के. विक्रम राव
राष्ट्रवादी दारूल उलूम में हो रही घटनाओं से सेक्युलर भारत देवबन्द के प्रत्येक हितैषी को सक्रिय सरोकार होना चाहिए। पाकिस्तान का पुरजोर विरोध करनेवाली इस इस्लामी संस्था को चन्द कट्टर महजबी लोगों की सनक तथा फितरत पर नहीं छोड़ा जा सकती है। दारूल उलूम के नवनियुक्त कुलपति मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को कुछ मुल्लाओं ने गुनहगार करार दिया है। उनकी बर्खास्तगी का अभियान चलाया है। कैसे घोर पाप किये हैं वस्तानवी ने? कुलपति बनने के एक सप्ताह में ही वे महाराष्ट्र के एक सार्वजनिक समारोह में अतिथि के रूप में शामिल हुए तथा आयोजकों के आग्रह पर युवाओं में गणेश की मूर्ति वितरित की। उलूम के उन्होंने सुधारवादी कार्यक्रम में उल्लेख किया कि फतवा जारी करनेवाले साहित्यिक विभाग की समीक्षा करेंगे, ताकि उसके निर्देशों में गंभीरता आये, हास्यास्पद विवाद न उठे। विकास योजनाओं में उनका प्रयास होगा कि इंजिनियरिंग, मेडिकल, कम्प्यूटर आदि विषयों को पाठयक्रम में समावेशित किया जाये ताकि धार्मिक शिक्षा के साथ जीवन की चुनौतियों का छात्र सामना कर सकें। आज दारूल उलूम के छात्र किसी गांव अथवा कस्बे की मस्जिद में पेशे इमाम बनकर रह जाते हैं। वस्तानवी की राय है कि मुस्लिम युवाओं को सरकारी नौकरियां, गुजरात को मिलाकर, हासिल करनी चाहिए। गुजरात के संदर्भ में उन्होंने कहा कि विकास की धारा में बहते गुजरात में अब हिन्दु-मुस्लिम में भेदभाव नहीं है। बस इस सादे से बयान को विकृत कर हिन्दीभाषी क्षेत्र के मुल्लाओं ने गुजरात के इस उदारवादी शिक्षक पर हल्ला बोल दिया। मानो तीन हजार छात्रों को वे अधार्मिक बना डालेंगे। वस्तानवी अभी सूरत शहर के पास अपने अक्कलउवा मदरसे के दो लाख छात्रों को आधुनिक और इस्लामी शिक्षा दे रहे हैं। कुरान के अध्यन के साथ तकनीकी ज्ञान में माहिर बना दिया है। मुल्लाओं ने वस्तानवी पर इल्जाम लगाया है कि दीनी तालीम को गौण बनाया है। अर्थात् कयामत के दिन अपने गुनाहों के बारे में वस्तानवी अल्लाह को सफाई देना होगा तो क्या कहेंगे वे? वस्तानवी तब पैगम्बेर इस्लाम की बात कहेंगे कि यदि इल्म सुदूर चीन में मिलता है तो चीन भी जाओ। इसलिए दीनी तालीम तथा इल्म में वस्तानवी सामंजस्य बैठा रहे हैं।
मगर वस्तानवी के खिलाफ अभियान चला है कि उन्होंने परम्पराओं, रूढ़ियों, व्यवस्थाओं, आस्था के नियमों, पुराने तौर-तरीकों आदि को तोड़ने का अपराध किया है। उन्हें ”हत्यारे” नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के प्रशासन को अच्छा कहने का दोषी मानते हैं। हालांकि न तो कोई दस्तावेजी प्रमाण है और न उनके कोई विरोधी दिखा ही पाये कि वस्तानवी ने कहीं मोदी की श्लाघा की हो। सूरत शहर में ”टाइम्स ऑफ इंडिया” के संवाददाता से एक लम्बे इन्टरव्यू (25 जनवरी) में उन्होंने केवल एक वाक्य कहा कि गुजरात सरकार अल्प तथा बहुसंख्यकों में भेदभाव नहीं कर रही है। बस वस्तानवी पर सितम और कहर टूट पड़े कि गोधरा में आठ वर्ष पूर्व लाशे बिछानेवाले की सरकार को अच्छा कैसे कह दिया। खैर इस संवेदनशील मुद्दे पर चर्चा होगी, यहां सिलसिलेवार ढंग़ से उन सारे आरोपों का विश्लेषण को जो वस्तानवी पर जड़े गये हैं।
