राष्ट्रीय चेतना के अग्रदूत स्वामी दयानंद सरस्वती

पुण्य तिथि पर पुण्य स्मरण 

डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री 

स्वामी दयानंद ” स्वतन्त्रता के देवता तथा शांति के राजकुमार ” हैं – स्वतंत्रता सेनानी बिपिन चन्द्र पाल

download (4)हमारे देश के पिछली कई शताब्दियों के इतिहास में जिन महापुरुषों ने इस धरा को धन्य किया, उनमें स्वामी दयानंद सरस्वती (1824 – 1883 ) का स्थान बहुत ऊंचा है। सामान्यतया लोग उन्हें समाज सुधारक के रूप में ही याद करते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि उनका व्यक्तित्व बहु -आयामी था। अतः उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में जागृति उत्पन्न करने का प्रयास किया। इसी कारण महात्मा गाँधी ने निम्नलिखित शब्दों में उनका योगदान स्वीकार किया,

” जनता से संपर्क, सत्य-अहिंसा, जन-जागरण, लोकतंत्र, स्वदेशी प्रचार, हिंदी, गोरक्षा, स्त्री उद्धार, शराब बंदी, ब्रह्मचर्य, पंचायत, सदाचार, देश उत्थान के जिस-जिस रचनात्मक क्षेत्र में मैंने कदम बढ़ाए, वहां दयानंद के पहले से ही आगे बढ़े कदमों ने मेरा मार्गदर्शन किया। ”

उस युग में स्वतन्त्रता, स्वराज्य और जनतांत्रिक व्यवस्था की बात करने वाले तो वे सर्वप्रथम और एकमात्र महापुरुष थे। इतिहास के इस तथ्य से तो बहुत से लोग परिचित हैं कि 1857 की क्रान्ति के बाद हमारे देश के शासन की बागडोर ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटेन की पार्लियामेंट ने अपने हाथों में ले ली, और ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के नाम से आदेश जारी होने लगे ( जैसे, रियासतों के राजाओं को आश्वासन दिया गया कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने उनके साथ जो भी संधियाँ की हैं, उनका यथावत सम्मान किया जाएगा) पर यह तथ्य हमारी दृष्टि से प्रायः ओझल रह जाता है कि महारानी विक्टोरिया को उस समय “ भारत की साम्राज्ञी “ घोषित नहीं किया गया । यह काम किया लगभग बीस वर्ष बाद 1876 में। इस देरी का कारण स्पष्ट रूप से बताया नहीं जाता, पर तत्कालीन दस्तावेजों और लोकगीतों से पता चलता है कि 1857 की क्रांति की आग को उस समय तो जैसे-तैसे बुझा दिया गया ,पर सरकार का असली दमन चक्र इसके बाद शुरू हुआ। उसे जिन लोगों पर क्रान्ति में शामिल होने और / या सहयोग देने का ज़रा- सा भी संदेह हुआ , उन्हें ढूंढ-ढूंढ कर, घरों से पकड़ कर, उन्हें अपना पक्ष रखने का न्यायोचित अवसर दिए बिना, खुलेआम पेड़ पर लटका कर फांसी दे दी गई और यह काम दो – चार दिन, हफ्ते या महीने नहीं, बीस वर्ष तक चलता ही रहा। इस क्रान्ति में सर्वाधिक सक्रिय भूमिका वर्तमान बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों की थी। अतः वहां के लोकगीतों में इस सरकारी षड्यंत्र के प्रमाण बहुतायत से मिलते हैं। जब यह क्रूर काण्ड पूरा हो गया और सरकार को यह विश्वास हो गया कि 1857 के क्रांतिकारियों का सफाया किया जा चुका है, तब विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित किया गया। और उसने अपने को न्याय का अलमबरदार सिद्ध करने के लिए शाब्दिक उदारता दिखाते हुए और इस घृणित हत्या काण्ड पर पर्दा डालते हुए कहा कि भारत की प्रजा मेरी संतान के समान है। उसके साथ पूरा न्याय किया जाएगा। धर्म आदि के कारण कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।

इस घोषणा का देश के तत्कालीन दूसरे नेताओं ने भरपूर स्वागत किया। सांस्कृतिक जागरण के अग्रदूत कहे जाने वाले राजा राममोहन रॉय तो पहले ही भारत में ब्रिटिश शासन के लिए परमात्मा को धन्यवाद दे चुके थे और यह प्रार्थना कर चुके थे कि ब्रिटिश शासन शताब्दियों तक बना रहे। उनका देहांत हो चुका था, अब आचार्य केशवचन्द्र सेन ने ब्रिटिश शासन की मुक्तकंठ से प्रशंसा की और उसके चिरजीवी होने की कामना कर डाली। साहित्यकारों में ब्रिटेन के राष्ट्रगीत “ Long Live the Queen “ का भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने की जैसे होड़ लग गई। हिंदी में भारतेंदु हरिश्चन्द्र , बांग्ला में सुरेन्द्र मोहन टैगोर, मलयालम में महाराजा त्रावणकोर,, गुजराती में एच एन कत्रे , मराठी में बी बी नैनी जैसे लोग अनुवाद करके अँगरेज़ सरकार से वाहवाही लूटने का प्रयास करने लगे। संस्कृत में ” शिवराजविजय ” लिख कर ‘ हिन्दू धर्म के रक्षक शिवाजी ‘ का गुणगान करने वाले पं अम्बिका दत्त व्यास जैसे साहित्यकार ने भी हिंदी में ” चिरजीवी रहो विक्टोरिया महारानी “ जैसा गीत लिखा।

