दंगों का व्याकरण / शंकर शरण

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images (2)विभाजन के बाद बचे कटे-छँटे भारत में भी सांप्रदायिक दंगों में सामुदायिक वाद-प्रतिवाद की वही कहानी है। दंगों की दबी-ढँकी रिपोर्टिंग, सरकारी जाँच और न्यायिक आयोगों की रिपोर्टें भी यही बताती हैं कि सांप्रदायिक हिंसा का आरंभ प्रायः मुस्लिमों की ओर से होता है। इस के उलट पाकिस्तान या बंगलादेश में कभी किसी हिन्दू द्वारा मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा या दंगे की कोई खबर, कभी नहीं आती। जबकि भारतीय संसद में प्रस्तुत गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में सन् 1968 से 1970 के बीच हुए 24 दंगों में 23 दंगे मुस्लिमों द्वारा आरंभ किए गए थे। रिपोर्ट को राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में भी रखा गया था। ऐसे सभी बुनियादी तथ्य चर्चा से बाहर रखे जाते हैं, ताकि दंगों पर मनपसंद राजनीतिक निष्कर्ष थोपे जा सकें।

वह कोई अपवाद अवधि नहीं थी। बाद के दंगों में भी वही हुआ है। अलीगढ़ दंगे (1978), जमशेदपुर (1979), मुरादाबाद (1980), मेरठ (1982), भागलपुर (1989), बंबई (1992-93) भी मुसलमानों द्वारा आरंभ किए गए। कारण भी प्रायः अनुचित। जैसे, किसी मुस्लिम अपराधी को पुलिस द्वारा पकड़े जाने की प्रतिक्रिया। यह सब न केवल हर कहीं स्थानीय जनता को मालूम है, बल्कि राजनीतिक किस्म के जाँच आयोग बनाने के बावजूद कई न्यायिक रिपोर्टों में भी यह दर्ज है। जैसे, जमशेदपुर दंगे की जाँच में जस्टिस जितेंद्र नारायण आयोग, तथा भागलपुर दंगे के बाद जस्टिस आर. एन. प्रसाद आयोग की रिपोर्टें। हाल का सबसे कुख्यात गुजरात दंगा (2002) भी गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में हिन्दू-दहन से ही शुरू हुआ। मगर इस तथ्य को महत्व नहीं दिया जाता। किन्तु सदैव एक ही समुदाय द्वारा हिंसा या दंगे आरंभ करने के बाद भी उसी को पीड़ित बताना, केवल इसलिए क्योंकि प्रायः बड़े दंगों के शान्त होने के बाद संपूर्ण मृतकों में उसकी संख्या अधिक रही, एकदम गलत व्याकरण है। इस से दंगों पर विमर्श राजनीतिक प्रोपेगंडा में बदल कर रह जाता है।

अधिकांश विमर्श में बनाव-छिपाव चलता है। अभी-अभी एक जेएनयू प्रोफेसर ने लिखा है कि “हर बार एक समुदाय के कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा आपराधिक हरकत के लिए उस पूरे समुदाय को दंडित करने का काम आहत समुदाय के असामाजिक अपराधी अपने हाथ में ले लेते हैं।” ध्यान दें, इस में भी परोक्ष रूप से नोट किया गया है कि एक समुदाय विशेष ही हिंसा का आरंभ करता है। मगर सचाई यह है कि ‘हर बार’ ऐसा नहीं होता। साधारण, समान्य लोग भी आक्रोश और प्रतिशोध में निर्मम हिंसा करते हैं। इस कड़वी सचाई से कतराकर, सभी वास्तविक पहलुओं पर खुली चर्चा न करके लीपा-पोती करते अधकचरा छोड़ दिया जाता है।

इस पलायनवादी प्रवृत्ति से कोई भला नहीं हुआ है। दोनों समुदाय के दंगाइयों को ‘अपराधी तत्व’ कहकर सपाट उपदेश देना फिजूल है। निर्दोष मृतकों का अपमान और दंगे के कारणों का छिपाव भी। जिस का अंतिम परिणाम यह होता है कि मूल दोष और दोषी बचे रहते हैं। उन्हें चिन्हित करने के बजाए बचाया जाता है। तब स्वभाविक है कि उन्हें अपनी गलती कभी नहीं दिखती। वे आगे फिर वही करने के लिए नैतिक रूप से तैयार रहते हैं। यह इसीलिए होता है क्योंकि सांप्रदायिक हिंसा का हिसाब दिखाने में ही नहीं, बल्कि इस पर संपूर्ण विमर्श में राजनीति चलती है। सामाजिक, राष्ट्रीय हित नहीं देखा जाता। तब क्या आश्चर्य कि बीमारी छिपी रहे, और समाधान भी सदा की तरह दूर रहे।

