भारतीय दलित ईसाइयों द्वारा पोप बेनडिक्ट सोहलवें और चर्च अधिकारियों के नाम एक खुला पत्र

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 मांगों तो तुम्हें दिया जायेगा, ढूढों तो तुम पाओगे, खटखआओ तो तुम्हारें लिये खोला जायेगा (मत्ती 7:7) 

शुक्रवार 23 दिसबर 2011

धर्मपिता पोप बेनडिक्ट सोहलवें,

परफैचर ऑफ दा पैपल हाउस, 00120 वेटिकन सिटी स्टेट

भारतीय दलित ईसाइयों द्वारा क्रिसमस एवं नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाए।

धर्मपिता पोप बेनडिक्ट सोहलवें!

जैसा कि आप जानते है कि भारत में ईसाइयों की स्थिति को लेकर लगातार चर्चा का दौर जारी है। इस चर्चा के दो बिन्दु मुख्य है। प्रथम-धर्मांतरित ईसाइयों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति और दूसरा चर्च के कार्य (धर्मप्रचार) पर उठते स्वाल और बढ़ता तनाव।

भारत की जनसंख्या के मुताबिक लगभग 30 मीलियन ईसाई है जिनमें से 70 प्रतिशत दलित मूल के है। जबकि गैर-सरकारी आकड़ों के मुताबिक ईसाइयों की संख्या 60-70 मीलियन से कम नही है। आपके नेतृत्व में चलने वाले कैथोलिक चर्च के अंदर यह दलित ईसाई लगातार शोषित और उत्पीड़त किये जा रहे है। सैकड़ों वर्ष पूर्व चर्च के लिए किये गये बलिदानों के बदले में उनका उपहास उड़ाया जा रहा है। ईसाइयत के अंदर ही उन्हें दोयम दर्जा दिया जा रहा है। ईसाइयत के मुताबिक ईश्वर ने मनुष्य को अपनी ही छवि में सृजा है। इसी आधार पर आस्था रखने वाला ईसाई समाज ‘मानवीय मूल्यों और समानता का प्रचार करता है। पर भारत में उन्हें जन्म एवं जाति के नाम पर अलग किया जा रहा है। इन्ही सब मुद्दों पर आपका ध्यान आर्किषत करने के लिए मैं यह पत्र आपको लिख रहा हूं। और इस पत्र की शुरुआत पहले बिन्दु से करते है।

चर्च की विचारधारा में

सैद्धांतिक तौर पर मसीहियत में जातिवाद, गैर-बराबरी, नस्लवाद एवं रंगभेद इत्यादि के लिए कोई स्थान नही है। इसके आलवा जहां क्रिश्चियनटी को ‘कैथोलिक चर्च’ की संज्ञा से जोड़ दिया गया है तो उसमें तो जातिवाद की धारणा ही शून्य हो जाती है, क्योंकि कैथोलिक शब्द का अर्थ है यूनीवर्सल अर्थात् विश्वव्यापी मसीही परिवार की सदस्यता रखने वाले मसीहीजन या मसीही समुदाय, जिसका प्रमुख एक ही व्यक्ति है जिसे विकर ऑफ क्राइस्ट (ख्रीस्त का प्रतिनिधि) कहा जाता है। जो अपने विश्वव्यापी अनुयायियों के मार्ग-दर्शन के लिए बिशपों की नियुक्ति करता है। इस प्रकार होली फादर /पोप यानी कि आप पृथ्वी पर स्वर्ग राज्य का वातावरण बनाये रखने का दायित्व वहन कर रहे है। ऐसे मसीही समाज में जहां ईश्वरीय पवित्रता विराजती हो आप ही बताए वहां जातिवाद, गैर-बराबरी या नस्लवाद जैसे घिनौनी विचारधारा का स्थान ही कहा रह जाता है।

