दलित साहित्य मनुष्य को मानव बनना सिखाता है

               पिछले कुछ दशकों पहले साहित्य के अथाह, असीम सागर में एक ऐसा बवंडर-तूफान आया, जिससे अबतक से सारे मापदंड तहेस-नहेस हो गए | उसने अपना dalitस्थान सम्पूर्ण विश्व सहित्य के पटल पर नीले अक्षरों से अंकित कर दिया | वह था, परम्परागत साहित्य में जन्मा मैला, कुचैला, उपेक्षित, दबा हुआ दलित विमर्श का बालक | यह बालक जब सम्पूर्ण स्वानुभूति, सत्याभिव्यक्ति के साथ साहित्य में बड़ा हो रहा था | तब सारा दलित विरोधी समाज और साहित्य सकपका गया था | उसके सामने अपने-आप को सरेंडर करने के सिवाय और कुछ बचा ही नही था | आज यह बालक जवान से प्रोढ़ बन गया है | आज के साहित्य में दलित विमर्श का दौर, आन्दोलन जन मानस में स्थायी रूप में चल पड़ा-सा है | सभा, सम्मेलन, संगोष्ठी, पाठ्यक्रम, कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, आलोचना, एकांकी, नाटक चहू ओर उसने सदियों से भोगे हुए अपमान, दर्द, पीड़ा, उपेक्षा, घृणा को विद्रोह के तीक्ष्ण हत्यार से कटु एवं पत्थर हृदय पर प्रहार कर उसे संवेदनशील बनने के लिए विवश कर दिया है |

 

             भगवान गौतम बुद्ध, डॉ.बाबा साहेब आंबेडकर, महात्मा फुले, शाहु महाराज जैसे महामानवों के विचारों-दर्शनों से प्रभावित कई हस्ताक्षरों ने दलितों के अपमान, घुटन, पीड़ा, दर्द, शोषण, अभाव, दुत्कार, धिक्कार, लाचारी, विवशता, मज़बूरी, दरिद्रता, भूख, आदि के जीवंत दृश्य उपस्थित कर आज के प्रत्येक पाठक एवं समाज के मन में मानवीयता की संवेदना जगाने में बहुत हद तक सफल हुआ है | जिसने भी अबतक के साहित्य से हटकर दलित साहित्य पढ़ा उसका ब्रेन वाश अपने-आप हो गया | दलित साहित्य मानव को मानव समझते, भाई-बन्धुता की शिक्षा देता है | यह सबकुछ संभव हो सका दलित विमर्श के आन्दोलन, आक्रोश, विद्रोह से …..| जिन महान विभूतियों ने दलित दृश्यों को पूरी ईमानदारी और सच्ची भोगी हुई अनुभूतियों को जीवित किया  उन्हीं में  डॉ.बाबा साहेब आंबेडकर,  जप्रकाश कर्दप,  मोहनदास नैमिषराय, ओमप्रकाश वाल्मीकि,  प्रो.दामोधर मोरे,  दयानंद बटोही,  सुशीला टाकभोरें, कौशल्या बैसंत्री, प्र.ई.सोनकाम्बले, कालीचरण सनेही, मलखानसिंह, प्रदीप कुमार आदि का नाम यहाँ नीले अक्षरों में अमिट पुस्तक के पन्नो पर अंकित किया जा सकता है |

             डॉ. बाबा साहेब अम्बेडर जी ने विद्रोह का बिगुल बजाते हुए कहा, ‘’ जो धर्म जन्म से एक को श्रेष्ठ और दूसरे को नीच बनाये रखे, वह धर्म नहीं, गुलाम बनाएं रखने का षड्यंत्र है |’’१

दलित जो दोहरी गुलामी का शिकार रहा, जिसे मानव होकर भी कभी मानव समझा ही नही गया था | उसने सदियों के गुलामीवाले मानसिकता के जंजीरों को तोड़ते हुए सनातन धर्म को विद्रोह की चेतावनी दे डाली, ‘’ जनाबे अली, न हम गुलाम थे, न हम गुलाम है और ना ही हम गुलाम रहेंगे |’’२ उसके भीतर का हिन्दू धर्म के प्रति आक्रोश नफरत के रूप में फुट पड़ा,

