बनकर प्रकट होता है,गुरु और शिष्य के बीच यह श्रद्धा बनकर प्रकट होता है,तो मानव और मानव के बीच यह मानवता बनकर प्रकट होता है।ऐसे सुंदर समाज में कहीं हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होता। सत्य सनातन वैदिक धर्म इसी वैज्ञानिक स्वरूप पर टिका हुआ है उसने पूरे समाज को एक व्यवस्था दी और उस व्यवस्था का नाम धर्म दिया । व्यवस्था में दोष आ जाने का अर्थ यह नहीं है कि व्यवस्था थी ही नहीं व्यवस्था का प्रदूषित हो जाना और उसका उपचार करना और व्यवस्था को स्थापित करना दोनों अलग -अलग चीजे हैं। व्यवस्था को स्थापित किया वैदिक धर्म ने। देश,काल और परिस्थिति के अनुसार उसमे जहां-जहां दोष आए वहाँ-वहाँ जिन उपचारक महापुरुषों ने व्यवस्था के दोषों को दूर करने का प्रयास किया वहाँ-वहाँ वे लोग महापुरुष कहलाए और उनके कार्य लोगों के लिए प्रेरक बनें।कालांतर में व्यवस्था में आए दोषों को दूर करने के लिए अपने अपने ढंग से प्रयास करने वाले इन महापुरुषों के सत्कार्यों को स्मरणीय बनाने के लिए लोगों ने इनके नाम से नए नए मत पंथ और संप्रदाय स्थापित किए। इन मत पंथ और संप्रदायों में व्यवस्था के पूर्णत: वैज्ञानिक स्वरूप में अपने-अपने ढंग की मिलावट की और अपने-अपने संप्रदायों को धर्म का नाम दिया ।इस प्रकार एक बीमार व्यवस्था को गलत उपचार देकर उसे और भी अधिक दूषित कर दिया गया। धर्म विभिन्न नहीं हो सकते धर्म सबका एक है विभिन्न धर्म बताना स्वंय धर्म के साथ अधर्म करना है।जड़ और चेतन जगत का जब प्रत्येक पदार्थ अपने मौलिक वैज्ञानिक स्वरूप की साधना में रत है और उसे कभी परिवर्तित नहीं करता तो इस मनुष्य को अपने विभिन्न धर्म घोषित करने का अधिकार किसने दे दिया?यदि मनुष्य का धर्म बार-बार परिवर्तित होता है तो इसका विपराय है कि ईश्वर की व्यवस्था में दोष है। जबकि ईश्वर के बनाए सृष्टि नियम जो प्राचीन काल में थे वो आज भी है उनमे कोई विकार नहीं आया । सूर्य आदि काल से पूरब से निकलता आया है,आग शुरू से गर्मी देती आई है,जल आदि काल से शीतलता देता आया है,इनके धर्म तो परिवर्तित नहीं हुए तो फिर मानव का धर्म क्यों परिवर्तित हुआ सृष्टि के नियमो में पूरी लहबद्धता तो मानव उसका अपवाद क्यो होगा।

मानव ने धर्म को ईश्वर के बनाए नियमों का पालन न करके दूषित किया,आज भी वह ऐसा ही कर रहा है।नीति का पालन न करने से,मर्यादा का उलंघन करने से,नियमों को तोड़ने से,कर्तव्यों की उपेक्षा करने से धर्म की हानि होती है जैसा की आजकल हम देख रहे हैं।धर्म की हानि को ठीक करने के लिए धरती पर महामानव आते रहे हैं जिनहोने धर्म का परिस्कार किया है।धर्म के गंदले स्वरूप को उसी प्रकार माँजा है जैसे कोई गृहणी अपने घर के गंदे बर्तनों को माँजती है।जैसे कोई महिला बर्तनों को माँजकर ये नहीं कह सकती कि वह नए बर्तन ले आई है वैसे ही कोई महापुरुष धर्म के विक्रत स्वरूप को माँजकर ये नहीं कह सकता कि मैंने मेरा धर्म चला दिया है।

