शराबबंदी और लोकायुक्त के लिए एक प्रतिबद्ध गांधीवादी ने त्यागे प्राण

शैलेन्द्र चौहान
राजस्थान में सम्पूर्ण शराबबंदी और मजबूत लोकायुक्त कानून बनाए जाने की मांग को लेकर गुरुशरण छाबड़ा लम्बे समय से आंदोलनरत थे. 2 अक्टूबर से आमरण अनशन पर चल रहे छाबड़ा का साथ उनकी हिम्मत ने तो नही लेकिन शरीर ने जरुर साथ छोड़ दिया. 3 नवम्बर 2015 को 66 वर्ष की उम्र में वे अधूरी साध लिए दुनिया से विदा हो गए. गुरुशरण छाबड़ा का जन्म गंगानगर जिले के सूरतगढ़ कसबे में एक साधारण परिवार में हुआ था. उनकी गिनती ऐसे राजनेताओं में होती है जिन्होने स्वंय के हितों को परे रखकर जनता के हितों को ही सर्वोपरि माना. वर्ष 1977 में छाबड़ा जनता पार्टी के टिकट पर सूरतगढ़ से विधायक चुने गए थे. उस समय से ही वे जनता के हितों के लिए लड़ रहे थे. उन्होंने जानेमाने सर्वोदयी नेता गोकुलभाई भट्ट के साथ मिलकर प्रदेश में सम्पूर्ण शराबबंदी को लेकर सन 1980 में लम्बा आंदोलन भी चलाया था. लेकिन सम्पूर्ण शराबबंदी को लेकर कई मर्तबा स्वंय की जान को जोखिम में डालने वाले गुरुशरण छाबड़ा के साथ कांग्रेस और बीजेपी दोनों सरकारों ने ही छल किया. वे जब भी अनशन पर बैठते सियासी योद्धा उन्हें आश्वासन देकर उनका अनशन तुड़वा देते. वह चार बार लम्बे समय तक अनशन पर बैठे लेकिन इस बार उन्होंने आरपार की लड़ाई लड़ने का मानस बना लिया था या तो वे अपने प्राण त्याग देंगे या फिर प्रदेश में सम्पूर्ण शराबबंदी ही लागू होगी. छाबड़ा के परिवार के सदस्यों के अनुसार वे शराबबंदी इसलिए चाहते थे क्योंकि समाचार पत्रों और न्यूज़ चैनलों पर शराब पीकर पतियों द्वारा पत्नियों के साथ मारपीट और नाबालिग लड़कियों और महिलाओं के साथ बलात्कार जैसे गंभीर मामले अक्सर सुनाई पड़ते थे. इससे वे बहुत विचलित हो जाते थे. वहीँ शराब के चक्कर अनेकों लोगों की गृहस्थी भी नष्ट हो जाती है. वे पैसे-पैसे को मोहताज हो जाते हैं. वे सम्पूर्ण शराबबंदी और सशक्त लोकायुक्त कानून की मांग पर 2014 में सरकार के साथ हुए समझौते को लागू नहीं करने से नाराज थे। वर्ष 2014 के अप्रैल-मई में भी उन्होंने 45 दिन का अनशन किया था, जिसके फलस्वरूप वसुंधरा राजे सरकार ने उनके साथ एक लिखित समझौता किया था कि शीघ्र ही एक सशक्त लोकायुक्त कानून तथा शराबबंदी के लिए कमेटी गठित की जाएगी, और उस कमेटी की सिफारिशों को माना जायेगा. मगर लिखित वादे पर एक साल बाद भी क्रियान्वयन न होने पर गुरुशरण छाबड़ा इस साल गांधी जयंती के अवसर पर फिर से अनशन पर बैठ गए. इस बार प्रदेश के कई संगठनों तथा सक्रिय लोगों ने उनके आन्दोलन का समर्थन किया. अनशन के 17वे दिन पुलिस ने उन्हें अनशन स्थल से उठा लिया तथा जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में जबरन भर्ती करा दिया. वहां पर भी छाबड़ा ने अपना अनशन जारी रखा तथा राज्य में शराबबंदी और मज़बूत लोकायुक्त कानून बनाने की मांग को दोहराया. सामाजिक कार्यकर्ता और छाबड़ा के सहयोगी सवाईसिंह और धर्मवीर कटेवा बताते हैं कि छाबड़ा जब पिछले साल अनशन पर बैठे थे, उस समय सरकार ने लिखित समझौता किया था. जब लिखित