भारतीय चर्च में वंचित वर्ग

भारत में जातिवाद, गैर बराबरी, शोषण एवं उत्पीड़न से त्रस्त वंचित वर्ग विगत तीन-चार शताब्दियों से चर्च के समानता और भेदभाव रहित व्यवस्था उपल्बध करवाने और उनके सामाजिक विकास का भरोसा दिलाये जाने के बाद ईसाइयत की शरण में आते रहे है। समानता के नाम पर आपके नेतृत्व वाले कैथोलिक चर्च अधिकारियों ने उनका अपने स्वार्थो के लिए जमकर दोहन किया है। और जिस जातिवादी एवं गैर बराबरी वाली व्यव्स्था से छुटकारे की आशा लेकर यह वंचित वर्ग चर्च की शरण में आये थे वह उन्हें नही मिल पायी उल्टा वह उस से भी भयानक गैर-बराबरी के चक्रव्यूह में फंस गए है।

भारतीय चर्च में 70 प्रतिशत यह वंचित वर्गो के धर्मांतरित ईसाई है। इन्में से 30 प्रतिशत से भी ज्यादा पिछले 400 साल से और कुछ 200 साल से आपके/पोप के नेतृत्व में कार्य करने वाले चर्च के सदस्य है।

ईसाइयत की उल्टी राह पर चर्च

आपके नेतृत्व वाला कैथोलिक चर्च भारत में अपने बहुसंख्यक धर्मांतरित सदस्यों को चर्च ढांचे के अंदर समानता और न्याय मुहैया करवाने में पूरी तरह असफल रहा है। चर्च के संसाधनों पर उच्च-वर्गीय ईसाइयों ने कब्जा जमा लिया हैं। भारत की स्वतंत्रता के बाद ‘वेटिकन’ के नेतृत्व में कैथोलिक चर्च ने बड़ी तरक्की की है उसके संसाधनों यानी चर्चो, स्कूलों, कालेजों, सामाजिक संस्थानों, नई बनने वाली डायसिसों, बिशपों, पादरियों, ननों और उसके अनुयायियों में भारी इजाफा हुआ है। पर इस सबके बावजूद इन धर्मांतरित ईसाइयों की स्थिति वैसी ही बनी हुई है जैसी धर्मांतरण के समय थी।

कैथोलिक चर्च की रीढ़ कहे जाने वाले इन धर्मांतरित ईसाइयों की भागीदारी चर्च ढांचे में शून्य है इन वर्गो के कार्डीनल, बिशप, पादरी ढूढंने से भी नही मिलेगे। जो इक्का-दुक्का लोग इस व्यवस्था में कड़े संघर्ष के बाद शामिल हो पाये है वह भी हाशिए पर खड़े है। और अपने ही उच्च-जातिय धर्म-भाईयों (बिशपो-पादरियो) के गैर-बराबरी वाले व्यवहार का शिकार हो रहे है।

चर्च द्वारा भारतीय संविधान में मिली विशेष सुविधायों के तहत देश में हजारों शैक्षिक, स्वास्थ्य एवं गैर-सरकारी सामाजिक संगठन चलाये जा रहे है। आपके/वेटिकन के नेतृत्व में चलने वाला चर्च अपने ढाचें में यहां भी धर्मांतरित ईसाइयों के साथ न्याय नही कर रहा। पोप जॉन पाल द्वितीय ने इस समास्या की गभीरता को समझते हुए चर्च में गैर-बराबरी एवं भेदभावपूर्ण रैवये की कड़ी निंदा करते हुए वर्ष 2003 में कैथोलिक बिशपों से कहा था कि वह वेटिकन द्वारा नियुक्त गडरिये है जिन्हें ख्रीस्त की भेड़ों और मेमनों की परवरिश के लिए रखा गया है। वह चर्च के अंदर हर प्रकार के भेदभावपूर्ण रैवये को समाप्त करने का कार्य करें।

आस्था से विश्वासघात

चर्च द्वारा धर्मांतरित ईसाइयों के प्रति अपनाई जा रही नीतियों के विरुद्व अब इस वर्ग मे आक्रोश पनपने लगा है। वह चर्च ढाचें में अपने अधिकारों की मांग करने लगे है। दुख:द यह है कि चर्च नेतृत्व ने इस आक्रोश एवं धर्मांतरित ईसाइयों के अधिकारों के लिए चले संर्घष को अपनी स्वार्थपूति के लिए गलत दिशा देते हुए ‘भारत सरकार’ की तरफ मोड़ दिया है। अपने ढाचें में अधिकार देने की अपेक्षा चर्च नेतृत्व ‘ईसा मसीह’ के सिंद्वातों को तंलाजली देते हुए इन करोड़ों वंचित ईसाइयों को पुन: उसी जातिवादी व्यवस्था में धकेल रहा है जिस से मुक्ति के लिए उन्होंने ईसाइयत/चर्च को चुना था।

