चुनाव पूर्व घमासान से रूबरू उत्तर प्रदेश

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निर्मल रानी

ऐसा माना जाता है कि केंद्र की राजनीति की दिशा व दशा का निर्धारण उत्तर प्रदेश की राजनीति ही करती है। इसका सीधा सा कारण यही है कि 404 विधानसभाओं वाला यह राज्‍य देश का ऐसा सबसे बड़ा राज्‍य है जहां लोकसभा की सर्वाधिक 80 सीटें हैं। कभी कांग्रेस पार्टी का गढ़ माने जाने वाले इस विशाल राज्‍य में आज कांग्रेस की दशा अन्य राजनैतिक दलों की तुलना में सबसे कमज़ोर है। इसका कारण यह है कि कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैंक समझे जाने वाले मुस्लिम समुदाय के वोट पर जहां समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी ने अपना अधिकार जमा लिया वहीं प्रदेश के दलित मतदाता लगभग पूरी तरह से बहुजन समाज पार्टी की झोली में जा गिरे। और 2007 के विधान सभा चुनावों से पूर्व मायावती ने राज्‍य के स्वर्ण विशेषकर ब्राहमण मतों को अपनी ओर आकर्षित करने का एक ऐसा सफल कार्ड खेला जिसने बसपा को राज्‍य में पूर्ण बहुमत दिला दिया। 2007 में गठित हुई विधान सभा का कार्यकाल 2012 में पूरा होने को है और राज्‍य में 2012 के प्रस्तावित चुनावों को लेकर राजनैतिक शतरंज की बिसातें बिछनी शुरू हो चुकी हैं। इस बात की भी संभावना व्यक्त की जा रही है कि बहुजन समाज पार्टी प्रमुख एवं राज्‍य की मुख्‍यमंत्री मायावती निर्धारित समय से पूर्व किसी भी समय विधान सभा भंग कर सकती हैं तथा समय पूर्व चुनाव के लिए रास्ता सांफ कर सकती हैं।

उत्तर प्रदेश में वैसे तो बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी तथा कांग्रेस पार्टी मुख्‍य रूप से सक्रिय व स्थापित राजनैतिक दल माने जाने जाते हैं। परंतु इनके अतिरिक्त चौधरी अजीत सिंह के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकदल का भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अच्छा जनाधार है। लिहाज़ा उत्तर प्रदेश में उनकी राजनैतिक उपस्थिति को भी कोई भी राजनैतिक दल फरामोश नहीं कर सकता। कांग्रेस पार्टी भी राज्‍य में अपने खोए अस्तित्व को वापस लाने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी तथा पार्टी महासचिव राहुल गांधी ने जितने अधिक दौरे केवल उत्तर प्रदेश राज्‍य के किए हैं उतने दौरे किसी अन्य राज्‍य के नहीं किए। यही वजह थी कि गत लोकसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस पार्टी को अपेक्षा से अधिक सफलता प्राप्त हुई। पार्टी आश्चर्यजनक ढंग से 2009 में 22 संसदीय सीटें जीतने में कामयाब रही। कांग्रेस पार्टी के उत्तर प्रदेश में इस बढ़ते कदम ने अन्य सभी दलों को सचेत कर दिया तथा वे सभी 2012 के संभावित विधान सभा चुनाव के मद्देनार अपनी रणनीति पर काम करने लगे। परिणामस्वरूप सभी गैर कांग्रेसी दलों ने कांग्रेस पर भ्रष्टाचार, 2जी स्पेकट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्‍स में हुए भ्रष्टाचार, बोफोर्स तोप दलाली में क्वात्रोचि की भूमिका तथा कमरतोड़ महंगाई जैसे हथियारों से प्रहार करना शुरू कर दिया है। तो दूसरी ओर 2009 में ही बाबरी विध्वंस के गुनहगार समझे जाने वाले कल्याण सिंह से दोस्ती कर जबरदस्त नुंकसान उठाने वाले समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने मुस्लिम समुदाय से अपनी गलतियों के लिए मांफी मांगने तथा अपने वंफादार मुस्लिम नेता आजमखान को पार्टी में वापस लेने की भी राजनैतिक चाल चली है।

