निश्चय ही राजनीति के शुद्धिकरण की आवश्यकता है

0
209

politics new नरेश भारतीय

 

“बकवास है यह अध्यादेश और इसे फाड़ कर फैंक दो !” अधिकार और अहंकार की भनक मिलती है इन शब्दों में जो और किसी के नहीं कांग्रेस के उपाध्यक्ष और देश के भावी प्रधानमंत्री पद के लिए आगे बढ़ाए जाने वाले युवराज राहुल के हैं. कांग्रेस के ही एक नेता अजय माकन की प्रेस कांफ्रेंस में अचानक प्रकट हो कर उन्होंने उस अध्यादेश की धज्जियां उड़ा दीं जिसकी सिफारिश सरकार से उनकी अपनी कांग्रेस पार्टी ने, देश के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के ठीक विपरीत, दागी नेताओं को बचाने के लिए सरकार से की थी. प्रेस कांफ्रेंस में राहुल गाँधी के हाव भाव से यह स्पष्ट था कि उन्हें इस बात की तनिक भी चिन्ता नहीं कि वे पार्टी की बैठक में नहीं सार्वजानिक मंच पर हैं. उन्होंने इसकी भी कोई परवाह नहीं की कि देश के प्रधानमन्त्री श्री मनमोहनसिंह, जिनकी अध्यक्षता में हुई मंत्रीमंडल की बैठक में इस अध्यादेश योजना को स्वीकार करके आगे बढ़ाया गया था, वे देश से बाहर हैं. जिस  अध्यादेश पर राहुल टिप्पणी कर रहे थे राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए महामहिम के पास ही है और वे पहले ही इस पर अपनी असहमति जता चुके हैं.

कहाँ थे राहुल गाँधी जब पार्टी ने पहले पहल इसका फैसला किया था? यदि वे वहीं थे जब संसद में भी तद्विषयक एक संशोधन विधेयक के ज़रिए ‘दागी सांसदों और विधायकों को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के प्रभाव से बचाने की चेष्ठा की गयी थी तो क्या उन्होंने तब इसका विरोध किया था? क्या अध्यादेश को सरकार के द्वारा राष्ट्रपति के पास भेजने से पूर्व उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया दी थी? प्रकटत: बिलकुल नहीं. लेकिन २८ सितम्बर की प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने बल देकर यह भी कहा कि उन्हें ‘”हर उस बात में रूचि है जो कांग्रेस कर रही है और हमारी सरकार कर रही है. और वे समझते हैं कि ये सब गलत हो रहा है.” यदि वाकया ही ऐसा है तो क्या उन्हें हर क्षण यह जानकारी नहीं रहती होगी कि किस समय पार्टी में क्या सोच हावी है और क्यों? यदि जैसा कि उन्होंने बाद में जतलाया, वे इससे सहमत नहीं थे तो क्या कारण है कि उन्होंने सही समय पर इसे रोकने के लिए कार्यवाई नहीं की? खुले आम पार्टी और सरकार से भिन्न मत प्रकट करके स्वयं को सबसे ऊपर खड़ा करने की तिकड़म दिखाने की उन्हें क्या आवश्यकता थी? उनका यह कहना कि “बकवास है यह अध्यादेश इसे फाड़ कर फैंक दो” ऐसे लगा जैसे राहुल किसी को आदेश दे रहे हों. वह भी तब जब तीर उन्हीं की पार्टी के नेतृत्व की सरकार के हाथ से निकल चुका था. यह उनकी राजनीतिक परिपक्वता का परिचय कतई नहीं देता. इस पर भी चाटुकारिता के घेरे में पूरी तरह से घिरे ‘राहुल जी’ अब पार्टी के सर्वेसर्वा कहलाने लगे हैं. विरोधियों के द्वारा परिवारवादी कहलाने वाली कांग्रेस का कोई भी नेता इसे झुठलाने का साहस भी नहीं करता. इसी ध्रुवसत्य के आलोक में यह नहीं माना जा सकता कि राहुल अपनी पार्टी और सरकार के किसी भी फैसले से पहले अनभिज्ञ थे और अचानक पता चलने पर ही उन्होंने २८ सितम्बर को प्रेस कांफ्रेंस में ऐसा ब्यान दिया जिसकी चपेट में देश के माननीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आए और जिससे प्रधानमंत्री पद की मानमर्यादा को गहरी चोट पहुंची.

