अब आसमान तुम्हारा है, भगवान तुम्हारा है

न धान होगा, न आसमान होगा,
नभ पर धान बोने वाला न वो किसान होगा
क्योंकि विद्रोही पंक्तियों में, रिकॉर्डेड आवाजों में सीमित हो गया है…….लेकिन शब्दों के साथ किरदार लंबा है….

आवाजें तमाम थीं, सुबकियों की, श्रद्धांजलि की, ऊं शांति की. साथ ही उनकी रचना मैं भी मरूंगा और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे लोगों के जहन में जिंदा होकर खुद को दुहरा रही थी. हां इस बीच कुछ लोग विद्रोही के तमगे को लेकर गफलत की स्थितियों में भी फंस गए. जिसकी वजह से स्वर्गीय हो चुके विद्रोही की शक्ल को पहचानने के लिए गूगल करने लगे. दरअसल आज उत्तर प्रदेश का एक और कोना अनाथ हो गया. जी हां सुलतानपुर का वो विद्रोही 8 दिसंबर को दुनिया को अलविदा कह गया. जिसके बाद सोशल मीडिया पर शोक संदेशों की बयार सी चल पड़ी.

सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें, फिर मैं मरूं आराम से…

जी हां इन पंक्तियों के मालिक आज हमारे बीच नहीं हैं. पर, उनकी कविताएं उनकी मौत को हकीकत का जामा पहनाने से रोक रही हैं. विद्रोही बीते मंगलवार को पिछले डेढ़ माह से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के दफ्तर के सामने सरकार की शिक्षा नीतियों के विरोध में हो रहे धरना-प्रदर्शन में शामिल होने पहुंचे थे. दोपहर के वक्त धरनास्थल पर अचानक उनके शरीर में कंपन हुआ और कुछ देर बाद उनकी सांसें थम गईं. डॉक्टरों ने मृत्यु की वजह ब्रेन डेथ यानि दिमाग का अचानक काम करना बंद कर देना बताया है.

कुछ दबे-छिपे पल

छात्र जीवन के बाद भी विद्रोही ने जेएनयू को अपना बसेरा ही माना. उनका कहना था कि जेएनयू मेरी कर्मस्थली है, मैंने यहां के पहाड़ों में, हॉस्टलों में, जंगलों में अपने जीवन के कीमती दिन गुजारे हैं. रमाशंकर यादव उर्फ विद्रोही ने बगैर किसी आय के श्रोत के, छात्रों के सहयोग के साथ कैंपस के अंदर दिन गुजारे. एक वक्त ऐसा भी आया कि विद्रोही के परिसर में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी. दरअसल अगस्त 2010 में जेएनयू प्रशासन ने आपत्तिजनक और अभद्र भाषा को कारण बताकर विद्रोही के जेएनयू परिसर में प्रवेश को प्रतिबंधित कर दिया. तीन दशकों से घर समझने वाले जेएनयू परिसर से बेदखली उनके लिए मर्मांतक पीड़ा से कम नहीं थी.

अवधारणाओं पर कटाक्ष करते हुए रमाशंकर यादव विद्रोही ने कभी आसमान पर धान बो दिए तो कभी सतीत्व की परंपरा पर सवाल खड़े कर दिए. बहरहाल इनमें से कुछेक सवाल हमेशा उठते रहेंगे. विद्रोही की कलम से, रचना से, बुलंद आवाज से अंधविश्वास के खिलाफ.

कुछ औरतों ने अपनी इच्छा से कूदकर जान दी थी
ऐसा पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज है
और कुछ औरतें अपनी इच्छा से चिता में जलकर मरी थीं
ऐसा धर्म की किताबों में लिखा हुआ है

मैं कवि हूँ, कर्त्ता हूँ
क्या जल्दी है

मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ
औरतों की अदालत में तलब करूँगा
और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूँगा

मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूंगा
जो श्रीमानों ने औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किए हैं
मैं उन डिक्रियों को भी निरस्त कर दूंगा
जिन्हें लेकर फ़ौजें और तुलबा चलते हैं
मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा
जो दुर्बलों ने भुजबलों के नाम की होंगी.

मैं उन औरतों को
जो अपनी इच्छा से कुएं में कूदकर और चिता में जलकर मरी हैं
फिर से ज़िंदा करूँगा और उनके बयानात
दोबारा कलमबंद करूँगा
कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया?
कहीं कुछ बाक़ी तो नहीं रह गया?
कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई?

क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ
जो अपने सात बित्ते की देह को एक बित्ते के आंगन में
ता-जिंदगी समोए रही और कभी बाहर झाँका तक नहीं
और जब बाहर निकली तो वह कहीं उसकी लाश निकली
जो खुले में पसर गयी है माँ मेदिनी की तरह

औरत की लाश धरती माता की तरह होती है
जो खुले में फैल जाती है थानों से लेकर अदालतों तक……………..विद्रोही मरते नहीं रचनाओं में जीते हैं, हर हकीकत और हक की लड़ाई में शब्दों की कलाबाजियों में दिखते हैं……आप अमर हैं.

हिमांशु तिवारी आत्मीय

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