उस समय महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्होंने महारानी विक्टोरिया की घोषणा पर सिंह गर्जना करते हुए कहा, “ कोई कितना भी करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वही सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मतमतांतर के आग्रह – रहित , अपने और पराये का पक्षपात शून्य, प्रजा पर माता – पिता के समान कृपा , न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य कभी भी पूर्ण सुखदायी नहीं होता । “ तत्कालीन इतिहास में यह पहला अवसर है जब किसी नेता ने “स्वदेशी राज्य ” की पैरवी की।

उन्होंने उन कारणों का भी विश्लेषण किया जिनके कारण देश पर विदेशियों का अधिकार हुआ। उनके अनुसार आपस की फूट, मतभेद , विद्या न पढ़ना – पढ़ाना, वेदविद्या की उपेक्षा करना, स्त्रियों को शिक्षित न करना, बाल विवाह करना, अशिक्षा के कारण विभिन्न प्रकार के अंधविश्वासों का पनपना, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना और फलस्वरूप शरीर एवं मन दुर्बल होना, आलसी – विलासी जीवन बिताना, गुण – कर्म के बजाय जन्मना जातिप्रथा अपनाना, समाज के एक वर्ग को अस्पृश्य मानना, खानपान में छुआछूत मानना, समुद्र यात्रा को धर्म विरुद्ध मानना, विदेशी भाषाओं और विदेशियों की उपलब्धियों की उपेक्षा करना, मिथ्याभाषण, वेश्यागमन, मांस – मदिरा सेवन जैसे दुर्गुणों के कारण देश पराधीन बना। इसलिए उन्होंने इन दुर्गुणों को छोड़ने की प्रेरणा दी। साथ ही उन्होंने यह चेतावनी भी दी कि ” भिन्न – भिन्न भाषा, पृथक – पृथक शिक्षा और अलग व्यवहार ” से समाज में विरोध बढ़ता है। अतः स्वराज्य को सफल बनाने के लिए एक भाषा, सबके लिए समान शिक्षा और सबके साथ एक सा व्यवहार भी आवश्यक है और इसकी शुरुआत विद्यालय से ही होनी चाहिए जहाँ ” सबको तुल्य वस्त्र, खानपान, आसन दिए जाएँ, चाहे वह राजकुमार वा राजकुमारी हो, चाहे दरिद्र की संतान हो। ”

स्वामी दयानंद उस युग के पहले महापुरुष थे जिन्होंने समाज में हर स्तर पर जनतांत्रिक व्यवस्था का समर्थन किया । उन्होंने “आर्य समाज ” नामक जो संस्था बनाई उसका गठन भी जनतांत्रिक सिद्धांतों के आधार पर किया। अपने भक्तों के आग्रह के बावजूद उन्होंने इस संस्था का अधिष्ठाता / अध्यक्ष / मार्गदर्शक / प्रधान या कोई और पद स्वीकार नहीं किया। इस संस्था के सदस्यों के लिए भी अपने ग्रंथों का नहीं, “ वेद का पढ़ना – पढ़ाना, सुनना – सुनाना ” परम धर्म बताया। सिद्धांत भी यह बनाया कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के त्यागने को सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। राजनीति के लिए उन्होंने राजधर्म के नाम से वेद तथा अन्य शास्त्रों आदि के आधार पर राज-व्यवस्था, शासन-व्यवस्था, न्याय-व्यवस्था, दंडनीति, कूटनीति आदि की विवेचना की है। राजा शब्द सुनते ही हमें प्रायः वंशानुगत परम्परा की याद आती है, पर स्वामी दयानंद ने राज-व्यवस्था में राजा को ‘ सभापति ‘ कहा है और (वर्तमान विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका की तरह ही) तीन ‘ सभाओं ’ की चर्चा की है जिसमें राजा अर्थात सभापति को ‘ सभाओं के अधीन ‘ एवं ‘ सभाओं को प्रजा के अधीन ‘ रखने की बात की है। किसान आदि परिश्रम करने वालों को उन्होंने ‘ राजाओं का राजा ‘ और राजा को उनका ‘ रक्षक ‘ बताया है। यजुर्वेद के अपने भाष्य में भी उन्होंने लिखा,” प्रजाजन यह देखें कि उनका देश अकेले व्यक्ति से नहीं, अपितु सभाओं से प्रशासित हो। ” इस प्रकार उन्होंने जनतांत्रिक व्यवस्था का समर्थन किया है। जिन लोगों ने यही पढ़ा है कि जनतंत्र की अवधारणा पश्चिमी देशों से आई , उन्हें यह जानकर आश्चर्य होना स्वाभाविक ही है कि स्वामी दयानंद ने वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों, स्मृतियों आदि से उद्धरण देकर इसे इस देश की ऐसी प्राचीन परम्परा सिद्ध किया है जो पश्चिमी देशों के जनतंत्र से बहुत पहले विकसित हो चुकी थी।

