घटती औद्योगिक उत्पादन दर और समावेशी विकास

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प्रमोद भार्गव

मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चल रही यूपीए2 सरकार की वह कामयाबी कटघरे में है, जिसके बूते वह अपनी अन्य नाकामियों पर पिछले सात-आठ साल से परदा डालती चली आ रही है। मसलन सरकार की सफलता की रीढ़ बनी औद्योगिक उत्पादन वृद्वि दर में इस साल लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। सरकार का दावा था कि चालू वित्त वर्ष में नौ फीसदी की विकास दर हासिल कर वह डगमगाती अर्थव्यवस्था को पटरी पर ले आएगी। लेकिन खासतौर से विनिर्माण और खनन क्षेत्रों में निराशाजनक प्रदर्शन के चलते मई में औद्योगिक वृद्धिदर घटकर 5.6 प्रतिशत पर आ गई, जो बीते साल इस अवधि में 8.5 प्रतिशत थी। यही नहीं देश के छह बुनियादी उधोगों के आंकड़े भी चिंताजनक हैं। इधर प्रत्यक्ष पूंजी निवेश में आई 25 फीसदी की गिरावट ने भी सरकार के माथे पर बल दिए हैं। दूसरी तरफ राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सलाह मान लेने के कारण केंद्रीय मंत्री मण्डल ने खाद्य सुरक्षा कानून और खनन एंव खनिज विकास तथा विनिमय विधेयक में जिस तरह सामाजिक सरोकारों को महत्ता दी है, उस परिप्रेक्ष्य में भी लगता है औद्योगिक उत्पादन दर में इस पूरे वित्तीय साल में गिरातट ही दर्ज होती रहेगी। लेकिन इस स्थिति को सामाजिक
सरोकारो से जुड़े समावेशी विकास के रूप में देखा जाना चाहिए।

राजनीति के स्तर पर तमाम मुश्किलों का सामना कर रही केंद्र सरकार अब अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर भी संकट के बादलों से घिरती नजर आ रही है। मई में जहां यह वृद्धि 5.6 पर दर्ज की गई वहीं अप्रैल माह में 6.3 फीसदी थी।जबकि पिछले साल इसी समयावधि में यह 16.5 फीसदी रही थी। आमतौर से औद्येगिक प्रगति को औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक (आईआईपी) से नापा जाता है। इनकी परस्पर अनुकूल सहभागिता विकास की वृद्धि दर दर्शाती है। ताजा उत्पादन दर की हकीकत को झुठलाने के नजरिए से सरकार ने औद्योगिक उत्पादन सूचकांक की शुरूआत को एक नए पैमाने से आधार दिया है। अब १९९३-९४ को आधार वर्ष मानने की बजाय २००४-०५  को आधार वर्ष मानते हुए एक नई श्रृंखला जारी की है। इसके मुताबिक अप्रैल में विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर संशोधित कर 5.7 प्रतिशत कर दी गई, जबकि इसके पहले 6.3 प्रतिशत वृद्धि का अंदाज लगाया गया था। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में 75 प्रतिशत से अधिक भारांश रखने वाले विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर
मई 2011 में महज 5.6 प्रतिशत रही जो बीते साल के इसी समय में 8.9 प्रतिशत थी। इसी तरह खनन क्षेत्र में महज 1.4 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल की जो बीते साल मई में 7.9 फीसदी थी।

दूसरी और पूंजीगत सामान क्षेत्र की वृद्धि दर भी महज 5.9 फीसदी रही जो पिछले साल मई में 15.8 प्रतिशत थी। वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी भी औद्योगिक वृद्धि के इन
आंकड़ों से उत्साहित नहीं हैं। इसलिए उन्होंने विनिर्माण क्षेत्र की उत्पादकता बढाने के संकेत दिए है। गिरावट में स्थिरता बनी रहने पर हो सकता है सरकार इस उद्योग की मजबूत बनाए रखने की दृष्टि से आर्थिक पैकेज की भी घोषणा करे। क्योंकि यही ऐसा क्षेत्र है जो अर्थव्यवस्था में सबसे ज्यादा अहमियत रखता है। इसी
क्षेत्र में रोजगार बड़ी तादाद में निकलते हैं। पूंजीगत सामान की सबसे अधिक खपत भी इसी क्षेत्र में होती है और नया पूंजी निवेश इसकी दर के सूचकांक के मुताबिक
ब़ढताघटता रहता है। किंतु पूंजीगत वस्तुओं की बिक्री में चालूं वित्तीय साल के पहले तीन महीनों में कोई ज्यादा उठाव नहीं आया। यह महज ढाई से तीन प्रतिशत के बीच झूलती रही, जबकि पिछले साल इसी समय में यह दर 64 प्रतिशत थी।

