विजय कुमार
परमपिता परमेश्वर ने इस सृष्टि के निर्माण में बड़ा शारीरिक और मानसिक श्रम किया। उन्होंने धरती-आकाश, सूरज-चांद-सितारे, स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, पर्वत-नदियां, जलचर-थलचर.. न जाने क्या-क्या बनाया। फिर भी वे एक प्रजाति बनानी भूल गये। वह है सेक्यूलर।
सेक्यूलर की कोई परिभाषा आज तक निश्चित नहीं हुई। इसके लिए भारतीय भाषाओं में कोई अच्छा शब्द भी मुझे नहीं मिला। कुछ लोग उन्हें पंथनिरपेक्ष कहते हैं, तो कुछ धर्म और शर्मनिरपेक्ष; पर हम उन्हें सेक्यूलर ही कहेंगे।
तो साहब, हमारे मोहल्ले में भी एक सेक्यूलर जी रहते थे। नाम तो उनका माता-पिता ने कुछ इन्सानों जैसा ही रखा था। विद्यालय और फिर दफ्तर में वह नाम ही प्रयोग होता था; पर उनमें सेक्यूलरवाद के कीटाणु इतने प्रबल थे कि लोग उन्हें सेक्यूलर सर ही कहते थे। उन्हें भी इसमें कुछ गर्व का अनुभव होता था। यद्यपि उनका मत था कि वे सुपर ही नहीं सुपर डीलक्स सेक्यूलर हैं।
पर बहुत से लोगों की जुबान पर यह नाम नहीं चढ़ सका। इसलिए कोई उन्हें सुकलर कहता, तो कोई सिकलर। कुछ लोग उनके पूर्वजों को किसी विशेष काम से संबंधित समझ कर उन्हें कलीगर या फिर सीधे कारीगर ही कहने लगे। इसी तरह उनका जीवन बीत रहा था।
सेक्यूलर जी अपनी सबसे बड़ी विशेषता यह बताते थे कि वे किसी धर्म को नहीं मानते हैं; पर इसका वास्तविक अर्थ यह था कि वे हिन्दुओं की हर चीज से घृणा करते थे। मुसलमान और ईसाइयों के कार्यक्रम और पर्वों में वे उत्साह से जाते थे; पर होली, दीवाली, दुर्गा पूजा, गुरुपर्व या रक्षाबंधन आदि उन्हें पोंगापंथियों के पर्व लगते थे। हिन्दू विरोध से संबंधित कोई समाचार यदि अखबार में छपा हो, तो वे उसे मोटे पेन से घेर देते थे, जिससे सब उसे जरूर पढ़ें। इन आदतों से उनके बच्चे भी दुखी थे। इसलिए कई लड़के होने पर भी कोई उनके साथ रहना पसंद नहीं करता था।
ऐसे ही समय बीतता गया और एक दिन वे चल बसे। उनकी पत्नी पहले ही अतीत हो चुकी थीं और बच्चे बहुत दूर रहते थे। बच्चों को खबर की गयी, तो व्यस्तता का बहाना बनाकर उन्होंने मोहल्ला कमेटी से ही उनका क्रियाकर्म करने को कह दिया।
मोहल्ला कमेटी के लोग बहुत अच्छे थे; पर उनकी अंतिम क्रिया कैसे हो, इस पर मतभेद उत्पन्न हो गये। प्रश्न यह था कि चूंकि वे सेक्यूलर थे, इसलिए उन्हें जलाएं या दफनाएं ? जलाने पर वे हिन्दू सिद्ध हो जाएंगे और दफनाने पर मुसलमान या ईसाई। यदि उन्हें भगवा चादर से ढकें, तो वे हिन्दू मान लिये जाएंगे, हरी से ढकने पर मुसलमान और सफेद से ईसाई। यदि गंगाजल छिड़केंगे, तो हिन्दू कहलाएंगे, आब ए जमजम से मुसलमान और होली व१टर से ईसाई। मोहल्ले वाले उनके सेक्यूलरपने से परेशान तो थे; पर वे चाहते थे कि मरने के बाद जो भी हो, उनके मन के अनुकूल ही हो।