समझौते की पालना नहीं की तब छाबड़ा ने सरकार को बार बार पत्र लिखे। उन्होंने मुख्यमंत्री, गृह मंत्री, मुख्यसचिव से लेकर हर स्तर पर चिट्ठी लिखकर सरकार को समझौते में किया गया वादा याद दिलाया। जब सरकार से कोई रेस्पॉन्स नहीं मिला तो छाबड़ा पुनः 2 अक्टूबर को अनशन पर बैठ गए. इस बार जब अनशन पर बैठे तो सरकार के किसी प्रतिनिधि ने बात करना तक उचित नहीं समझा। जिन दो मंत्रियोें राजेंद्र राठौड़ और अरुण चतुर्वेदी के समझौते पर दस्तखत थे वे भी बात करने नहीं आए. राजस्थान सरकार गुरुशरण छाबड़ा की मांगों को लेकर कितनी गंभीर थी, इसका अंदाज़ा चिकित्सा मंत्री राजेन्द्रसिंह राठौड़ के बयान से पता चलता है. मंत्रीजी का स्पष्ट कहना है कि प्रदेश में शराबबंदी संभव नहीं है, क्योंकि यह राजस्व से जुड़ा मामला है. राजस्थान को शराब की बिक्री से कोई 6300 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त होता है. इसलिए राजस्व को देखते हुए शराबबंदी की मांग को नहीं माना जा सकता. मंत्री महोदय का यह भी मानना है कि जिन राज्यों ने शराबबंदी की है उनके अनुभव अच्छे नहीं रहे है. यह कुछ हद सही भी है. गुजरात का मॉडल हमारे सामने है जहां पूर्ण शराबबंदी के बावजूद शराब की खपत सामान्य तौर पर होने वाली खपत से अधिक है. वहां एक सामानांतर वितरण व्यवस्था निर्मित हो गयी है जिसमें पुलिस, प्रशासन से लेकर बहुत से नेता शामिल हैं. हरियाणा और पंजाब से वहां लगातार शराब की सप्लाई चल रही है. मजबूत लोकायुक्त की मांग पर उन्होंने कहा कि एडवोकेट जनरल की अध्यक्षता वाली कमेटी बनी है जो अन्य राज्यों के साथ अध्ययन कर रही है, जल्दी ही निर्णय हो जायेगा. कुल मिलाकर आशय यह कि राज्य में मजबूत लोकायुक्त कानून के लिए वे तैयार नहीं हैं क्योंकि इससे उनकी अपनी शक्ति काम होती प्रतीत होती है. यहां बात सिर्फ राजस्व घाटे की पूर्ति या कर उगाही की नहीं है और न ही एक सशक्त कानून लाने भर की है. बात यह है कि एक लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी हुयी कल्याणकारी सरकार अपने नागरिकों की बात को कितना सुनती है? सुनती भी है या नहीं? आखिर एक पूर्व विधायक और गांधीवादी बुजुर्ग नेता एवं सामाजिक कार्यकर्ता की भी परवाह नहीं की गयी तो आम इन्सान की क्या सुनी जाएगी. वह भूख हड़ताल करते हुए ही संसार से चले गए. इससे यह जाहिर होता है कि आखिर जनता के आंदोलनों का कितना महत्त्व है इस सरकार के लिए? गांधीवादी गुरुशरण छाबड़ा की मांग और तरीके को लेकर मतभेद हो सकता है. उनकी मांग की व्यावहारिकता और प्रासंगिकता को लेकर बहस हो सकती है. उसे मानना या न मान पाने की राजनीतिक व आर्थिक मजबूरियां गिनाई जा सकती है. मगर लोकतंत्र में यह कैसे संभव है कि एक शांतिपूर्ण आन्दोलनकर्ता को यूँ ही मरने के लिए छोड़ दिया जाये? उसकी सुनी ही न जाये और अंततः उसके मृत्यु वरण करने की ही नौबत आ जाए और तब भी सरकार अपने सामन्ती रौब और सत्ता के नशे में चूर रहे? यह स्वस्थ प्रजातंत्र की निशानी नहीं है बल्कि यह एक रुग्ण राजतन्त्र के लक्षण हैं.

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