अंधविश्वास विरोधी अभियानों के पैरोकार

1
167

narendraप्रमोद भार्गव

संदर्भ:- अंधविश्वास विरोधी अभियान के पैरोकार डा नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या –

अंधविश्वास विरोधी अभियान के पैरोकार किसी भी धर्म या मजहब से संबंधित रहे हों, तार्किक बात कहने का दण्ड उन्हें प्राण गंवाकर ही चुकाना पड़ा है। पाखणिडयों के खिलाफ लड़ार्इ लड़ने वाले समाजसेवी डा नरेन्द्र दाभोलकर इस कड़ी के नवीनतम शिकार हैं। उनकी खुलेआम की गर्इ निर्मम हत्या महाराष्ट्र सरकार के मुंह पर तो करारा तमाचा है ही, अलबत्ता यह उन लोगों के लिए खुली चुनौती है, जो वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर पाखण्ड को हकीकत की कसौटी पर परखने का संदेश देकर समाज सुधार के अनूठे कार्यक्रम से जुड़े हैं। क्योंकि ऐसे लोग उन लोगों के समक्ष संकट बनकर पेश आते हैं, जिनके लिए अंधविश्वास और अलौकिक कृपा का कारोबार न केवल आजीविका का साधन, बलिक भोग विलास और बेशुमार दौलत कमाने का उपक्रम बन गया है। फिर डा दाभोलकर तो अंधविश्वास विरोधी विधेयक पारित कराने का सरकार पर नैतिक दबाव बनाए हुए थे। जिससे काला जादू, टोना-टोटके, डायन के बहाने स्त्री उत्पीड़न, भूत बाधा हरण, मनचाही संतान पैदा करना और नौकरी हासिल करने के उपायों में कर्मकांड और अतीन्द्रीय शक्तियों की भागीदारी पर अंकुश लगे। किंतु कृपा के कारोबारियों ने वैचारिक तार्किकता से खुली बहस करने की बजाय, वैचारिक उर्जा फैलाने वाले व्यक्ति की ही हत्या कर दी, जिससे दिव्य द्रष्टाओं की दुकानें निर्बाध चलती रहें।

धर्म और धर्म के प्रर्वतक मानवता को तात्कालिक व समकालीन संकटों से मुक्ति के लिए असितत्व में आए और उन्होंने समाज को संकट में डालने वाली शक्तियों से जबरदस्त लोहा भी लिया। इस क्रम में भगवान बुद्ध ने र्इश्वर के नाम पर संचालित धर्म सत्ता को राज्यसत्ता से अलग किया। उस युग में धर्म आधारित नियम-कानून ही राजा के  राजकाज के प्रमुख आधार थे। किंतु बुद्ध ने जातीय, वर्ण और धर्म की जड़ता को खणिडत कर समतामूलक नागरिक संहिता को मूर्त रूप दिया। कौटिल्य के अर्थ शास्त्र में भी जन्म आधारित और जातिगत श्रेष्ठता की जगह व्यक्ति की योग्यता को महत्व दिया गया। इस्लामी परंपरा में भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को उसकी रजामंदी के अधीन माना गया। र्इसा मसीह ने व्यक्ति स्वातंत्रय और करूणा के अधीन न्याय का सूत्र दिया। गुरूनानक ने जातिवाद की ऊंच-नीच को अस्वीकार कर सत्तागत राजनीतिक धर्मांधता को मानव विरोधी जताया।

परंतु कालांतर में धर्मांध लोगों ने अपनी-अपनी प्रभुताओं की वर्चस्व स्थापनाओं के दृष्टिगत कालजयी पुरुषों के संघर्ष को दैवीय व अलौकिक शक्तियों के सुपुर्द कर धर्म को अंधविश्वास और उससे उपजाए गए भय और कृपा के सुपुर्द कर दिया। बोध प्राप्ती के इस सरल मार्ग को शक्ति के मनोविकार, प्रसिद्धि की लालसा, धन की लोलुपता और वैभव के आडंबर में बदल दिया। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तो धर्म अभिव्यक्तियों के बहाने अंधविश्वास फैलाने के रास्तों पर ही आरूढ़ होता दिखार्इ देता है। यही कारण है कि वैचारिक शून्यता के माहौल में हर नये विचार के आगमन और प्रयोग की कोशिशों को कल्पनातीत लीलाओं की तरह महिमामंडित कर जड़ता का मनोविज्ञान रचा जाकर मानवीय सरोकारों को हाशिये पर लाया जा रहा है।