पूंजीगत वस्तुओं में उठाव नहीं होने के कारण ही प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश घटकर 25 फीसदी रह गया। इस साल अब तक निवेशकों को ललचाने के अनेक उपाय करने के बाबजूद महज 19.42 अरब डॉलर निवेश हो सका है, जबकि २००९-१०में यह 25.83 अरब डॉलर और 2008-09 में 27.33 अरब डॉलर था। दक्षिण एशिया में भारत अकेला ऐसा देश है जहां चालू वित्त वर्ष में कम पूंजी निवेश हुआ है। इस सबके बावजूद निर्यात में 57 फीसदी की वृद्धि दर्ज हुई है, इसी कारण अर्थव्यवस्था चौपट होने से बमुश्किल बची हुई है। निर्यात भी ज्यादातर उन वस्तुओं का हुआ है जो प्राकृतिक खनिज उत्पादनों और कृषि उत्पादनों से जुड़े है। इससे यह जाहिर होता है कि भोगउपभोग को बढ़ावा देने वाली बाजारवादी नीतियां भारतीय अर्थव्यवस्था को स्थायी मजबूती देने के नजरिए से कारगर नहीं हैं। आर्थिक साख को अंततः मजबूती प्राकृतिक संपदा के दोहन और अच्छी कृषि पैदावार से ही मिलती है। इसके बावजूद हम खेतीकिसानी को नजरअंदाज करते हुए पूंजीवादी भोगवादी संस्कृति को लगातार बढ़ावा दे रहे हैं। सरकारी कर्मचारियों को छठा वेतनमान देने से भी अर्थव्यवस्था लड़खड़ाई है। इस वेतन वृद्धि से भ्रष्टाचार पर तो अंकुश लगा नहीं उल्टै सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों में गिरावट देखने में आ रही है। पूरे देश में आपराधिक कृत्य तो आमफहम हो ही रहे हैं, जिस कंप्युटर बनाम संचार क्रांति को हम प्रगति, समृद्वि और पारदर्शिता का वाहक मान रहे थे वह सोशल कही जाने वाली साइटों के जरिए पोर्नोग्राफी और अश्लील वार्तालाप का हिस्सा बनती जा रही है। इससे ऊर्जावान लोगों की रचनात्मकता का भी हृास हो रहा है।

हालांकि मानसून सत्र में सरकार ने जिन दो विधेयकों को पारित करने का मन बनाया है, उनका मसौदा देखकर जरूर लगता लगता है कि सरकार अब सामाजिक सरोकारों की ओर कदम बढ़ा रही है। हालांकि ऐसा सरकार सोनिया गांधी की नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के दबाव में कर रही है। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता वाले मंत्री समूह ने आखिरकार बहुप्रतीक्षित खाद्य सुरक्षा विधेयक को मंजूरी दे दी। इसके कानूनी रूप में आ जाने के बाद बहुत कम दाम पर गेहूं चावल गरीबों को मिलेगें। और करीब 75 फीसदी ग्रामीण तथा 50 फीसदी शहरी गरीबों को इसका लाभ मिलेगा। इसी तरह नए खनन विधेयक के मसौदे को मंत्री समूह ने मंजूरी दे दी। इसके अनुसार अब खनन कंपनियों द्वारा विस्थापितों की कंपनी के लाभ में 26 प्रतिशत की भागीदारी होगी। इससे कंपनियों के मुनाफे में 12 हजार करोड़ से लेकर 15 हजार करोड़ तक की कमी आएगी। लिहाजा औद्योगिक उत्पादन दर तो प्रभावित होगी लेकिन इस विकास को समावेशी कहा जाएगा क्योंकि इसके लाभांश से सीधा वह वंचित तबका जुड़ेगा, जिसके औद्योगिक विकास के लिए अजीविका के संसाधन छीने गए  थे। इसलिए जरूरी है औद्योगिक विकास के ऐसे मानदण्ड तय हों जो गरीबी दूर करने वाले  हों। ऐसी सकारात्मक स्थिति में औद्योगिक उत्पादन दर घटती भी है तो समावेशी विकास के  पारिप्रेक्ष्य में उसके कोई मायने नहीं रह जाते।

 

 

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