कटघरे में दारूल उलूम के कुलपति को खड़ा करें। पहले आती है बात उनके द्वारा गणेश की मूर्ति के वितरण की जिसे मुल्लाओं ने अधार्मिक कहा है। सवाल है कि क्या सेक्युलर गणराज्य में दूसरे की आस्था का आदर करना पाप है? मूर्ति की व्यक्तिगत उपासना करना वर्जित हो सकता है, पर सार्वजनिक गैर-धार्मिक समारोह में शिरकत करने मात्र से कोई भी मुसलमान गुनहगार नहीं हो सकती है। वर्ना गंगा-जमुनी तहजीव के क्या मायने हैं? समाचारपत्र सुर्खियों में प्रकाशित करते हैं कि फलाना गांव में मुसलमानों ने मन्दिर का निर्माण कराया, होली-दीपावली साथ मनाई आदि। गणेश प्रतिमा बांटना भी इसी सांझा तहजीब का हिस्सा होगी। तो मुल्ला लोग इस बात को स्वीकार कर वस्तानवी को मूर्ति पूजक तो नहीं कहेंगे? धार्मिक समभाव के नाम पर, सौहार्द के लिए यदि मौलाना ने थोड़ी देर के लिए किसी प्रतिमा को हाथ लगा दिया तो क्या कहर बरपा? हिन्दू लोग मजारों पर मत्था टेकते है। चादरें चढ़ाते हैं, ईद बकरीद के नमाज में शरीक होते हैं। मजहबी संबंध और व्यवहार इकतरफा नहीं हो सकता है, ताकि तनाव और दंगों का खात्मा हो सके। अब यदि छोटी बात को तूल दिया जाये, गणेश की प्रतिमा के मसले पर गुनहगार मान लें तो कट्टरता पनपेगी।
मौलाना वस्तानवी पर अगला आरोप है कि वे दारूल उलूम के फतवा विभाग पर नियंत्रण करना चाहते हैं। समीक्षा द्वारा मजहवी सौम्यता लाने के नाम पर अव्यवस्था कर देंगे। यूं भी भारतीय भाषाओ के पत्रकार अक्सर फतवा की खबर को सनसनीखेज बना देते हैं। टीवी चैनल वाले तो टीआरपी के बढ़ाने और विज्ञापन से मुनाफाा बटोरने की ललक में फतवा को संदर्भ से तोड़कर पेश करते हैं। मीडिया से अपेक्षा की जाती है कि संयमित शैली, परिवेश का बिना अतिक्रमण किए, धार्मिक संवेदनशीलता का लिहाज करते हुए फतवा का समाचार प्रसारित करेंगे। अर्थात् फतवा को मजाक का विषय न बनाया जाय। फतवा जारी करनेवाले व्यक्ति का मकसद भी जान लें। हानिलाभ तौल लें। अत: जब मौलाना वस्तानवी फतवा पर सावधानी चाहते हैं तो उदाहरण मिल जाते हैं कि फतवों का विवादास्पद प्रयोग कैसे हुआ। मसलना सर्वोच्च न्यायालय ने एक नारी समर्थक निर्णय दिया था कि परित्यता को पति से जीविका की राशि मिलनी चाहिए। पर फतवा देकर इस न्यायिक निर्णय को अस्वीकार कर दिया गया। संसद पर दबाव पड़ा और न्यायिक निर्णय को निरस्त कर दिया गया। विरोध में केन्द्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खां ने राजीव गांधी काबीना से त्यागपत्र दे दिया। मगर कट्टर मुसलमानों की जीत में एक प्रगतिशील कदम पिछड़ गया। इसी संदर्भ में मेरठ की गृहणी गुड़िया के मसले पर जारी किया गया फतवा भी विघटनकारी था।