र्इसार्इ धर्म को प्रचारित करने वाली लघु पुसितकाओं में आश्चर्यजनक चमत्कारिक घटनाएं भरी पड़ी हैं। यीशू की प्रार्थना में अंधों को रोशनी, गूंगों को बोलना, बहरों को सुनना, लूलों को हाथ, लंगड़ों को पैर और मन चाही संतान मिल जाती हैं। असाध्य रोगी, रोग मुक्त हो जाते हैं। ये यीशू के याचकों को वरदान हैं या चमत्कारियों के ढोंग, इसे रेखांकित कौन कर पाया है ? लेकिन चमत्कारों के कपोल-कलिपत आर्कषण मनुष्य को सम्मोहित कर उसे कमजोर, धर्मभीरु व सोच के स्तर पर अवैज्ञानिक जरुर बना रहें हैं।

इस्लाम में भी चमत्कारों की करामतें भरी पड़ी हैं। औलियों और फकीरों की दरगाहों पर चादर चढ़ाकर लाखों लोग जियारत करतें है। कुरान-मजीद की आयतें पढ़कर गंडे-ताबीज पहनने और झाड़-फूंक करने से लोगों को प्रेत-बाधाओं से मुक्ति मिलने की आयतें हैं।

भारत के धार्मिक ग्रंथ अनेक चमत्कारिक आख्यानों और पूजा-अर्चना व ध्यान करने से लोग केवल स्वस्थ्य ही नहीं होते, सगार्इ-ब्याह, बाल-बच्चे, नौकरी-तबादले और न जाने क्या-क्या मनौतियां पूर्ण हो जाती हैं। मंत्र कान में फूंकने से सांप और बिच्छू के जहर उतर जाते हैं। लेकिन यथार्थ एकदम इसके उलट है। कभी किसी चमत्कार से आसमान से रोटियां नहीं टपकीं। भ्रष्ट अंर्तमन की अंतज्र्योति तो जागृत हो जाती है, लेकिन न तो बिना बाती के दीपक जलता है और न ही फ्यूज बल्ब। आतंकवादी घटनाएं भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बि्रटेन अथवा अमेरिका कहीं भी घटी हों, किसी भी चमत्कारी संत, फकीर, पादरी या भविष्यवक्ता ने यह भविष्यवाणी नहीं की कि अमुक स्थल पर बम फटने वाला है अथवा यहां विस्फोटक सामग्री रखी है। जबकि अतीन्द्रीय पक्ष के ज्ञाता त्रिकाल दृष्टा कहलाते हैं।

ऐसा नहीं है कि धार्मिक आडंबरों, कर्मकांडों और चमत्कारों का प्रतिरोध करने वाले व्यक्ति सामने नहीं आए। पर उन्हें धार्मिक अंधविश्वासों के चलते न तो सामाजिक स्वीकारता मिली और न ही उनके सिद्धांत सर्वमान्य हो पाए। अलबत्ता परंपरा के विरुद्ध वैज्ञानिक दृष्टिकोण और प्रगतिशील सोच देने वाले सैद्धांतिकों, आचार्यों, दार्शनिकों और वैज्ञानिकों को सामाजिक उपेक्षा व प्रताड़ना का शिकार होकर अपने प्राणों की आहूति जरूर देना पड़ी।

बार्इबिल में ऐसा बताया गया है कि पृथ्वी आयताकार है। पर जब खगोल विज्ञानी गैलिलियों ने प्रयोग करके यह सिद्ध किया कि पृथ्वी आयताकार न होकर गोल आकृति में है। तब यह बात लोगों के गले नहीं उतरी थी। गैलिलियों को नासितक बताकर जगह-जगह अपमानित होना पड़ा। आखिर में इस अपमानबोध से त्रस्त व जनता से भयाक्रांत गैलिलियों ने विषपान करके आत्महत्या कर ली थी।