जब भारत का संविधान बना तो संविधान निर्माताओं ने उन दलित वर्गो को आरक्षण उपलब्ध करवाया जो हिन्दू व्यवस्था में पीड़ित एवं शोषित थे। भारत की बहुसंख्यक हिन्दू जनता ने संविधान में मिले समानता के अवसर को अपने दलित भाईयों के पक्ष में कुर्बान कर दिया उस भेदभाव एवं मुआवजे के रुप में जो उनके पूवर्जो ने दलितों के साथ किया था।

हे धर्मपिता पोप बेनडिक्ट सोहलवें! क्या आपके प्रतिनिधियों को यह नैतिक अधिकार है कि वह चर्च/ईसाइयत पर गहरी आस्था रखने वाले इन नरीह लोगों की आस्था से विश्वासघात करें। जिन्होंने अपना र्स्वस्व ईसाइयत/ चर्च को दे दिया है। इनकी कहानी भी बिलकुल उस गरीब विधवा जैसी ही है जिसके बारे में ईसा मसीह ने अपने शिष्यों से कहा था कि मन्दिर की तिजौरी में सब अपनी अमदनी से डाल रहे है और इस गरीब विधवा ने अपनी घटी में से अपना र्स्वस्व डाल दिया है। (मार्क 12:41-44)

चर्च मुआवजा दें

चर्च का एक वर्ग निर्लज्जता-पूर्ण तरीके से अपनी नकामियों का ठीकरा दूसरों के सिर फोड़ रहा है। जब भारत का संविधान बना यह करोड़ों वचिंत चर्च के बाड़े में ही रहे। संविधान के तहत अल्पसंख्यकों को भी सरकार ने विशेष सहुलियते दी विशेष अधिकार दिये गये ऐसे कि जैसे अमेरिका या यूरोप में भी चर्च को नही मिलते। इन सुविधाओं और अधिकारों का पूरा लाभ उठाते हुए चर्च ने अपने साम्राज्वाद का बड़ा विस्तार किया है और अपनी इस सफलता में वह धर्मांतरित ईसाइयों को भूल गया है और अब वह इन करोड़ों लोगों द्वारा न्याय के पक्ष में उठाई जा रही आवाज को गलत दिशा देने में जुट गया है।

भारत की स्वतंत्रता के छह दशकों बाद उसे यह मांग करने का कोई नैतिक अधिकार नही है कि उसकी शरण में आये करोड़ों वचितों को पुन: जातिवादी व्यवस्था के दायरे में लाया जाये। अगर यह धर्मांतरित ईसाई चर्च की शरण में न गये होते या चर्च नेतृत्व ने उन्हें झूठे सपने न दिखाए होते तो आज वह भी अपने हिन्दू दलित भाईयों की तरह विकास की मंजिलें तय कर पाते।

भारत सरकार के बाद चर्च देश में ऐसी संगठित ईकाई है जो बढ़े पैमाने पर रोजगार उपल्बध करवाती है पर इसमें धर्मांतरित ईसाइयों की भागीदारी कितनी है ज्यादा से ज्यादा-वाहन चालक, रसोइया, कर्लक, चपरासी, गेट कीपर और वह वह उच्चजातिय बिशपों एवं पादरियों की दया पर। बंधुवा मजदूर जैसी।

करोड़ों धर्मांतरित ईसाइयों के साथ किये गये अन्याय एवं शोषण के बदले कैथोलिक चर्च उन्हें मुआवजा दे जैसे वेटिकन ने कई देशों में चर्च पदाधिकारियों द्वारा चर्च अनुयायियों के साथ की गई ज्यादतियों के बदले में दिया है।