बुद्धिजीवियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दू और मुस्लिम इस देश में सदियों से एक दूसरे को देख, समझ और भुगत रहे हैं। फिर दोनों ही दुनिया में और देशों में, और अन्य समुदायों के साथ भी रह रहे हैं। उन दूसरों, तीसरों के साथ इन समुदायों का कैसा आपसी संबंध है, उन के बीच किस तरह की घटनाएं घटती या नहीं घटती, यह सब भी यहाँ दंगों की आपसी या तुलनात्मक समझ को प्रभावित करता है।

आप्रवासी हिन्दू बड़ी संख्या में अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका और दक्षिण एसिया के कई देशों में लंबे समय से रह रहे हैं। उन्हें कहीं भी झगड़ालू समुदाय के रूप में नहीं देखा जाता। जबकि मुस्लिम समुदाय का दुनिया के हर देश में दूसरे समुदाय से विशेषाधिकारी झगड़े, हिंसा और संदेह का संबंध है। सिंगापुर छोड़कर शायद ही कोई देश है जहाँ मुस्लिम समुदाय से दूसरे समुदाय का अदावती संबंध न हो। तो क्या सारी दुनिया में अन्य सभी समुदाय गलत हैं, और केवल मुस्लिम ही हर कहीं सही हैं? सेटेलाइट टेलीविजन और इंटरनेट के कारण सभी लोग ततसंबंधी सचाईयों को जानते, देखते और परखते रहे हैं। क्या इस बात का हमारे यहाँ सांप्रदायिक दंगों का यथार्थ समझने से कोई संबंध नहीं?

हमारे ‘जिम्मेदार’ लोग गोधरा, किश्तवाड़, मराड या मऊ आदि अनगिन हिंसा की वास्तविक तफसीलों को छिपा या चुप्पी साध कर समझते हैं कि उन्होंने माहौल और बिगड़ने से बचा लिया। उन्होंने कभी ठंढे दिमाग से नहीं सोचा कि ऐसी तिकड़मों के बाद भी उन्हें इस बीमारी को खत्म करने में सफलता क्यों नहीं मिली है? कुछ लोग तो अपने विचारधारात्मक या दलीय राजनीतिक स्वार्थ में किसी विरोधी दल को बदनाम करने के लिए जान-बूझ कर आतंकवादियों तक का बचाव करते रहते हैं। वे या तो भूलते हैं, या इसकी कोई परवाह नहीं करते कि इस से सामुदायिक संबंधों पर बुरा असर पड़ता है।

नेताओं, नीति-निर्माताओं और बुद्धिजीवियों द्वारा विभिन्न प्रसंगों में सामुदायिक भेद-भाव का खुला प्रदर्शन करने वाले बयानों और प्रस्तावों की संबंधित समुदायों पर एक प्रतिक्रिया होती ही है। यदि उन से किसी समुदाय में क्षोभ पैदा हो, और उस क्षोभ का कोई निराकरण न हो, तो वह विविध प्रकार की अस्वस्थकर भावनाओं के रूप में एकत्र होता है। वह अनेकानेक लोगों के मन में या तो नये घाव बनाता है, या किसी पुराने घाव को बढ़ाता है। यह सब सांप्रदायिक सदभाव के विरुद्ध जाता है।

वस्तुतः भारत में हिन्दू-मुस्लिम दंगे समय-समय पर उन्हीं घावों का सम्मिलित रूप से फूट पड़ना है। विगत सौ वर्षों से चल रही इसी प्रक्रिया का एक परिणाम देश का खूनी विभाजन भी था। नेहरू ने मुस्लिम लीग की यही पहचान ही बताई थी कि वह ‘सड़कों पर हिन्दू-विरोधी दंगे करने के सिवा और कुछ नहीं करती’। जिन्ना ने भी पाकिस्तान बनाने में सफलता में दंगों की निर्णायक भूमिका मानी थी। इस प्रकार, नेहरू और जिन्ना, दोनों के ही अनुसार मुस्लिम लीग ने दंगों को अपने हथियार के रूप में राजनीतिक इस्तेमाल किया। किसी और ने तो नहीं किया!