‘’ जितनी नफरत मैं आज करता हूँ हिंदुत्व से

वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद से

काश कि उतनी ही करते मेरे पिता |

काश |

काश मेरे पिता के पिता और उनके पिता भी

और पूर्वजों की एक लम्बी परम्परा होती मेरे पास

अब मैं महज शूद्र कहकर ख़ारिज न कर दिया जाता

तब शर्म और करुणा न होती

अपने पूर्वजों और अपनी जाति पर

आज गर्व होता मुझे इंसान होने पर

और इंसानियत की नई ताबीर लिखता मैं

हिन्दू होना एक नकली इतिहास को

अपने खून में ढोना है

मनुष्यता की विकृत परिभाषाओ को

अवचेतन में वास्तविक मानना |’’३

दलित,………. शिक्षा के अस्त्र से सबल बन गया और उसने हिन्दू धर्म के ईतिहास को नकली मानते हुए उसे ढ़ोने से इंकार कर दिया | उसने इतिहास में हुए दलितों के साथ षड्यंत्र, दुजाभाव तथा पक्षपात को देखा और उसमे आक्रोश, विद्रोह की क्रोधाग्नि प्रज्वलित हो गई तथा उसने इसका विरोध करते हुए सरेआम कहा,

‘’ मर्यादा के नाम पर / शम्बूक का वध

उजागर करता है / उस व्यवस्था के घृणित

चेहरे को / जिसमें दलित विकास के

अवसरों को / दमनकारी सत्ता द्वारा /

कुचलने का रचा गया षड्यंत्र |

मर्यादा के नाम पर / धनुषधारी एकलव्य को

व्यवस्था की कुटिल चालों दवारा / गुरु भक्ति के

नाम पर / छला गया / मर्यादा के नाम पर

अंग नरेश कर्ण / दानवीर होने पर भी /

सूत पुत्र ही कहलाये / मर्यादा के नाम पर

कवि शिरोमणि  तुलसी ने / शुद्र, पशु और

नारी को / ताडन का अधिकारी बनाया /

मर्यादा के नाम पर / मनु के आदेश ने /

दलितों के विकास के / बंद किये सभी दरवाजे /

मर्यादा के नाम पर / अस्पृश्यता का समर्थन /

शास्त्र सम्मत ठहराकर / प्रवेश निषेध की

तख्ती / मंदिर के द्वार पर लटका दी |’’ ४

दलित समाज एवं साहित्य ऐसे धर्म को झुठला देता है, जो पक्षपात की राजनीति करता है | अपनी सहुलियत के मार्ग का सृजन कर…. उस पथ पर चलनेवालों के विरोध में कलम उठाता है | और एक-एक घाव का, जख्म का बदला लेता है | दलित साहित्यकार बाबा के मार्ग पर चलता हुआ……. दलितों के दुखों, व्यथाओं को साहित्य के माध्यम से व्यक्त करते हुए, मानवता का संदेश भी देता है | डॉ.बाबा साहेब अम्बेडकर जी ने यही संदेश देते हुए कहा था,

‘’ हमारे देश में उपेक्षितों और दलितों की बहुत बड़ी दुनिया है | इसे भूलना नहीं चाहिये | उनके दुखों को, उनकी व्यथाओं को पहचानना जरुरी है और अपने साहित्य के द्वारा उनके जीवन को उन्नत करने का प्रयत्न करना चाहिए | इसी में सच्ची मानवता है |’’ ५

             दलित साहित्यकार अपने साहित्य के माध्यम से भोगे हुए सत्य को ईमानदारी के साथ निडर होकर अभिव्यक्त करता है | उसने दलितों के प्रत्येक आँसुओं को, दर्द और पीड़ा को, अपमान के घूंटों कों, खून-पसीने को, चुभन को, अंत:पुकार को, पूरी संवेदना के साथ उजागर किया है | जब दलितेत्तर जातियाँ दलित के इस दर्द को नहीं समझ पाती ऐसे समय साहित्यकार उसे दलितों के आँसुओं, दर्द, पीड़ा से अनुभूत कराना चाहता है | उसे दलित की जिन्दगी जीने के लिए ललकारते हुए कहता है,