टीवी पर आधुनिक शिक्षा के प्रतिकूल फतवा, सहशिक्षा के विरोध में फतवा, परिवार नियोजन पर पाबंदी वाला फतवा यही दर्शाता है कि भारतीय समाज में आम मुसलमानों को कदम से कदम मिलाकर चलने से अवरूध्द किया जा रहा है। सबसे अव्यवहारिक और हास्यास्पद फतवा था कि कार्यालय में स्त्री और पुरूष कर्मी परस्पर बात न करें। किसी ने भी इसे नहीं माना। बुर्के पर प्रतिबंध वाला फतवा बहुतेरों ने नहीं माना। आज के सभ्य जीवन में चलता फिरता ताबूत कौन खातून बनना चााहेगी। इस्लामी तुर्की का उदाहरण है जहां बुर्के को गैरकानूनी करार दिया गया है। इसी सिलसिले में एक फतवा आया था कि हरिवंशराय बच्चन की कृति मधुशाला पढ़ना भी गैर इस्लामी है क्योंकि शराब पीना गुनाह है। तो फिर सुलतान और बादशाह लोग, उर्दू के शायर लोग और मुस्लिम राजनेता कौन से पाक साफ हैं। ऐसे ही विवादास्पद फतवे आये जैसे कि टेनिस कोर्ट पर सानिया मिर्जा के स्कर्ट की लम्बाई कितनी हो? मगर किसी भी मुल्ला अथवा मौलवी ने यह नहीं कहा कि रोजेदारों को उन हिन्दुओं का आतिथ्य नहीं स्वीकारना चाहिए जो स्वयं उपवास नहीं रखते हैं। धार्मिक रीति को सामाजिक अथवा सियासी स्टन्ट नहीं बनाना चाहिए। इसीलिए मौलाना वस्तानवी की अपेक्षा है कि फतवा की बड़ी पवित्रता से संजोया जाय। मौलाना वस्तानवी ने फतवे की तरह शब्द जिहाद को भी परिभाषित किया क्योंकि मुस्लिम आतंकवादी उसे गैरमुसलमानों के खिलाफ भड़काने के लिए इस्तेमाल करते हैं। मौलाना ने कहा कि जिहाद का सही अर्थ है ”प्रयास” करना ताकि बेहतर मानसिकता उपजे।
अब मौलाना द्वारा कथित तौर पर मोदी की सरकार की तारीफ करने की बात पर गौर करें। इस संदर्भ में एक सांप्रदायिक शैली की चर्चा कर लें। अमूमन कोई हिन्दू यदि मुसलमानों की सामाजिक बुराइयों की आलोचना करे तो उस पर भाजपाई और आरएसएस की मुहर लग जाती है। उसी तरफ कोई भारतीय मुसलमान कुछ ज्यादा धार्मिक अथवा परम्परागत् हो जाय तो उसे पाकिस्तानी कह देने का फैशन बन गया है। ऐसी सोच खोटी है। राष्ट्रविरोधी है। अत: गुजरात यदि वस्तुत: विकास कर रहा है तो उसे स्वीकारना कोई भाजपा का समर्थक हो जाना नहीं है। सोनिया गांधी के चहेते और योजना आयोग के उपाध्यक्ष सरदार मोन्टेक सिंह अहलुवालिया ने भी गुजरात की विकास दर की बहुत तारीफ की थी। विश्वबैंक भी कर चुका है। अत: मौलाना वस्तानवी ने कर दिया तो वे कोई स्वयं सेवक नहीं बन गये और न मतान्तरण कर लिया। मुसलमानों के बड़े खैरख्वाह बननेवाले माक्र्सिस्ट सरकार के पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्याकों को विकास के सबसे नीचे पायदान पर सचर आयोग ने टिकाया है।
अगर मोदी सरकार की गोधरा दंगों के दौरान नृशंसता को मान ले तो लोकतांत्रिक मर्यादा का भी ख्याल करना होगा। चुनाव में जनादेश मोदी को दुबारा मिला है। अब कौन सा पैमाना लगायेंगे? संजय गांधी जिसने 1975-77 के आपात्काल के दौरान, जामामस्जिद, चांदनी चौक, तुर्कमान गेट आदि स्थलों पर लाशें गिराईं, झोपड़ियां उजड़वाई, जबरन नसबंदी कराकर अल्पसंख्यकों पर अमानुलिक अत्याचार किए थे। मगर इन्हीं मुसलमानों ने ढ़ाई सालों बाद डेढ़ लाख वोटों से संजय गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी को लोकसभा निर्वाचन में जितवा दिया। तो ऐसा दोहरा मानदण्ड क्यों?