इस चक्कर में कई घंटे बीत गये; पर कोई निर्णय नहीं हो सका। अंतरजाल बाबा को सब समस्याओं का समाधान मानने वाले एक नवयुवक ने अपने लेपट१प पर इसका समाधान खोजना चाहा। वहां जो सुझाव मिले, उन्हें पढ़कर सबने सिर पीट लिया।
उसके अनुसार सेक्यूलर जी चूंकि किसी एक धर्म, पंथ, सम्प्रदाय या मजहब को नहीं मानते थे, इसलिए उन्हें किसी विशेष रंग की चादर में लपेटना, किसी विशेष जल से नहलाना और शमशान में जलाना या कब्र में दफनाना उचित नहीं है; लेकिन फिर क्या हो ? इस बारे में पूछा गया, तो उसने बड़ी अजीब बातें बतायीं।
उसने कहा कि सेक्यूलर जी को फटे, पुराने चिथड़ों में लपेटकर गंदे नाले के पानी से नहलाएं। फिर एक गधागाड़ी में डालकर उन्हें शहर से बहुत दूर जंगल में पेड़ पर उल्टा लटका दें, जिससे गीदड़, कुत्ते, बिल्ली, चूहे, कौए, सियार, मक्खी, मच्छर आदि उनके मृत्युभोज का आनंद उठा सकें।
मोहल्ले वालों ने फिर उनके लड़कों से पूछा। लड़कों ने कहा कि जो आपकी समझ में आये, कर लें। पिताजी ने जीवित रहते हमें कम दुखी नहीं किया, अब मरने के बाद तो चैन से रहने दें।
झक मार कर मोहल्ले वालों ने यही किया। पता नहीं सेक्यूलर जी के शरीर को सद्गति मिली या नहीं। आत्मा तो उनमें थी ही नहीं, इसलिए उसकी बात सोचना व्यर्थ है।
सेक्युलर यानि धर्मनिरपेक्ष आपने इस लेख से धर्मनिरपेक्ष लोगो को सही स्थान पर जगह दे दी है धन्यवाद
जब कबीर दास मंदिर और मस्जिद दोनों को गाली दे रहे थे,तब वे कौन पंथ निरपेक्षिता निभा रहे थे?यहाँ मैं कबीर दास के केवल दो दोहें उद्धरित करूंगा,जिसे मुझे उम्मीद है कि आप भी पढे होंगे.ये दोनो दोहे हैं;
1.पाहन पूजे जो हरी मिलैं तो मैं पुजूं पहार
तातें यह चक्की भली जो पीस खाये संसार.
2.काँकर पाथर जोडी कै मस्जिद लिये बनाये,
ता चढी मुल्ला बाँग दे क्या बहरा हुआ खुदाय?
यह कौन सी पंथ निरपेक्षिता है?यही कि उन्होंने तो दोनों को गाली दे दी, इसलिए वे पंथ निरपेक्ष हो गये? आप जैसे हिन्दुओं से मेरा यही अनुरोध है कि पहले हिन्दू तो बनिए,और जाति पांति अगड़ा पिछड़ा से उपर उठिए तब किसी पर छीटा कसी कीजिए. मेरे विचार से ऐसे भी इन तथा कथित सेक्युलर और आजकल के हिंदुत्व की गुहार लगाने वालों में कोई ख़ास अंतर नही लगता,क्योकिं विचारों की संकीर्णता में* दोनों एक से बढ़ कर एक हैं.ऐसे बुरा न मानिए तो एक बात कहूं ,,मुझे तो इस व्यंग का स्तर भी थोड़ा घाटिया सा लगा.
छद्म सेकुलरो को कस के जूता मारा है प्रभु…धन्यवाद स्वीकार करें
सुन्दर व्यंग्य –बधाई, विजय कुमार जी|
ऐसा सेक्यूलर स्वर्ग जायगा. जन्नत या हेवन ?
कबीर दास को सेक्युलर कह कर उन्हें गाली मत दीजिये… कबीर पंथ निरपेक्ष थे
आदरणीय विजय कुमार जी शानदार प्रस्तुति…अब इन सेक्युलरों को सोचना पड़ेगा कि इनका अंत कैसा होगा? कहीं ऐसा ही तो नहीं???
आभार…
सबसे बड़े सेक्युलर तो कबीर दास हुए हैं,उनके बारे में आपका क्या ख्याल है?