‘’ सुनों ब्राह्मण /हमारे पसीने से /

बू आती है तुम्हें / फिर ऐसा करों /

एक दिन  / अपनी जनानी को /

हमारी जनानी के साथ / मैला कमाने भेजों /

तुम ! मेरे साथ आओ / चमड़ा पकायेंगे /

दोनों मिल बैठ कर |

मेरे बेटे के साथ / अपने बेटे को भेजों /

दिघडी की खोज में |

और अपनी बिटिया को / हमारी बिटिया के साथ /

भेजो कटाई करने / मुखिया के खेत में /….६

जब-जब दलित इंसान बनकर जीने की कोशिश करता है | तब-तब उसे उसकी जाति याद दिलायी जाती है | प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष | आज हम आपने-आपको चाहे जितना पढ़ लिखकर सभ्य माने पर जाति आज भी कहीं न कहीं जीवित है | वह प्रत्येक क्षण स्मरण करवाते रहता है | अपने घृणित, तुच्छ कृतियों द्वारा ..| आज जाति खत्म होने के बजाय दलित कवि डॉ. अनिल सूर्या को विषैला रूप धारण करते हुए दिखायी देती है, वे ‘जातीयता’ कविता में कहते है,

‘’ उसने कहा-जातीयता नष्ट हुई

मैंने कहा- और बढ़ी

उसने कहा-यह आरोप है

मैंने कहा- सत्य है

वह कहता ही गया … कहता ही गया

ऐ दोस्त !

 पहले प्रत्यक्ष थी अब अप्रत्यक्ष है

पहले अशिक्षित थी अभी शिक्षित है

पहले पेट में छुरा घोप्तें थे

अब पीठ पर वार होता है

पहले की अपेक्षा यह पौधा अधिक विषैला है

हाल वही केवल चाल बदली है

विष वही केवल आवरण बदले है

डंक वही केवल दांत बदले है

वार वही केवल हाथ बदले है |’’ ७

                अस्पृश्यता, जातीयता का दंश इतना भयानक है कि इसमें मनुष्य की पूरी की पूरी जिन्दगी विश्रंखल बनने की संभावना रहती है | यह मानव के मन और तन को पंगु बना देता है | हीनताबोध से प्रगति को ओर अग्रेसर होनेवाले को रोकता हैं | अस्पृश्यता का शिकार दलित समाज आज भी ऐसी भयानक, नृशंस, घृणित मार्ग से गुजरता हुआ नजर आता है | भोतमांगे प्रकरण हो या गवली बंधुओं की आँखे फोड़ना हो या सरे आम विवस्त्र घुमाना, गुप्त अंगों को काँटों से छेदना, काटना, जलना जैसे भयंकर अमानवीय कृत्यों का दलित समाज कवि दामोधर मोरे जी की कविताओं में दिखाई देता है | कवितायेँ पढ़ते समय आँखों में एक साथ आँसुओं की धारा और क्रोधाग्नि फूट पड़ती है | सहृदय, संवेदनशील अपनी मुट्ठियों को भीच कर कठोर प्रहार किये बिना रह ही नही सकता | अस्पृश्यता दलित समाज को मिला हुआ एक अभिशाप है | जिस कारण हजारों वर्षों से न जाने कितने घर जलाये गये, बर्बाद हो गये | हत्या-खून सबकुछ होकर भी दलितों पर अत्याचार करनेवाला समाज तृप्ति की डकार भी नही लेता है, तब दामोधर मोरे जैसा कवि अस्पृश्यता को विष से भी भयानक मानते हुए ‘’अस्पृश्यता का डंक’’ कविता में कहता है,

‘’ पेड़ ने नागिन से पूछा :

  ‘’ तुमसे भी जहरीला कौन है …?’’

नागिन बोली

‘’अस्पृश्यता मुझसे भी जहरीली है …?

 पेड़ ने पूछा :

‘’वह कैसे …?

वह बोली :

‘’क्योंकि अस्पृश्यता

एक ही बार हजारों को डंसती है |’’ ८

               कवि जब अस्पृश्यता के जहर से आहात होता है, तब वह अस्पृश्यता, जातिभेद की सीमाओं को टूटते हुए देखना चाहता है | वह चाहता है कि समाज में न कोई जाति हो ना ही कोई जाति का बंधन | ना ही वह दलित विरोधी समाज से बदला लेना चाहता है | बल्कि वह इंसानियत की स्थापना करना चाहता है | वह सवर्ण-अवर्ण, जातिवाद को डुबो देना, जला देना चाहता है | जलाकर इंसानियत का झरना प्रत्येक क्षेत्र में बहाना चाहता है | वह

‘’ इंसानियत के लिए ‘’ कविता में कहता है,

‘’ झरनों…/ तुम क्यों बहते नहीं

एक जाति से दूसरी जाति तक …|

नदियाँ…! तुम क्यों बहती नहीं

सवर्ण की बस्तीसे …अवर्ण की बस्ती तक ?