तब क्या वह ऐतिहासिक सत्य आज बदल गया है? क्या आज मुस्लिम नेता अपनी चित्र-विचित्र माँगों के लिए कोई और तरीका या भाषा इस्तेमाल करते हैं? प्रायः वह माँगें दूसरे मुस्लिम देशों या अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों से जुड़ी होती हैं। परन्तु उन्हीं के लिए मुसलमानों को यहाँ दंगे करने के लिए कौन उकसाता है? यह सब विविध मीडिया में समय-समय पर सबको दिखाई देता है, चाहे हमारे प्रभावी बुद्धिजीवी और नेता इससे अनजान बनने की कोशिश करते हैं।

इसलिए खलीफत आंदोलन के समय से चल रही पुरानी बीमारी के कारण आज कुछ नए नहीं हो गए हैं। यह ऐसा जहजाहिर नजारा है, कि छिपाए नहीं छिप सकता। केवल राजनीतिक झक में उस पर पर्दा डालने की कोशिश की जाती है। मगर उससे बीमारी बढ़ती ही है। छिपती बिलकुल नहीं। न केवल भारत, बल्कि दूसरे देशों में भी एक जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति अंततः सबको सचाई का आभास दे देती है। छिपाव के प्रयासों से बल्कि गड़बड़ियाँ, जटिलताएं ही बढ़ती हैं।

भारतीय समाज में हिन्दू-मुस्लिम दंगों की बीमारी की यथावत उपस्थिति यही बताती है कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा। उलटे हमारे कर्णधार उसके लक्षणों, विवरणों, कारणों की लीपा-पोती करने में पूरी ताकत लगा देते हैं। जबकि न केवल इन दंगों, बल्कि सभी सांप्रदायिक हिंसा पर दुनिया भर में इतनी विस्तृत सामग्री उपलब्ध है, कि उन का वैज्ञानिक विश्लेषण सटीक उपचार स्वतः सुझाता है।

उस में प्रमुख बात यह है कि दंगों का मुख्य कारण और उसके दोषी उसे उकसाने वाले, आरंभ करने वाले और शामिल लोग नहीं – बल्कि वह मतवादी विचारधारा है जो अपने अनुयायियों में दंगे, हिंसा और विशेषाधिकार की मानसिकता को पोषण देती है। उनकी दिन-रात मगज-धुलाई (इनडॉक्ट्रिनेशन) करती है। इसे पहचानना कठिन नहीं है। न ही इसे परास्त करना। यह रोचक और सुखद बात है कि यदि इस मतवादी विचारधारा को खुली वैचारिक चुनौती दी जाए तो बिना किसी हिंसा के यह हिंसक मानसिकता धराशायी हो जाएगी! यह सचमुच आजमाने की चीज है।

उपर्युक्त बातों को कुछ लोग ‘किसी समुदाय के विरुद्ध घृणा फैलाना’ कहते हैं। उसके बदले अपनी ओर से नकली और मधुर बातें कह-कह कर सांप्रदायिक दंगों या जिहादी आतंकवाद को शांत करना चाहते हैं। ऐसे लोगों को बेल्जियन विद्वान डॉ. कोएनराड एल्स्ट का एक अवलोकन याद रखना चाहिए।

एल्स्ट ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दिख रहे इस रोचक तथ्य को रेखांकित किया है कि जो लोग इस्लामी मतवाद की आलोचना करते हैं, उन्होंने कभी एक भी मुसलमान को शारीरिक चोट नहीं पहुँचाई। जैसे रामस्वरूप, सीताराम गोयल, अरुण शौरी या एल्स्ट स्वयं। जबकि जो लोग इस्लाम को झूठे-सच्चे श्रद्धा-सुमन चढ़ाते रहते हैं, जैसे जॉर्ज बुश, टोनी ब्लेयर, ओबामा या याहया खान, अल कायदा, हिजबुल मुजाहिदीन, लश्करे तोयबा, आदि – उन्हीं लोगों ने लाखों मुसलमानों को मारा है। सीधा आदेश देकर, स्वयं भाग लेकर या दोनों तरीकों से। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, सीरिया, ईराक, यमन, बहरीन, आदि देशों में मुसलमान किनके हाथों मारे जा रहे हैं? इस तथ्य को नोट करना चाहिए, और वैचारिक संघर्ष का आह्वान करने वालों की नेकनीयती समझनी करनी चाहिए।

किसी विचारधारा के विरुद्ध कुछ कहना उस विचारधारा के अनुयायियों के विरुद्ध बोलने के समान नहीं है। इस्लाम और मुसलमान दो नितांत भिन्न चीज हैं। एक की आलोचना स्वतः दूसरे की भी नहीं मान ली जानी चाहिए। जैसे तीस वर्ष पहले मार्क्सवाद-लेनिनवाद की आलोचना करना रूसियों या चीनियों के विरुद्ध घृणा फैलाना नहीं होता था। आज इस्लामी राजनीतिक विचारधारा को किसी आलोचना से बचाने के लिए ओछी चतुराई का सहारा लेना बताता है कि वास्तव में गड़बड़ी ठीक यहीं है!