चुनाव पूर्व कांग्रेस पार्टी ने भी उत्तर प्रदेश के मतदाताओं पर अपना प्रभाव छोड़ने के लिए जहां समाजवादी पार्टी छोड़कर कांग्रेस में आए वरिष्ठ समाजवादी नेता बेनी प्रसाद वर्मा को केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान देकर प्रदेश के मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की है वहीं इसी रणनीति के मद्देनजर राज्‍य मंत्री रहे श्रीप्रकाश जयसवाल को भी कैबिनेट मंत्री का दर्जादिया गया है। इसके अतिरिक्त राहुल गांधी दलितों, गरीबों व अल्पसंख्‍यक समुदाय के लोगों के मध्य बराबर जाते रहे हैं। मनरेगा का भी राज्‍य में अच्छा प्रभाव पड़ा है। हां, गत दिनों राहुल गांधी की इलाहाबाद व लखनऊ की यात्रा के दौरान उन राजनैतिक दलों द्वारा उन्हें काले झंडे दिखाए जाने की कोशिश की गई जो राहुल गांधी तथा कांग्रेस पार्टी को अपने लिए फिर एक खतरा समझ रहे हैं। परंतु राहुल गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं से ऐसे विरोध प्रदर्शनों की परवाह किए बिना एकजुट रहने तथा सत्तारूढ़ बसपा के विरूद्ध संघर्ष करने का आहवान किया है। कांग्रेस ने अपनी एक सोची समझी रणनीति के तहत वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह को पार्टी का प्रभारी बनाया है। दिग्विजय सिंह राज्‍य के अल्पसंख्‍यक मतदाताओं को पार्टी के साथ जोड़ने के लिए क्या कुछ प्रयास कर रहे हैं यह पूरा देश गौर से देख रहा है। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति आक्रामक होने जैसे किसी भी अवसर को अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते। साथ-साथ वे अल्पसंख्‍यक मतों को अपनी ओर आकर्षित करने के किसी अवसर को भी अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते। शायद यही वजह है कि बिहार चुनावों में कांग्रेस की हुई ताजातरीन दुर्गति के बावजूद दिग्विजय सिंह बड़े आत्मविश्वास के साथ अब भी यह कहते हुए दिखाई दे रहेहैं कि उत्तर प्रदेशविधान सभा चुनावों के परिणाम चौंकाने वाले होंगे।

उधर भारतीय जना पार्टी अपने चिरपरिचित फायरब्रांड रास्ते पर चलते हुए वरूण गांधी को पेश पेश रख रही है। वरूण गांधी को सामने रखकर भाजपा एक तीर से तीन शिकार खेलना चाह रही है।एक तो वरूण गांधी, नेहरु-गांधी परिवार के ही सदस्य होने के नाते राहुल गांधी का बेहतर जवाब हो सकते हैं। दूसरा यह कि युवा एवं तेजस्वी व्यक्तित्व होने के कारण राज्‍य के युवा व छात्र मतदाता उनकी ओर आकर्षित हो सकते हैं। और तीसरे यह कि गांधी परिवार का पहला फ़ायरब्रांड सांप्रदायिकतावादी चेहरा देखने के लिए जनसभाओं में कुछ न कुछ भीड़ वरुण के नाम पर अवश्य इकट्ठी हो जाएगी। अब यह तो समय ही बता सकेगा कि भाजपा का यह अनुमान कितना उचित है और कितना अनुचित। इस बात की भी संभावना व्यक्त की जा रही है कि भारतीय जनता पार्टी वरुण गांधी को पार्टी की ओर से राज्‍य का संभावित मुख्‍यमंत्री घोषित कर सकती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी भाजपा की राज्‍य में सहायता करने का पूरा प्रयास कर रहा है। यही वजह है कि संघ ने गत दिनों अपने ऊपर लगने वाले आतंकवाद के आरोपों के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले अपने धरने के अंतर्गत लखनऊ में जो धरना आयोजित किया उसमें संघ प्रमुख मोहन भागवत स्वयं उपस्थित हुए।

बहरहाल इन सभी राजनैतिक दलों की राजनैतिक चालों व रणनीतियों से अलग बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती इस बात की है कि वे किस प्रकार अपनी सत्ता बरंकरार रखें। चुनाव का समय नजदीक आने के साथ-साथ राज्‍य की मायावती सरकार तथा बहुजन समाज पार्टी पर भी विद्रोह तथा संकट के बादल मंडराते दिखाई दे रहे हैं। खबर है कि मायावती ने प्रदेश की अधिकांश विधानसभा सीटों पर अपने उन उम्‍मीदवारों की घोषणा कर दी है जिन्हें पार्टी अपना उम्‍मीदवार बनाने का मन बना चुकी है। जाहिर है इनमें जहां तमाम उ मीदवार ऐसे हैं जो दूसरी या तीसरी बार चुनाव मैदान में जाकर अपना भाग्य आजमाएंगे वहीं कुछ विधायक व मंत्री ऐसे भी हैं जिन्हें मायावती ने पार्टी का टिकट देने से सांफ इंकार कर दिया है। ऐसे में कई नेता पार्टी से विद्रोह कर दूसरे उन दलों की राह अख्तियार कर सकते हैं जहां उन्हें अपना भविष्य उज्‍ज्‍वल नजर आता होगा। ऐसे ही एक ताजातरीन फैसले के अंतर्गत मायावती ने अपने भूमि विकास एवं जन संसाधन मंत्री अशोक कुमार दोहरे को गत् दिनों मंत्रिमंडल से बंर्खास्त किए जाने की सिफारिश राज्‍यपाल बी एल जोशी से की जिसे उन्होंने तत्काल स्वीकार करते हुए दोहरे को पदमुक्त कर दिया। उन्हें बसपा की प्राथमिक सदस्यता से भी निष्कासित कर दिया गया है। खबर है कि उनके निर्वाचन क्षेत्र औरय्या से पार्टी ने आलोक वर्मा को बसपा प्रत्याशी बनाए जाने की घोषणा की थी जिससे दोहरे के समर्थक काफी नाराज थे। यह नाराजगी पार्टी में बग़ावत का रूप धारण कर रही थी। इससे पूर्व ही मायावती ने दोहरे को बाहर का रास्ता दिखा दिया। दोहरे काशीराम के करीबी तथा बामसेंफ के संस्थापक सदस्यों में गिने जाते थे।