तूफान …!

तू जोर से क्यों आता नहीं ..?

जातिवाद के जहाजो को क्यों डुबाता नहीं ..?

सूरज …! तू क्यों इतना सुलगता नहीं …?

कि दिल और दिमाग का जातिवाद जल जाए …!

और बहता रहे

इंसानियत का झरना

इंसान से .. इंसान तक ..इंसानियत के लिए |’’ ९

यह कवि मात्र दलित इंसानियत की बात कहकर रुकता नहीं बल्कि दलित समाज और सवर्ण समाज में पनप रहे अंधश्रद्धा का विरोध भी करता हैं | अंधश्रद्धा, अनिष्ट रुढि-परम्परा केवल दलित ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण समाज को प्रगति के प्रवाह को रोकने का स्थिर कार्य करता है | इसीलिए ‘’सावित्री से सावित्री तक ‘’ कविता में स्त्रियों को अंधश्रद्धा से बहार आने का संदेश भी देता है-

‘’वटवृक्ष रोते-रोते बोला

भारतीय नारी अंधश्रद्धा में डूब रही,

यहीं बात मेरे मन में चुभ रही |’’ १०

कवि कोरी अंधश्रद्धा की बात कहकर रुकता नहीं बल्कि दलित समाज में अपने आप को लीडर, नेता, रहनुमा कहनेवाले झूठ का पर्दाफाश करते हुए, उन्हें वास्तविक मार्ग पर लाने के लिए संदेश देते है | वे ‘’अम्बेडकरवादी बिल्ली ‘’ कविता में कहते है-

‘’हर अम्बेडकरवादी /धधकता शोला है |

सत्ता की सेज पर चढ़े तो / बर्फ का गोला है |

जो भोंकते है / उसी के सामने फेंका जाता है |

पद का टुकड़ा / उसे चबाते …चखते रहने से

भौकना बंद हो जाता है |

मुँह में टुकड़ा होने की वजह से

अन्याय, अत्याचार के खिलाफ

वह भौंक नही सकता |

चबाने की आदत में

वह इतना हो जाता अँधा

अपने बन्धु-भगिनी की हो रही

प्रताड़ना को देख नहीं पाता |’’११

          दलित कवि समाज पर होनेवाले अन्याय अत्याचार तथा समाज के ढोंगी नेताओं की  सिर्फ पोल ही नहीं खोलता बल्कि उसकी दृष्टी अब दलित समाज से उठकर वैश्विक बन गई है | वह सही मायनो में दर्द, पीड़ा, शोषण, अपमान, उपेक्षा का रोना जिन्दगी भर नहीं रोना चाहता बल्कि वह इससे बाहर निकलकर मानवीयता, वैश्विकता की बात करना चाहता है |

सम्पूर्ण विश्व को गौतम बुद्ध का अहिंसा का पाठ पढ़ाना चाहता है | जब वह अनु-परमाणु बम, भीषण युद्ध, खून, मानव जाति के नाश की कल्पना करता है, तब उससे रहा नही जाता | वह विश्व को अपनी कविता के माध्यम से बुद्ध का संदेश देता हैं, 

‘’ स्फोटों से पोखरण की मिटटी

फूटफूटकर रो रही थी …
हिरोशिमा राग गा रही थी |

‘पोखरण को शक्तिपीठ मत कहो ‘

मिटटी रो रही थी / तब वे हँस रहे थे |

भविष्य में वे रोयेंगे / तब मिटटी हँसेगी |

सजग प्रहरी बुद्ध की पाषण प्रतिमा

न हँसेगी न रोएगी

अर्धनिमीलित नेत्रकमलों से

मानवता की खुशबू महकेगी |’’ १२   

              दलित कवि… दलित अस्मिता के प्रतिक बाबा साहेब अम्बेडकर जी को शतबार नमन करता है | उन्होंने सिखायें हुए मानवता, इंसानियत की वह भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए उनके प्रति अपने-आपको समर्पित करता हुआ दिखाई देता है | कवि दामोधर मोरे, ‘’ डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर’’ कविता में उनके संदेशों को अभिव्यक्त करते हुए कहते है,