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  1. शंकर शरण जी द्वारा प्रस्तुत शोधपूर्ण निबंध में कोएनराड एल्स्ट के कथन, “जो लोग इस्लामी मतवाद की आलोचना करते हैं, उन्होंने कभी एक भी मुसलमान को शारीरिक चोट नहीं पहुँचाई। जैसे रामस्वरूप, सीताराम गोयल, अरुण शौरी या एल्स्ट स्वयं।” अवश्य ही केवल इस लिए सत्य नहीं कि यह बात कोएनराड एल्स्ट ने कही है बल्कि इस सत्य का प्रमाण हिन्दू संस्कृति में अतीत काल से जाना पहचाना गया है| दो से अधिक शतक में फिरंगी द्वारा हिन्दू मुस्लमान का शोषण होने के पश्चात अब किसी और अच्छे बुरे विदेशी हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है| भारत में हिन्दू मुस्लमान के बीच भेद भाव को स्वयं भारतियों ने भारतीय सन्दर्भ में निपटाना है| भारत में इंडियन नेशनल कांग्रेस की “धर्मनिरपेक्ष राजनीति” का घातक विष सदैव निर्दोष हिन्दू मुसलमानों की बलि लेता रहेगा| देश विभाजन के पश्चात हिन्दू सांप्रदायिकतावाद नव भारतीय समाज का आधार होना चाहिए था| यह हिन्दू धर्म है जो अनादिकाल से अल्पसंख्यक में मत भेद होते हुए नानक, महावीर, दयानंद, व अन्य साधू संतों और उनके अनुयायिओं का आदर सम्मान करता आया है| धर्मनिरपेक्षता वास्तव में सांप्रदायिकतावाद का विलोम शब्द नहीं है बल्कि सांप्रदायिक समाज में अच्छे बुरे आचरण का बोधक है| आज हिन्दू मुसलमान में राष्ट्र-द्रोही शक्तियों द्वारा आयोजित भेद-भाव में न उलझ उन निर्दोष नागरिकों का सोचना होगा जिन्हें सरकार ने उपयुक्त कानून और उनके उचित प्रवर्तन के अभाव के कारण द्वेष और घृणा की अग्नि में धकेल दिया है| वास्तव में दंगों का व्याकरण केवल भारतीय बुद्धिजीवी और राष्ट्र-द्रोही तत्वों को मल्ल-युद्ध में उलझाये हुए है| विडंबना तो यह है कि निर्दोष नागरिकों को इसकी भनक तक नहीं होती अन्यथा मोदी जी की “हुंकार” में जनसमूह उमड़ कर न उपस्थित हो पाता|

    सामान्य नागरिक को दंगों के व्याकरण का पाठ परस्पर समझते और समझाते हुए भारतीयों के लिए एक ही उपाय है कि वे आगामी चुनावों में १८८५ में जन्मी इंडियन नेशनल कांग्रेस को पूर्णतय परास्त कर देश में स्वदेशी सुशासन स्थापित करें|

  2. हिन्दू -मुस्लिम दंगो का इतिहास एक हज़ार वर्षों से पुराना है. हमारे लीडरान चिल्लाते
    हैं कि अंग्रेज़ों के पहले हिंदुओं और मुसलमानों में प्रगाढ़ मित्रता थी, लेकिन यह
    सरासर झूठ है. इसी समस्या को दूर करने के लिए देश का विभाजन किया गया. पर
    हमारे कुछ लीडरों के चलते, जैसे गांधी, नेहरू , आज़ाद अदि. अधिकतर मुस्लमान
    यहीं रह गए, और समस्या ज्यों कि त्यों रह गयी. अब सोनिया राज में मुस्लिमों को
    भरी तरजीह दिया जा रहा है. मुस्लिम आरक्षण का पूरा इंतज़ाम किया जा रहा
    है.

    हिंदुओं को गांधी, नेहरू और अन्य कांग्रेस लीडरों कि भूमिका का पुनर अध्ययन
    करना चाहिए. यह तो भारत का सौभाग्य था कि देश में पटेल, बोस, सावरकर,
    बारदोलई जैसे लीडर हुए, जिन्हों ने भारत कि अखंडता को बनाये रखने कि पूरी
    कोशी कि. नहीं तो हैदराबाद बे संजुक्ता राष्ट्र में फंसा रहता.

  3. This has been going on since late 7th. century in Hindusthan by Muslims and it is a permanent problem and it will continue until the end of the world.
    We had a golden opportunity in 1947 but Gandhi and Nehru betrayed Hindus and Hindusthan as the country was divided on two nation theory and was divided on the basisi of Hinduism and Islam.
    Ambedkar’s advise in 1946 was ignored who had strongly suggested that on partition there must be total and complete exchange of Hindu and Muslim population otherwise it will bad for Hindusthan.
    We are suffering because of Nehru’s foolishness and weakness by keeping Muslims in India.
    This can all change and improve if our leaders give up the politics of appeasement of Muslims or the citizens defeat and uproot Congrses and UPA for a change.
    This must change in 2014, let us work for this.

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