मायावती की तानाशाही पूर्ण कार्यशैली भी आगामी चुनावों से पूर्व उन्हें काफी नुकसान पहुंचा सकती है। पार्टी में तमाम नेताओं का यह मानना है कि उन्हें अपनी बात, गिला-शिकवा अथवा सलाह आदि देने की न तो सार्वजनिक मंच अथवा मीडिया के सामने कोई छूट है न ही पार्टी के किसी फ़ोरम में। यह भी माना जाता है कि बी एस पी को स्थापित करने वाले लोगों में तमाम वे दलित आई ए एस अधिकारी व उनके परिवार के लोग भी शामिल हैं जिन्होंने काशीराम व बसपा के दलित उत्थान के दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए शुरु से ही उनका साथ दिया था। परंतु मायावती के स्वभाव व कार्यशैली के कारण ऐसे कई लोग अब बसपा में अपने को घुटा-घुटा सा महसूस कर रहे हैं। पिछले दिनों दलित समुदाय के एक पूर्व वरिष्ठ आई ए एस अधिकारी जे एन चैंबर की पुत्री दिशा चैंबर ने इन्हीं कारणों के चलते पार्टी छोड़ने की घोषणा कर दी। दिशा की इस घोषणा के बाद पार्टी की ओर से उन्हें बंर्खास्त किए जाने की विज्ञप्ति भी जारी की गई। उधर बांदा जिले के नरैनी विधानसभा क्षेत्र से विधायक पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी द्वारा शीलू निषाद नामक एक लड़की से बलात्कार करने का मामला भी मायावती के लिए सिरदर्द साबित हो रहा है। हालांकि उस बलात्कारी विधायक को बर्खास्त कर तथा उसकी गिरफ्तारी करवा कर मायावती ने अपने सख्‍त प्रशासन का संदेश देने की कोशिश की है। परंतु इसके बावजूद जनता मायावती से यह सवाल जरूर पूछना चाह रही है कि आखिर विधायक की गिरफ्तारी में इतनी देरी का कारण क्या था? इस प्रकरण में शीलू निषाद को चोरी के झूठे इलाम में जेल भेजे जाने पर भी मायावती ने राजनीति करते हुए अपने जन्मदिन के अवसर पर उसे रिहा किए जाने का आदेश तो दिया परंतु इसके जवाब में स्वयं शीलू निषाद ने अगले ही दिन यह कहा कि वह मायावती के कहने से नहीं बल्कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर रिहा हुई है। इस घटनाक्रम में बसपा की अंदरूनी गुटबाजी की भी भूमिका होने का समाचार है। माना जा रहा है कि मायावती सरकार में सबसे शक्तिशाली लोक निर्माण मंत्री इस समय नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी हैं जबकि विधायक पुरुषोत्तम द्विवेदी उनके विरोधी गुट से संबध्द हैं।

बहरहाल मायावती को ‘डा0 अंबेडकर सामाजिक परिवर्तन संग्रहालय’ के नाम से बनाए जाने वाले नौएडा स्थित पार्क के मामले में जहां सुप्रीम कोर्ट ने राहत दी है वहीं राज्‍य में उजागर हुआ खाद्यान्न घोटाला जिसकी रकम लगभग दो हजार करोड़ तक बताई जा रही है, माया सरकार के लिए सिरदर्द बना हुआ है। हालांकि मुख्‍यमंत्री की ओर से यह विश्वास दिलाया गया है कि उनकी सरकार दोषियों के विरुध्द कार्रवाई करेगी। इस सिलसिले में समस्त एजेंसियों ने अब तक 19 जिलों में 244 मुकद्दमे दर्ज कराए हैं। यह मुंकद्दमे 64 करोड़ रुपये की कीमत के अनाज को लेकर दर्ज कराए गए हैं। इसके अतिरिक्त आगामी चुनावों के मद्देनार ही मायावती ने पिछले दिनों लखनऊ में आयोजित अपने जन्मदिन के अवसर पर तमाम लोक हितकारी एवं लोकलुभावनी योजनाओं की घोषणा कर अपने आधार को बरंकरार रखने का प्रयास किया है। अब देखना यह है कि राज्‍य की जनता गत वर्ष 15 मार्च को पार्टी के 25 वर्ष पूरे होने तथा स्वर्गीय काशीराम के जन्म दिन के अवसर पर आयोजित हुई उस महारैली को याद रखती है जिसमें कि 2 सौ करोड़ रुपये खर्च किए गए थे तथा इस रैली में मायावती ने एक हजार रुपये के नोटों की बेशंकीमती माला को अपने गले में धारण किया था। या फिर उनकी ताजातरीन लोक हितकारी एवं लोकलुभावनी घोषणाओं को।

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