फिर मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को दारूल उलूम के कुलपति पद से हटाने के अन्य कारण हैं। वे सब मूलत: धार्मिक नहीं, वरन राजनीतिक और पारम्परिक हैं। दारूल उलूम पर दशकों से कांग्रेस सांसद मदनी और उनके जमायते उलेमा का कब्जा था। जनवरी में इस गुजराती मौलाना ने उत्तर प्रदेश के मौलाना को चुनाव में पराजित कर दिया। रंजिश तो होनी ही थी। सो हो गई।
दारूल उलूम पर हिन्दी भाषियों का लौह शिकंजा रहा अत: उत्तर प्रदेश की राजनीतिक कट्टरता तथा वोट बैंक की नीति भी घुस आई। इसके कारण वर्षो से इस आलमी मदरसे का अधुनिकीकरण नहीं हुआ। काहिरा के मशहूर अल-अजहर विश्वविद्यालय में मुझे दिखा था कि लौकिक तथा आध्यात्मिक प्रगति का सम्मिश्रण हो सकता है। दारूल उलूम का नंबर अल-अजहर के बाद आता है। मौलाना वस्तानवी इसे और विकसित देखना चाहते हैं। उनके संपर्क सूत्र हैं जिनसे उन्होंने अपने सूरतवाले मदरसे को शीर्ष पर पहुंचाया। दारूल उलूम भी संपन्न होगा यदि मौलाना को हटाया नहीं गया। लेकिन मंजर आशावादी नहीं हैं। मुल्लाओं ने गणेश प्रतिमा, फतवा, नरेन्द्र मोदी आदि मसलों को समेटकर एक घातक घोल बना दिया है।
मौलाना वस्तानवी अशरफ (कुलीन परिवार) नहीं हैं। वे दक्षिण गुजरात की पिछड़ी जाति में जन्में थे। उनका दारूल उलूम का कुलपति बनना उत्तर प्रदेश के कुलीन परिवारिक मुसलमानों को पसन्द नहीं आ रहा है। जातीय विग्रह का मसला है। हालांकि इस्लाम धर्म में सभी समान माने जाते हैं। अत: मौलाना वस्तानवी मजहब के नाम पर समान्य मुसलमानों का शोषण नहीं होने देंगे। कट्टरता का दमन करेंगे। उदाहरणार्थ पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर जनाब सलमान तासीर के कट्टर गार्ड द्वारा हत्या का दारूल की पत्रिका ”तर्जुमा देवबन्द” ने समर्थन किया। कई दारूल उलूम वालों को यह पसन्द नहीं आया। मौलाना वस्तानवी ऐसी उग्रता को रोकेंगे। लेकिन मसला यहां यह है कि महत्वपूर्ण मदरसे को आगे देखू बनाने के लिए मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को प्रगतिशील मुसलमानों का कितना सहयोग मिलेगा। अथवा दकियानूस लोग उन्हें हटाकर फिर विकास की सुई को रोक देंगे। बल्कि इस बार पीछे कर देंगे।
आपने तो कमाल का लेख लिखा है साधुवाद