नीतियों में बदलाव लाए चर्च

भारतीय चर्च ने शुरु से ही सुराक्षित व्ययपार को प्रथमिकता दी है। हजारों स्कूलों, कालजों एवं अन्य संस्थानों का निर्माण किया है। इसका लाभ चर्च नेतृत्व को तो मिला है पर धर्मांतरित ईसाई इसके लाभ से वंचित रहे है। यहां तक कि शिक्षा और स्वस्थ्य जैसे क्षेत्रों में जहां चर्च का एकाधिकार है वहां भी वह धर्मांतरित ईसाइयों को हिस्सेदारी देने में असफल रहा है। अब सहूलियते देने से काम नही चलेगा, वंचितों को शिरकत भी देनी होगी। चिंता यह है कि भारत की स्वतंत्रता के छह दशकों बाद भी हम अपने ढांचें (ईसाइयत) में सामाजिक परिवर्तन नही कर पाये जबकि सनातनी हिदू समाज में बड़े बदलाव हो रहे है। हिन्दू संगठनों के प्रयासों से दलितों के लिए मंदिरों के दरवाजे खोले जा रहे है। जातिवाद को समाप्त करने के लिए कई कार्यक्रम चलाये जा रहे है। हिन्दू दलित राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक रुप में लगातार आगे बढ़ रहे है जबकि धर्मांतरित ईसाइयों के साथ ऐसा नही है।

आपके नेतृत्व वाला चर्च उन्हें पीछे की तरफ धकेल रहा है वे आज भी चर्च में अपने अस्त्तिव की लड़ाई लड़ रहे है चर्च इन धर्मांतरित ईसाइयों को हिन्दू जातियों में शामिल करवाकर 300 मिलियन हिन्दू दलितों के बीच अपनी आसान घुसपैठ की राह तलाश रहा है। नहीं तो क्या कारण है कि चर्च को इनकी हर समास्या का समाधान हिन्दू दलितों की सूची में ही दिखाई देता है।

चर्च नेतृत्व का यह दयित्व है कि वह अपने ढांचे में विकास की प्रक्रिया को न केवल समान बनाए बल्कि वह ऐसी होती दिखाई भी दें। महज संरक्षण, कल्याण के लिए बनाई गई नीतियों या संस्थाओं का होना ही महत्वपूण्र् ा नही है ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इसका क्रियान्वयन कौन कर रहा है? जब तक धर्मांतरित ईसाइयों को जनसंख्या के अनुपात में चर्च संसाधनों पर ‘हक’ और ‘हिस्सेदारी’ नही मिलेगी तब तक उन्हे जाति व्यवस्था वाले समाज से वंचित और तिरस्कार करने की समास्याएं रहेगी।

हे धर्मपिता पोप बेनडिक्ट सोहलवें! प्रथम बिन्दु में मैनें धर्मांतरित इसाइयों की कुछ समास्याओं को उठाने का प्रयास किया है। भारत में कैथोलिक चर्च और उसके अनुयायियों के बीच का रिश्ता लोकतात्रिक मूल्यों पर आधारित नही है। चर्च के अंदर उच्च-जातीय लोगों को धर्मांतरित ईसाइयों की अपेक्षा आगे बढ़ने के अधिक अवसर रहते है। चर्च में धर्मांतरित ईसाइयों की स्थिति को देखते हुए इसमें कुछ मूलभूत बदलाव लाए जाने की जरुरत है। मौजूदा समय में बिशप ही चर्च की ‘कीपावर’ है और उसकी नियुक्ति आपके (वेटिकन) द्वारा की जाती है। वह कलीसिया की अपेक्षा वेटिकन के प्रति अपने उत्तरदायित्व को अधिक मानता है। अधिक्तर कैथोलिक ईसाइयों का मत है कि बिशप का चुनाव कलीसिया के प्रतिनिधियों द्वारा किया जाए। तांकि इस पद पर बैठे व्यक्ति को समुदाय के प्रति अधिक उतर-दयिक बनाया जा सकें।