‘’ मानवता की हिफाजत करने वाले

प्रहरी का नाम है अम्बेडकर

अछूत की नागिन को मिटानेवाले

गरुड़ का नाम है अम्बेडकर

इंसानियत की खुशबू फैलानेवाले

फूल का नाम है अम्बेडकर …|’’१३

तो नामदेव ढसाल जी ‘’डॉ.आंबेडकर ‘’ कविता में अपने जीवन को डॉ.बाबा साहेब अम्बेडकर जी की देन मानते हुए आपने आप को पूरी तरह समर्पित करते है,

‘’ आज जो कुछ भी हमारा है

सब तुम्हारा है

ये जीना और मरना

ये लफ्ज और जुबान

ये सुख और दुःख

ये ख़्वाब और सच्चाई

ये  भूख और ये प्यास

सब पुण्यकर्म तुम्हारे हैं |’’१४

         वस्तुत: दलित साहित्य दुःख, दर्द, उपेक्षा, पीड़ा, घृणा, अपमान, दरिद्रता, गुलामी से उत्पन्न आक्रोश को लेकर अमानवीय प्रवृतियों के विरोध में मानवता, प्रगति, समता, बंधुता, स्वतन्त्रता के लिए क्रन्ति का बिगुल बजाते हुए विद्रोह करता है | दलित समाज को भगवान गौतम बुद्ध, डॉ.बाबा साहेब अम्बेडकर , महात्मा फूल, शाहू महाराज जैसे महा मानवों के ‘’प्रेम, सत्य, अहिंसा, शिक्षा, संघर्ष, संगठन’’ जैसे प्रगल्भ  विचारों पर अग्रेसर करते हुए , दलित साहित्य में अभिव्यक्त विद्रोह,  दलित विरोधी समाज के मन में उथल-पुथल मचाता है | उसका ब्रेन वाश करते हुए, उसमें मानवीय संवेदनाओं को जगाता है | वह मनुष्य को मानव बनाता है | दलित समाज को जानवरों से भी बदत्तर मानने-व्यवहार करनेवाले समाज में मानव बनने की तमीज उत्पन्न करता है | पत्थर ह्रदय को पिघलाकर उसे पूरी तरह से मानव बनाता है | दलित साहित्य मनुष्य को मानव बनना सिखाता हैं |

 

संदर्भ :

१.  दलित अस्मिता, अंक-जुलाई-दिसम्बर-२०१२,पृष्ठ.१४५

२.  मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिषराय पृष्ठ.२८

३.  दलित अस्मिता-अंक-जनवरी-जून-२०१२,पृष्ठ.८७

४.  कविता-मर्यादा के नाम पर –डॉ.प्रदीप कुमार,दलित अस्मिता-

     अंक- जनवरी-जून-२०१२पृष्ठ.८१

५.  दलित अस्मिता, अंक-जुलाई-दिसम्बर-२०१२,पृष्ठ.६५

६.  कविता-‘’सुनो ब्राह्मण’’-मलखानसिंह -दलित अस्मिता,

     अंक-जुलाई-दिसम्बर-२०१२,पृष्ठ.४२

७.  दलित अस्मिता, अंक-जुलाई-दिसम्बर-२०१२,पृष्ठ.११०

८.  सदियों से बहते जख्म-प्रो.दामोधर मोरे पृष्ठ.८७

९.   सदियों से बहते जख्म-प्रो.दामोधर मोरे पृष्ठ.१३१

१०. सदियों से बहते जख्म-प्रो.दामोधर मोरे पृष्ठ.१४१

११. नील शब्दों की छाया में- प्रो.दामोधर मोरे पृष्ठ.६१-६२

१२. सदियों से बहते जख्म-प्रो.दामोधर मोरे पृष्ठ.१४२

१३.  नील शब्दों की छाया में- प्रो.दामोधर मोरे पृष्ठ.३९

१४.  दलित अस्मिता, अंक-जुलाई-दिसम्बर-२०१२,पृष्ठ.११४ 

 डॉ.सुनील जाधव, नांदेड, महाराष्ट्र 

 

1 COMMENT

  1. This difference between the people since birth or colour is absolutely very bad but how the politicians are exploiting this situation is very serious mainly now the Indian National congress has further divided the already divided people of Hindusthan. If we keep the politics out of this then there can be better understanding amongst the citizen
    and a healthy environment can be created to unite the people after all we have the common ancestry and our DNAs are same from Kashmir to Kaya kumari and Gujarat to Nagaland.
    All should be treated equally and provided facilities and opportunities , we should work for this to make the country strong where one is for all and all are for one.
    This a huge task and a long road to cover————-,

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