बहरहाल, इस समय सारे देश के लोगों की निगाहें उन समस्याओं के समाधान होते देखने को आतुर हैं जो बरसों से उन्हें सता रही हैं. व्यापक भ्रष्टाचार, बढ़ती महंगाई, ग़रीबी का फैलाव, देश के अन्दर असुरक्षा का प्रादुर्भाव, सीमाओं पर बढ़ती घुसपैठ और पाकिस्तान की धरती पर से प्रायोजित आतंकवादी हमलों की मार झेलते झेलते थक गए हैं देश के लोग. उस पर एक के बाद एक घपले घोटालों के होते खुलासों से भी संत्रस्त है जनता और निरंतर कमज़ोर पड़ती जा रही है अर्थव्यवस्था. कथित धर्मनिरपेक्षता का पाखंड और साम्प्रदायिक एवं जातीय आधार पर देश के समाज का राजनीतिक स्वार्थपूर्ति के लिए किया गया खण्डित स्वरूप बार बार उभर कर सामने आता है. अल्पसंख्यकवाद को प्रोत्साहन देते हुए जो दल स्वयं साम्प्रदायिक वोटबैंक खड़े करने और लोगों का राजनीतिक शोषण करने की प्रतिस्पर्धा में जुटे हैं उनसे सामजिक समरसता का वातावरण कायम करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है. उलजलूल आरक्षणों की खेली जाती राजनीतिक शतरंज के मोहरे मात्र बने हुए हैं आम लोग जिन्हें एक दूसरे के साथ निरंतर भिड़ाया जाता है. मुजफ्फरपुर की घटनाएं स्पष्ट संकेत दे रही हैं कि साम्प्रदायिक वोटबैंक की यही राजनीति उसी द्विराष्ट्रवाद को पुनर्जन्म दे रही है जिसके बल पर पाकिस्तान बना था और जो लगातार भारत के और विभाजनों के विषबीज अपनी आई.एस. आई के माध्यम से समूचे देश की धरती पर बिखेर रहा है. पाकिस्तान की लोकतंत्रीय सरकार का उस पर कोई नियंत्रण नहीं है. हम शांति शांति की रट लगाए बैठे हैं और सीमापार से शांति के दुश्मन हमारे विरुद्ध जिहादी युद्ध छेड़े हुए हैं जो थमता दिखाई नहीं देता.

इन परिस्थितियों में देश को आज फिर एकात्म राष्ट्रवाद की आवश्यकता है जिसमें मज़हब, सम्प्रदाय और जाति से अप्रभावित नागरिक समानता का पुष्ट आधार कायम किया जा सके. लेकिन राष्ट्रवाद शब्द का उच्चारण भी आज देश में वर्जित बना दिया गया है जिसके बल पर हमने विदेशी पराधीनता की बेड़ियों को का काटा था. किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र में एक राष्ट्रीयता का सिद्धांत जब काम करता है तो सामाजिक समानता और समरसता का स्वप्न साकार होता है. अमरीका, ब्रिटेन और यूरोप के सभी लोकतंत्र इसी राष्ट्रीयता के सिद्धांत के अंतर्गत सांस्कृतिक विविधताएं होते हुए भी नागरिक समानता के लक्ष्य को पूरा करने में सफल हुए हैं. भारत के संविधान के मूलभूत निर्देशों में इसी नागरिक समानता के लक्ष्य की पूर्ति का निर्देश समाहित है जिसकी छद्म सेकुलरवाद की दुहाई देते हुए राजनीतिकों ने घोर उपेक्षा की है. समाज को टुकड़ों में बाँट कर समानता की भावभूमि कभी भी उर्वरा नहीं बनती. इसलिए समय आ गया है कि देश की सजग होती जनता नाप तौल कर और बिना किसी प्रकार के दबाव के अपने संवैधानिक अधिकारों का सम्यक उपयोग करके यह स्पष्ट निर्णय दे कि उसके हित कहाँ जुड़े हैं. व्यापक गरीबी, अनपढ़ता और जातीय विभाजीयता की दुरावस्था में विदेशियों के द्वारा समाज में फूट का बीजारोपण करके हमारे शोषण का तानाबाना बुना गया था. कैसी विडम्बना है कि स्वाधीन भारत में भी उसी ‘बांटो और राज करो’ की कुटिल नीति के अवलंबन की पुनरावृत्ति हो रही है. अब इसे ही ध्वस्त करने की आवश्यकता है.