धर्म-प्रचार पर उठते स्वाल और बढ़ता तनाव

भारत में ईसाई समुदाय की सुरक्षा को लेकर आपने हाल-ही में हिंदू समुदाय से आपील की कि वह ईसाई विरोधी घृणित कुप्रचार के खिलाफ खड़े हो और धार्मिक स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करें। आपकी यह चिंता स्भाविक है क्योंकि हाल के वर्षो में ईसाइयों का दूसरे धर्मो के अनुयायियों के साथ तनाव बढ़ा है। और कई स्थानों पर इसने हिंसक रुप अखतियार कर लिया है। 22 जनवरी 1999 को गा्रहम स्टेंट तथा उसके दो छोटे बेटों की हत्या का मामला हो या कंधमाल या किसी अन्य स्थान पर हुई हिंसा। भारतीय समाज ने सदैव जाति और धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा का विरोध किया है। भारत सरकार ने हर मामले में तत्परता से कार्यवाही की है और दोषी कोई भी हो उसे दंडित किया गया है। ऐसी हिंसा की जांच के लिए कई आयोगों का भी गठन किया गया जिनकी रिपोर्ट भी चौकानी वाली है।

भारत पूरे विश्व में ‘विधिवता में एकता, सभी धर्मो के प्रति आदर तथा अलग अलग धर्मो के लोगों के बीच परस्पर सहनशीलता, सहअस्तिव की भावना की दृष्टि से गौरवशाली एवं अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करता है।’ भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय की विचारधारा में असहिष्णुता के लिए कोई स्थान नही है यहां प्रत्येक नागरिक एक दूसरे के धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का सम्मान करता है।

ईसाई समुदाय के प्रति घटी दुर्भग्यपूर्ण घटनाओं की जांच के लिए सरकार द्वारा गठित विभिन्न आयोगों ने इसके पीछे चर्च के साम्राज्यवादी रैवये की तरफ भी इशारा किया है ऐसा ही मत देश का सुप्रीम कोर्ट भी व्यक्त कर चुका है। ईसाई मत के प्रचार के लिए अपनाए जा रहे तरीकों और दूसरों की आस्था में अनावश्यक हस्तक्षेप तनाव बढ़ाने के बड़े कारण है जिसे हम खुद रोक कर सौहार्द का वातावरण तैयार कर सकते है।

भारत में चर्च को पूरी स्वतंत्रता

भारत के संविधान के तहत यहां चर्च/ईसाइयों को विशेष अधिकार प्राप्त है ऐसे अधिकार जो यूरोपीय चर्च को भी प्राप्त नही है। सरकार हिन्दू, मुस्लिम, सिख व अन्य धर्मो के मामले में कहीं न कहीं अपना हस्तक्षेप करती है। उदाहरण के लिए मुस्लिम समाज की संपातियों की देखभाल वक्फ बोर्ड के माध्यम से होती है जिसकी नियुक्ति सरकार करती है, सिख समुदाय में धार्मिक प्रचार-प्रसार एवं धार्मिक संस्थानों के संचालन का कार्य करने वाली समीति का चुनाव भी भारतीय कानूनो के तहत ही होता है। हिन्दू समुदाय के बड़े मन्दिरों की आय पर सरकार अपना नियत्रंण रखती है और उसे अपनी इच्छा से समाज के वंचित वर्गो के उत्थान पर खर्च करती है।

भारत में ईसाई समाज ही ऐसा समाज है जिसके धार्मिक मामलों में सरकार का कोई हस्तक्षेप नही है। चर्च की प्रमुख ईकाई बिशप की नियुक्ति आप/वेटिकन कर रहा है चर्चो की अपार धन-संपदा पर पादरियो/बिशपों और वेटिकन का एकाधिकार है हालांकि यूरोप के कई देशों में वहां की सरकारे चर्च संपत्तिा पर अपना नियत्रंण रखती है। भारत एक ऐसा देश है जहां चर्च को पूरी धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त है।

 

