संस्कृति

0
435


मनुष्य और जानवरों के बीच फर्क केवल शारीरिक रचना एवम् कार्यिकी के विवरण में ही है। फिर भी मनुष्य को जानवर न कहकर जीव जगत का एक नया फेनोमेनन कहना बहुत ही युक्तिपूर्ण होगा। विश्लेषण किए जाने पर यह फर्क शारीरिक रचना या कार्यिकी में नहीं,बल्कि आचरण एवम् उपलब्धियों में अंकित किया जाएगा।

जीव जगत में आदमी की विशिष्टता एक शब्द द्वारा आसानी से कही जा सकती है, वह शब्द है—‘संस्कृति’। संस्कृति से तात्पर्य होता है, जीवन यापन का तरीका, लोगों की पीढ़ियों दर पीढ़ियों और एक व्यक्ति से अन्य व्यक्ति तक सिखाने और सीखने के जरिए सम्प्रेषित इकट्ठा हुई परम्पराएँ,जानकारियाँ और रीति रिवाज।  मनुष्य विभिन्न स्थानों पर रहते हुए विशेष प्रकार के सामाजिक वातावरण, संस्थाओं, प्रथाओं, व्यवस्थाओं, धर्म, दर्शन, लिपि, भाषा तथा कलाओं का विकास करके अपनी विशिष्ट संस्कृति का निर्माण करते हैं। भारतीय संस्कृति की रचना भी इसी प्रकार हुई है।

हर व्यक्ति के दो उत्तराधिकार होते हैं— जैविक- पैत्रागतिकी उत्तराधिकार उसकी जान्तव प्रकृति पर आधारित एवम् सांस्कृतिक उत्तराधिकार मुख्यतः उसके समुदाय की भाषा एवम् प्रतीक पद्धतियों पर आधारित होता है।

बांग्ला के साहित्यकार शंकर ने संयुक्त राज्य अमेरिका के एक घरेलू हवाई अड्डे पर एक बुजुर्ग अमेरिकी को अपना भारी सामान ढोते हुए देखा तो उनकी मदद करने का प्रस्ताव किया। बुजुर्ग को इस प्रस्ताव पर ताज्जुब हुआ कि कोई क्यों भला आदमी किसी दूसरे का बोझ ढोने का प्रस्ताव करेगा। उन्होंने पूछा, “आप किस देश से हो?” भारत का नाम बताए जाने पर उन्होंने कहा, “हाँ, भारतीय लोग बुजुर्गों का बहुत सम्मान करते हैं?” शंकर लिखते हैं कि इतना कहने के बाद बुजुर्ग ने तुरत कहा, “लेकिन अमेरिका जवानों का देश है, यहाँ युवाओं को प्राथमिकता दी जाती है।“  साथ साथ चलते हुए उन्होंने कहा, अमेरिका आप्रवासियों का देश है विभिन्न देशों से आए लोगों के आपस में घुलमिल जाने से अमेरिकी राष्ट्र उभड़ा है। इसीलिए इसे ‘मेल्टिंग पॉट’ की उपमा दी जाती है। शंकर ने कहा हमारे देश में भी देशान्तर से लोग आते रहे और उनके घुलमिल जाने से  भारत राष्ट्र बना है। । पर हमारे कवि ने इसे मानवसागर के महातीर्थ में अनेकों धाराओं के आकर एक हो जाने की उपमा दी है। बुजुर्ग ने कहा, “हाँ, ऐसी सुन्दर उपमा भारत का कवि ही दे सकता है। हमारा तो कल-कारखानोंवाला देश है। इसलिए पिधलता हुआ कड़ाह ही हमारी उपमा है।“

संयुक्त राज्य अमेरिका के आदर्श गणतंत्र होने की अवधारणा का वर्णन करने के लिए अट्ठारवीं और उन्नीसवीं सदी में क्रूसिब्ल या मेल्टिंग पॉट(पिघलता कड़ाह) की उपमा के द्वारा विभिन्न राष्ट्रीयताओं, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के आपस में घुलमिल जाने की प्रक्रिया का वर्णन किया जाता था। आप्रवास और नई आबादी के बसने की आदर्श प्रक्रिया की उपमा के रूप में इसका उपयोग किया जाता था जिसके जरिए अलग,अलग जातीयताओं, संस्कृतियों और नस्लों के लोग आपस में घुलमिलकर एक  सच्चरित्र समाज बनकर उभड़ते हैं। यह उपमा आदर्शवादी अमरिकी समाज के उभड़ने के सपने से जुड़ी हुई थी।