र्इसार्इ धर्मावलंबियों की मान्यता थी कि पृथ्वी घूमती नहीं है और न ही सूर्य की परिक्रमा करती है। अलबत्ता सूर्य ही पृथ्वी की परिक्रमा करता है। नव खगोलशास्त्री कोपरनिकस ने यह सिद्धांन प्रतिपादित किया की पृथ्वी पूरब से पश्चिम की ओर भ्रमण करती हुर्इ सूर्य का चक्कर काटती है, तब जैसे आसमान ही टूट पड़ा। इस सिद्धांत का पारंपरिक र्इसाइयों ने जबरदस्त विरोध किया। कोपरनिकस जब अपनी मान्यता पर अडिग बने रहे तो उन्हें जिन्दा आग के हवाले कर मार डाला गया। हालांकि कोपरनिकस से पूर्व इस सिद्धांत की खोज भारतीय खगोलविज्ञानी आर्यभटट ने कर ली थी और भारत में इसे कमोबेश स्वीकार भी कर लिया गया था। लेकिन राजनीतिक सत्ताएं अंधविश्वास को किस हद तक प्रश्रय देती हैं इसकी मिसाल तब देखने में आर्इ जब ‘पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है की स्थापना संबधी आर्यभटट के पाठ को राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद की विज्ञान पुस्तक से केन्द्र में काबिज भगवा नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने निकलवा दिया था और उसके स्थान पर वराहमिहिर का पाठ डाल दिया था जो ‘सोमयज्ञ के स्थापना संबंधी पाखंड से जुड़ा था।

महर्षि चार्वाक ने कभी धर्म के पाखण्ड और कर्मकाण्ड का जबरदस्त विरोध करते हुए प्रत्यक्षवाद का दर्शन दिया था। चार्वाक ने तो र्इश्वर के असितत्व को ही अपनी संपूर्ण जीवटता के साथ नकारा। युद्ध विजय के बाद युधिषिठर जब अपने भाइयों के साथ हसितनापुर लौट रहे थे, तब हजारों ब्राह्रामण नए राजा के अभिनंदन को खड़े थे। उन्हीं में एक चार्वाक भी था। जिसने युधिषिठर को ललकारा, ब्राह्राणों का यह समूह तुम्हें श्राप देता है, क्योंकि तुमने अपने ही कुटुमिबयों का वध किया है। तुम्हें तो नरक का भागी होना चाहिए। लेकिन याचक ब्राह्राणों ने चार्वाक के कथन से असहमति जता दी। फिर क्या था, पाण्डवों के इशारे पर सार्वजनिक दण्ड के आधार पर चार्वाक को जिंदा जला दिया गया।

साम्यवाद एक ऐसी आधुनिकतम विचारधारा के रुप में सामने आया था, जिसके मूल में एक ऐसे समाज निर्माण की संरचना थी जिसमें असमानता की पैठ न हो और इंसान लालच व संचय की प्रवृत्तियों से दूर रहे। गांधीवाद भी असंचयी, अपरिग्रही बने रहते हुए देशज तकनीकि संसाधनों से आत्मनिर्भरता की वकालत करता है। लेकिन मनुष्य है कि तमाम बौद्धिक चेतनाओं के बावजूद धार्मिक जड़ता के औजार से पार नहीं पाया है। लिहाजा जैसे-जैसे समाजों में समृद्धि आती जाती है, वैसे-वैसे उनमें भय की व्यापतता बढ़ती जाती है। ऐसे में महिमामंडित की गर्इं अदृश्य शक्तियों का आकर्षण उसे यथार्थवाद से पलायन कर प्रतीकवाद की ओर धकेल देता है।

बहरहाल धर्म चाहे कोर्इ भी हो उनके नीति नियंता धर्मों को यथार्थ से परे चमत्कारों से महिमामंडित कर कूपमंडूकता के ऐसे कटटर श्रद्धालुओं की श्रृंखला खड़ी करते रहे हैं, जिनके विवेक पर अंधविश्वास की पटटी बंधी रहे और वे आस्था व अंधविश्वास के बीच बारीक लकीर के अंतर को समझ ही न पाएं।

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here