स्वामी दयानंद के ऐसे विचारों के कारण ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था , ” स्वराज्य मंदिर में पहली मूर्ति दयानंद की ही स्थापित की जाएगी। ” एनी बेसेंट ने भी इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए कहा, ” जब स्वराज्य मंदिर बनेगा तो उसमें बड़े – बड़े नेताओं की मूर्तियाँ होंगी और उनमें सबसे ऊंची मूर्ति दयानंद की होगी। ”

स्वतंत्रता और जनतांत्रिक व्यवस्था की अलख जगाने वाले इस महापुरुष का निधन दीवाली के दिन ही अजमेर में 30 अक्तूबर 1883 को शाम के लगभग छह बजे हुआ था। जब वे जोधपुर में थे तो वहां कुछ विरोधियों ने एक षड्यंत्र रचकर उन्हें दूध में कांच पीसकर पिला दिया। कोढ़ में खाज वाली बात यह हुई कि वहां उनकी चिकित्सा में भी गड़बड़ी हुई। समाचार मिलने पर उनके भक्त उन्हें जोधपुर से अजमेर ले आए। यहाँ चिकित्सा तो अच्छी हुई , पर वस्तुतः तब तक बहुत देर हो चुकी थी, उन्हें बचाया नहीं जा सका । अंतिम समय शाम के लगभग पांच बजे उन्होंने काफी देर तक वेदमंत्र पढ़कर संस्कृत – हिंदी में प्रार्थना की, कुछ समय तक समाधिस्थ रहे, और अंत में आँखें खोलकर हिंदी में बोले,” हे दयामय , सर्वशक्तिमान परमेश्वर ! तेरी यही इच्छा है, तेरी इच्छा पूर्ण हो। अहा, तूने अच्छी लीला की। ” यह कहकर उन्होंने पहले श्वास को रोका और फिर एक बार ही में बाहर निकाल दिया। यह श्वास निकलते ही यह आत्मा परम तत्व में लीन हो गई।

दीपावली पर याद आती है स्वराज्य और जनतंत्र के प्रति जनता को सबसे पहली बार जागरूक करने वाले उस महापुरुष की, और साथ ही याद आती है नेता जी सुभाष एवं एनी बेसेंट के सपनों के स्वराज्य के मंदिर की। स्वराज्य में जिन आदर्शों की प्रतिष्ठा के लिए इन महापुरुषों ने संघर्ष किया था, उनकी प्रतिष्ठा अब तक नहीं हो पाई है। उन्हें प्रतिष्ठित करने की जिम्मेदारी हमारी ही है। जनतंत्र में जनता वोट देकर अपनी सरकार चुनती है। चुनाव में ऐसे लोगों को ही चुनिए जो महापुरुषों के सपनों को साकार कर सकें।

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डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री
जन्म लखनऊ में, पर बचपन - किशोरावस्था जबलपुर में जहाँ पिताजी टी बी सेनिटोरियम में चीफ मेडिकल आफिसर थे ; उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में स्नातक / स्नातकोत्तर कक्षाओं में अध्यापन करने के पश्चात् भारतीय स्टेट बैंक , केन्द्रीय कार्यालय, मुंबई में राजभाषा विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त ; सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी बैंक में सलाहकार ; राष्ट्रीय बैंक प्रबंध संस्थान, पुणे में प्रोफ़ेसर - सलाहकार ; एस बी आई ओ ए प्रबंध संस्थान , चेन्नई में वरिष्ठ प्रोफ़ेसर ; अनेक विश्वविद्यालयों एवं बैंकिंग उद्योग की विभिन्न संस्थाओं से सम्बद्ध ; हिंदी - अंग्रेजी - संस्कृत में 500 से अधिक लेख - समीक्षाएं, 10 शोध - लेख एवं 40 से अधिक पुस्तकों के लेखक - अनुवादक ; कई पुस्तकों पर अखिल भारतीय पुरस्कार ; राष्ट्रपति से सम्मानित ; विद्या वाचस्पति , साहित्य शिरोमणि जैसी मानद उपाधियाँ / पुरस्कार/ सम्मान ; राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर का प्रतिष्ठित लेखक सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान , लखनऊ का मदन मोहन मालवीय पुरस्कार, एन सी ई आर टी की शोध परियोजना निदेशक एवं सर्वोत्तम शोध पुरस्कार , विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का अनुसन्धान अनुदान , अंतर -राष्ट्रीय कला एवं साहित्य परिषद् का राष्ट्रीय एकता सम्मान.

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