साप्रदायिक सौहार्द के लिए धर्म-प्रचार की नीति की समीक्षा जरुरी

वेटिकन द्वारा संचालित बहुधर्म संवाद परिषद (पोंटीफिसिकल काउंसिल फॉर इंटररिलीजियस डायलाग) ने हाल-ही में भारत के बारे में धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रश्न खड़ा किया है वेटिकन का इशारा कुछ राज्य सरकारों द्वारा धर्मांतरण्ा विरोधी बनाए गये कानूनों की तरफ है। कि इस कारण धर्म प्रचारकों को काम करने में दिक्कत आ रही है। वेटिकन को समझना चाहिए कि भारत का संविधान किसी भी धर्म का अनुसरण करने की आजादी देता है उसमें निहित धर्मप्रचार को भी मान्यता देता है। समाज सेवा की आड़ में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और वंचित वर्गो के लोगों के व्यवस्थित तरीकों और व्यापक स्तर पर धर्म-परिवर्तन को धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में उचित नहीं कहा जा सकता। धर्मप्रचार और धर्मांतरण के बीच एक लक्ष्मण रेखा भी है। यदि धर्मांतरण कराने का प्रमुख उदे्श्य लेकर घूमने वाले संसाधनों से लैस संगठित संगठनों को खुली छूट दी जाए तो राज्य का यह कत्वर्य बन जाता है कि वह इसमें हस्तक्षेप करें। क्योंकि जहां भी अधिक संख्या में धर्मांतरण हुए है, सामाजिक तनाव में वृद्वि हुई है।

इसी वर्ष 27 अक्तूबर को इटली के असीसी में वेटिकन द्वारा विभिन्न धर्मो के प्रमुखों की बुलाई गई बैठक में भारतीय प्रतिनिधियों ने भी आपका/वेटिकन का ध्यान धर्मांतरण की तरफ आर्किषत किया है। वेटिकन द्वारा जारी अपील से सौहार्द का वातावरण तलाशने में बड़ी भूमिका चर्च की ही है।

धर्मांतरित ईसाइयों का विकास हो चर्च का लक्ष्य

हे धर्मपिता पोप बेनडिक्ट सोहलवे! सैद्वांतिक रुप से ईसाइयत बराबरी की पक्षधर है और सबको बराबर के अवसर देने की वकालत करती है। लेकिन कैथोलिक चर्च के अंदर जातीय भेदभाव इस सिंद्वात को व्यवहार में लागू नही होने देता। सिर्फ यह बाते हिन्दू धर्म से वंचितों के धर्मांतरण के समय ही कही जाती है लेकिन हकीकत यह है कि धर्मांतरित हो जाने के बाद इन लोगों की स्थिति पहले से भी ज्यादा खराब हो जाती है, जिसका ज्रिक मैंने ऊपर किया है। भारत की स्वतंत्रता के पूर्व और बाद में चर्च ने अपने साम्राज्य का कितना विस्तार किया है और उसके इन अनुयायियों का जीवन स्तर कितना विकसित हुआ है इस पर एक श्वेत-पत्र लाया जाना चाहिए तांकि सत्य लोगों के समक्ष आ सकें।

भारतीय चर्च समाज सेवा के नाम पर और अपने इन अनुयायियों के विकास के नाम पर प्रति वर्ष हजारों करोड़ का विदेशों से अनुदान प्राप्त करता है पर इसके बावजूद उसके अनुयायियों की स्थिति आज भी ऐसी ही क्यों बनी है यह सोचने की बात है।

दलित ईसाइयों के संगठन ‘पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट’ का मानना है कि चर्च पदाधिकारी अपने किसी भी लाभ तथा सुविधाजनक सर्वश्रेष्ठता को किसी भी कीमत पर छोड़ना नही चाहते इस कारण धर्मांतरित ईसाइयों की स्थिति वैसी ही बनी हुई है। जिस तरह की व्यवस्था चर्च में चल रही है उससे भविष्य में भी धर्मांतरित ईसाइयों की बेहतरी की कोई किरण दिखाई नही दे रही क्योंकि पारंपरिक रुटीन गैर बराबरी वाले ढांचे की है इसलिए यह सोचना कि इस ढांचे में चीजें बदलेगीं। वैसी ही उम्मीद है, जैसे शुक्ल पर्व की परेवा, में पूरे चांद का सप्ना देखना। इस लिए भारत के धर्मांतरित ईसाइयों का आपसे आग्रह है कि चर्च ढांचे में बदलाव के लिए ठोस कदम उठायें जाए। धन्यावाद!

ख्रीस्त में आपका

(आर. एल. फ्रांसिस)

राष्ट्रीय अध्यक्ष, पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट

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