वर्तमान सन्दर्भ में देश के राजनीतिक दलों ने इतनी सहजता के साथ यह कैसे मान लिया कि देश के लोग ‘दागी सांसदों और विधायकों’ की सदन सदस्यता को बचाए रखने की उनकी स्वार्थपरक कोशिश को समर्थन देंगे? सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय की उपेक्षा उन्हें स्वीकार्य होगी जिसमें उन सांसदों और विधायकों की सदन सदस्यता तुरंत समाप्त करने का प्रावधान किया गया है जो किसी अपराध के दोषी पाए गए हैं और दो वर्ष से अधिक कारावास का दंड प्राप्त हैं. क्या गलत है इसमें? जनप्रतिनिधियों के रूप में चुने हुए राजनीतिकों को चाहिए था कि जनहित में इस ऐतिहासिक निर्णय का स्वागत करते. लेकिन जनहित के स्थान पर अपने और अपनी पार्टी के हितों की रक्षा को महत्व देते हुए किसी पार्टी के नेता ने खुल कर इसका स्वागत नहीं किया. सभी राजनीतिक दलों को इसमें इसलिए खतरे की घंटी सुनाई दी. इस विषय पर पहले भाजपा में दोबारा आत्ममंथन के पश्चात उसके मुख्य नेता राष्ट्रपति के पास गए और विवादित अध्यादेश पर हस्ताक्षर न करने का अनुरोध किया. कांग्रेस के नेता प्रवक्ता सब राहुल के नाटकीय बयान के बाद ही पैंतरा बदलते नज़र आए. संभवत: प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के अमरीका से लौट आने के बाद अध्यादेश को वापस भी ले लिया जाए. यदि ऐसा होता है तो क्या सरकार और विपक्षी दल सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को अक्षरक्ष: लागू करके देश के संसद और विधानपालिकाओं को दागी सदस्यों से मुक्त करेंगे? और क्या आने वाले चुनावों में राजनीतिक दल दागियों को दंगल में उतारने से बचेंगे? यदि ऐसा नहीं हुआ और गठबंधन राजनीति की विवशताओं के कारण सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवहेलना का कोई और तोड़ निकालने की चेष्ठा बनी रही तो यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण होगा.

इसी संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने एक और यह ऐतिहासिक निर्णय दिया है कि देश के मतदाताओं को नकारात्मक मतदान के द्वारा सभी प्रत्याशियों को अस्वीकार कर देने का अधिकार है. इसके अनुसार न्यायालय द्वारा चुनाव आयोग को आदेश दिया गया है कि वह इलेक्ट्रोनिक मतदान मशीनों में और मतपत्रों पर प्रत्याशियों की सूची के अंत में ‘कोई नहीं’ का विकल्प भी उपलब्ध करे. इसका अर्थ यह है कि भविष्य में किसी भी क्षेत्र का कोई भी मतदाता यदि किसी भी कारणवश चुनावी दंगल में उतरे प्रत्याशियों में से किसी से भी संतुष्ट नहीं है तो ‘कोई नहीं’ विकल्प का इस्तेमाल कर सकता है. सुनने में आया है कि कुछ राजनीतिक दलों में इससे भी हड़बड़ी मची हुई है. इसका अर्थ स्पष्ट है कि स्वार्थवादी राजनीति के पावों तले धरती खिसकने लगी है. जहाँ तक देश के जनसामान्य का सम्बन्ध है उसकी दृष्टि में भारत की न्यायपालिका के द्वारा ऐसे महत्वपूर्ण निर्णयों के लिए उसका अभिनंदन किया जाना चाहिए. न्यायपालिका जनता के हितों की रक्षार्थ विधानपालिका और कार्यपालिका को सजग और सचेत करने की भूमिका निभाने को तत्पर हुई है. कानून बनाने वाले निकायों, राष्ट्रीय संसद और राज्य विधानसभाओं, में कानून तोड़ने वाले जनप्रतिनिधियों का प्रवेश लोकतंत्र की नींव को कमज़ोर करता है. भ्रष्टाचार के समाचारों से सतत संत्रस्त देशवासियों के लोकतंत्र के प्रति क्षीण होते विश्वास को सर्वोच्च न्यायालय के ये निर्णय पुन: उबारने में तभी सक्षम सिद्ध होंगे यदि सरकार, संसद और जनता मुक्त स्वर में इनका स्वागत करते हुए पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ इन्हें देश के व्यापक हित में लागू करेंगे. राजनीति के ऐसे ही शुद्धिकरण की आज नितांत आवश्यकता है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here