हमारे यहाँ नदियों में,नहरों में, या कहीं भी बहते हुए पानी में मल-मूत्र विसर्जित करना,उसमे थूकना या किसी भी तरीके से उसे गंदा करना पाप या अधर्म माना जाता था। गांवो में रहने वाले 70-80 वर्ष के बुजुर्ग आज भी पानी के विषय में ऐसा ही सोचते है।लेकिन जो लोग अपने आप को आधुनिक और सभ्य कहते है उन्होने पानी के प्रति मानव के धर्म को तार-तार कर के रख दिया। फलस्वरूप पानी में कचरा डाला जा रहा है,हत्या करके शव फेके जा रहे है,पशुओं को काटकर उनका खून नालियों के माध्यम से नदियों में जा रहा है,ये मानव का अधर्म है। इसका परिणाम ये आ रहा है कि जल हमसे रूठ गया है। हमारे धर्म को रूढ़ि कहकर उपेक्षित किया गया तो परिणाम ये आ रहा है कि अब हर घर में दूषित जल जा रहा है। और सम्पन्न लोग जल को निर्मल और स्वछ बनाकर पीने के लिए उसपर बहुत बड़ी धनराशि खर्च कर रहे है। यह हमारा अधर्म हमारी मौत का कारण बनता जा रहा है हम धर्म को भूल गए तो धर्म हमे भूल गया । इसीलिए प्रजा में हाहाकार मच रही है। संप्रदायों के पास इस समस्या का कोई समाधान नहीं है क्योंकि वो तोड़ने का काम करते है जोड़ने का नहीं,जबकि धर्म हमे जोड़ने का काम करता है,इसलिए मानवता के कल्याण के लिए धर्म की शरण में ही जाना पड़ेगा अर्थात मर्यादा और नियमों का पालन करना पड़ेगा । धर्म के विकास की कोई सीढ़ियाँ नहीं है,वह जैसा ईश्वर ने बनाकर दिया वैसा ही है। आवश्यकता धर्म के शुद्ध और वैज्ञानिक स्वरूप को समझने की है संप्रदायों के रूप में धर्म का लवादा ओढ़े हुए मानसिकता के मझहबों को धर्म मानना गलती है। जबसे मजहबों का विकास हुआ है तबसे इतिहास गवाह है कि दुनिया में खून खराबा अधिक हुआ है । खून खराबे के इस इतिहास को धर्म के विकास का रूप मानना एक नितांत भ्रामक धारणा है । मानवता के हित में इसपर अब विचार किया जाना आवश्यक है ।

-राकेश कुमार आर्य

 

6 COMMENTS

    • इकबाल साहब,
      जिन लक्षणों को आप धर्म मान रहे हो वो धर्म के नहीं बल्कि संप्रदाय के रक्षक हैं। हमने संप्रदायों को,मजहबों को धर्म मन लिया और कम्युनिस्ट में अपनी सोच को कम्यूनल हो गए। धर्म तो हमें जोड़ता है जबकि मजहब हमे तोड़ता है। आज के विद्वानो के साथ समस्या ये है कि सर्वसम्मत सिद्धान्त कि स्थापना के लिए चर्चा नहीं करते बल्कि अपनी अपनी विद्वता के प्रदर्शन के लिए अपना अपना मत रखते है और जब चर्चा में गर्माहट आती है तो ज़्यादातर लोग ये कहकर विराम दे देते हैं अपना अपना मत होता है और उसे रखने का सबको अधिकार है इसलिए चर्चा किसी सर्वसम्मत सिद्धान्त का निसपादन नहीं कर पाती। इसलिए मताग्रही लोगों से चर्चा करने से भी समझदार लोग बचने का प्रयास करते हैं।
      आपकी टिप्पणी के लिए धन्यवाद।

  1. नितांत मौलिक आलेख।
    समस्त बिंदुओं को प्रायः एकसूत्रता प्रदान करनेवाला आलेख।
    पश्चिम की अवधारणाओं का , और भारतीय अवधारणांओं का मौलिक अंतर दिखलाता आलेख।
    आज सही सही पढनेका समय भी नहीं मिला है।
    आगे शांतचित्त से पढूंगा।
    एक वाचनीय ही नहीं पर बार बार पठनीय आलेख।
    शतशः धन्यवाद।

    • श्रद्धेय ड़ा० साहब,
      ……और मैं कहूँगा कि आपके पुण्यमयी आशीर्वाद को समर्पित आलेख….. आपके मार्गदर्शन को समर्पित आलेख।
      पता नहीं क्या बात है कि मैं आपमे अपने आत्मीय संरक्षक का स्वरूप देखता हूँ। आपकी विद्वता और विनम्रता को मैं नमन करता हूँ । आशीर्वाद देते रहें । सादर आभार ।

  2. लेख बहुत अच्छा है, सबको अपना धर्म निभाना चाहिये,नदियों मे मूर्तिविसर्जन के बारे मे, बढ़ती जनसंख्या के बोझ के तले दबी धरती के बारे मे क्या कहेंगे आप?

    • भटनागर जी,
      उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका धन्यवाद।नदियों में मूर्ति विसर्जन किया जाना भी धर्म विरुद्ध है।क्योंकि मूर्तियों का मलबा नदी की जलधारा की गहराई में जाकर बैठता है जो कि नदी के जलस्रोतों को बंद करता है जिससे नदी की अविरल धारा बाधित होती है। नदी स्वाभाविक रूप से और अविरल बहे उसमे सहायक होना हमारा धर्म है। तभी नदियां हमारी मित्र हो सकती हैं। इसी प्रकार भय,भूख,भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए तथा धरती को हरा भरा रखने और पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने के लिए जनसंख्या को उचित अनुपात में नियंत्रित रखना भी मानव धर्म में सम्मिलित है। इन दोनों बातों को उठाकर आपने लेख को और भी स्पष्ट करने में मेरी सहायता की है उसके लिए पुनः आपका धन्यवाद।

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