जीव-जगत, खासकर मनुष्य प्रजाति, के लिए देशान्तरवास अथवा आप्रवास एक निरन्तर प्रवाहमान प्रक्रिया रही है। इस प्रक्रिया के नतीजे में ही अफ्रिका महादेश की सीमा में विकसित मनुष्य आज धरती पर के हर सुगम एवम् दुर्गम इलाके में आबाद है। इस प्रक्रिया के जरिए मनुष्य अपने पैत्रागतिकी सम्पद के साथ साथ अपने सांस्कृतिक उत्तराधिकार को भी नए नए परिवेश में अनुकूलित करता रहा है। इस अनुकूलन की प्रक्रिया से नई पहचान और नई संस्कृतियों का उदय होता रहता है।

बीसवीं सदी में प्रौद्योगिकी के अभावनीय प्रगति एवम् सहज उपलब्धता ने आदमी के लिए देशान्तरवास काफी सुगम कर दिया है। इसके नतीजे में किसी स्थान में अब सम्भव किया है कि आप्रवासी अपने मूलस्थान से निरन्तर सम्पर्क बनाए रख सकें। फलस्वरूप वे अपने मूलस्थान से पूरी तरह विच्छिन्न नहीं होते और मेजबान राष्ट्र में पूरी तरह परिपाचित नहीं हो पाते। इसलिए ‘मेल्टिंग पॉट’ की उपमा उपयुक्त नहीं रह जाती, इस तरह के समाज की उपमा के लिए ‘सलाद-बाउल’ का प्रारूप उपयुक्त समझा जाता है। इस प्रारूप के अनुसार आप्रवासियों के लिए अपनी संस्कृति और परम्पराओं का पूरी तरह त्याग करना जरूरी नहीं होता। इसकी युक्ति का आधार है कि देशान्तरवासी अपने आपको प्रथमतः नए राष्ट्र का और बाद में अपने मूल राष्ट्र का नागरिक मानें। इससे वे अपनी सारी सांस्कृतिक परम्परा और रीतिरिवाज को बरकरार रखते हुए संकट के समय अपने मेजबान राष्ट्र के हित को सर्वोपरि मानते हैं। अगर ऐसा हो सके तो आप्रवासियों को उनके नए राष्ट्र की अग्रगति, एकता और वृद्धि में कोई रुकावट का कारण नहीं कहा जा सकेगा। साथ ही साथ बहुसंस्कृतिवादियों को भी बहुत हद तक सन्तुष्टि मिल सकेगी।

सलाद-बाउल प्रारुप में देश की विभिन्न संस्कृतियाँ सलाद के घटकों की तरह पास-पास में रहते हुए अपनी खासियतें बरकरार रखती हैं। अब यह प्रारूप राजनीतिक रूप से अधिक सही एवम् सम्माननीय माना जाता है, क्योंकि यह हर विशिष्ट संस्कृति को अभिव्यक्ति देता है। इस विचारधारा के हिमायतियों का दावा है कि परिपाचनवाद आप्रवासियों को उनकी संस्कृति से विच्छिन्न कर देता है, जब कि यह समझौतावादी विचारधारा उनके और उनकी बाद की पीढ़ियों के लिए अपने मेजबान राष्ट्र के प्रति निष्ठा को सर्वोपरि रखते हुए अपने वतन की संस्कृति के साथ जुड़े रहने की राह हमवार कर देती है। मेजबान और मूल राष्ट्र तथा निष्ठा और सुविधावाद के बीच इस किस्म का नाजुक सन्तुलन कायम रखा जा सकता है या नहीं, यह तो देखने की बात होगी।

एक बार भारतीय मूल के एक अमरिकी आप्रवासी से मेरा सम्पर्क हुआ था। वे संयुक्त राज्य अमेरिका में एक बैंक में उच्च पद पर कार्यरत थे। सन्तानें भी अच्छी कमाई कर रही थीं। वे अपने बेटे और बेटी की शादियों के लिए भारत में स्काउटिंग करने आए हुए थे। पात्र-पात्री के लिए शर्तें थीं कि वे परम्परा के अनुसार स्वजातीय और भिन्न गोत्रीय हों तथा विवाह के बाद तुरत अमेरिका जाने को प्रस्तुत हों। अपने बारे में उन्होंने बतलाया कि दो दशकों से संयुक्त राज्य में बसे होने के बावजूद वे रोज नियम से पूजापाठ एवम् अनुष्ठान किया करते हैं तथा पूर्वजों के सारे संस्कारों को धारण किए हुए हैं। इसीलिए दामाद-बहू यहीं से ले जाने का इरादा है। मुझे वे करूणा के पात्र लगे। ये ऐसे लोग होते हैं जिन्हें किसीके प्रति निष्ठा नहीं होती, ये बस सुविधा और अहंकार के गुलाम होते हैं ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here