वर्तमान सोच और हमारे देश की हालत

-अनिल मिस्त्री

पदार्थवादी सोच और जरूरत से ज्यादा व्यावसायिक दृष्टिकोण का नजरिया है कि हमारे देश में गद्दार और लालची लोगों की भीड़ बढती जा रही है, फिर वो चाहे किसी भी क्षेत्र की बात क्यों न हो. आजकल माधुरी गुप्ता के कपड़ों और लिपस्टिक के रंग की बहुत चर्चा चल रही है. अपने देश की गुप्त दस्तावेजों की नीलामी करने वाले इंसान को किसी फ़िल्मी सुपरस्टार की तरह बताया जा रहा है. और हम खुल के इसलिए नहीं बोल पा रहे हैं कि अब तक जुर्म साबित नहीं हुआ है. ये संदेह के लाभ का महामंत्र अक्सर गद्दार और मुजरिम (बड़े तबके के) उठाते रहे हैं , फिर वो चाहे अजमल कसाब हो या निठारी का पंधेर या आरुशी हत्याकांड के अपराधी या फिर ताज़ातरीन माधुरी गुप्ता. हमारी न्यायप्रणाली ज्यादातर मामलों में केवल सबूत जुटाने और कहीं किसी निर्दोष को सजा न मिल जाये इस खोजबीन में ही बहुत लम्बा समय ले लेती है. इस लम्बे समय अंतराल को ही ज्यादातर रसूखवाले अपराधी ढाल बना कर इस्तेमाल करते हैं और कानून व्यवस्था को चिढाते नज़र आते हैं. मगर मेरा सवाल ये है कि आखिर अजमल कसाब और माधुरी गुप्ता जैसे जघन्य अपराधों में, जहाँ दूसरे देशों में देशद्रोह की कड़ी से कड़ी सजा मिलती है , हमारे देश में आखिर कितने और कब तक सबूत पेश किये जायेंगे? क्या हम अपने सुस्त रवैये और ढीली कार्यप्रणाली का नाम लेकर इस जैसे अपराधियों को बढ़ावा दे रहे हैं? तकरीबन १००० के आस पास गवाहों और कई ठोस सबूतों के बावजूद अभी तक कसाब जिंदा है? निठारी वा�¤ �ा पंधेर आजाद घूम रहा है, ऐसे उदाहरण क्या और नए आतंकवादी हमलो और अमानवीय हरकतों को निमत्रण नहीं देते? एक तरफ एक ऐसी भीड़ है जो मरने मारने और हमारे देश का हर तरह से नुक्सान करने को तैयार बैठी है. और एक तरफ हम है जो सिर्फ शोरे मचाने और जरूरत से ज्यादा ढील देने पे आमदा हैं. और यही नहीं हम खुद कार, मोबाइल, धन, दौलत और अपने ऐशो आराम और अय्याशियों के लिए नैतिक रूप से इतने गिरते जा रहे हैं कि हम ना अपने राष्ट्र की चिंता कर रहे हैं और ना ही अपनी अस्मिता की. क्या आज हमारे साथ ऐसे लोगों की भीड़ बढ़ गयी है जो भारत को फिर गुलाम बना देना चाहते हैं? क्या दंतेवाडा, जैसी घटनाओं में हवाई हमलों जैसे ठोस क़दमों की पहल करना इतना मुश्किल है? क्या हम इतने नाकाम हैं की कोई भी हमें डरा धमका सकता है? चाहे वो कोई बड़े ताकतवर देश हो, या आतंकवादी, या फिर नक्सली? ये सब बातें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और एक सामरिक शक्ति संपन्न देश को शोभा नहीं देती. आज वक़्त है ईंट का जवाब पत्थर से देने का , जो थपड मारे उसका हाथ तोड़ देने का, कुछ ऐसा करने का कि कोई इस देश के लोगों को नाकाम और डरपोक ना समझे. दुनिया जान जाये कि जब बात हमारी अस्मिता की आएगी तो हम ये साबित कर देंगे उन दंतेवाडा के सीआरपीएफ के वीर रणबांकुरों और कारगिल में शहीद हुए हमारे जवानों की तरह बलिदान करने और अपने शत्रु के दांत खट्टे कर देने में सक्षम हैं. फिर चाहे शत्रु घर के अन्दर का हो या बाहर का.

 “यूँ ही गिरता नहीं लहू अक्सर, इस मिटटी के दीवानों का सैलाब सा उठ जाया करता है रगों में अपनी, दुश्मनों से इन्कलाब

2 COMMENTS

  1. गहन वन घाटियों गिरी कंदराओं से गुजरकर .
    हे पथिक :तुझे तो मीलों दूर जाना है .
    अंतिम नींद से पहले औ राही दूर जाना है .
    कंटकाकीर्ण अगम पथ के अवरोधों को कुचलकर .
    गंतव्य को प्रस्थान का संकल्पकर .
    घनघोर तिमिर में आशाओं के दीप जलाकर .
    राष्ट्र निर्माण पथ चलते जाना है .
    अंतिम नींद से पहले औ राही दूर जाना है .

  2. Total failure of administration of rendering justice to the perpetrators of heinous anti-national crimes is stated to be on account of prevalent materialistic thinking and excessive way of business-like bent of mind of the common man.
    Let us realize that such a way of life is also prevalent in those countries which are well administered.
    Or, the present state of maladministration in our country, is it on account of corrupt politicians in general who have been able to leave deep impression on the minds of common man : come what way – corruption rules and shall continue to rule the country?

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