बौद्धिक आपातकाल : एकजुट हों लोकतांत्रिक आवाजें

—संजय द्विवेदी के साथ खड़ें हों कवि,लेखक और पत्रकार

अंकुर विजयवर्गीय

Press Releaseमध्यप्रदेश ही नहीं देश के यशस्वी पत्रकार, लेखक, मीडिया शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता संजय द्विवेदी को लेकर मप्र कांग्रेस के एक प्रवक्ता की टिप्पणी बेहद शर्मनाक है। कांग्रेस ने उनके एक लेख पर आपत्ति जताते हुए उन्हें नौकरी से निकालने की मांग की है। यह घटना बताती है राजनीति किस स्तर पर पहुंचकर लेखकों को डराने-धमकाने के उपक्रम में लगी है। चुनाव बीत जाएंगें, सारा कुछ सामान्य हो जाएगा। किंतु किसी लेखक को आपने अगर पक्षपाती, दुराग्रही और एकतरफा लिखने वाला साबित कर दियाए तो उसकी प्रतिष्ठा का क्या होगा?

शब्द-शब्द संघर्ष

मप्र और दिल्ली में पत्रकारिता करते हुए मेरी अनेक पत्रकारों और संपादकों से मुलाकात हुई है, किंतु संजय द्विवेदी जिस संतुलन से चीजों, मित्रों, विविध विचारधाराओं को साधते हैं और उनसे संवाद बनाते हैं, वह गजब है। वे ही हैं जो राहुल गांधी जब देश को देखने निकले, तो उनकी इस भारत खोज का समर्थन कर सकते हैं। वे ही हैं, जो अन्ना आंदोलन में एक सक्रिय लेखक की तरह देश में परिवर्तन की बेचैनी को स्वर देते हैं। वे ही हैं, जो कांग्रेस के दिग्गज नेता अर्जुन सिंह के अभिनंदन ग्रंथ में एक सहयोगी संपादक की तरह शामिल हो सकते हैं। अभी हाल में उन्होंने कांग्रेस के पूर्व मंत्री और वरिष्ठ नेता स्वर्गीय बीआर यादव के सम्मान में न सिर्फ ‘कर्मपथ’ नामक पुस्तक का संपादन किया, वरन उसके विमोचन के लिए दिग्विजय सिंह, चरणदास महंत जैसे नेता बिलासपुर के उस आयोजन में शामिल हुए।

ईमानदार पत्रकार

संजय द्विवेदी का समूचा लेखन एक उदार लोकतांत्रिक मनीषा का परिचायक है। वे समाजवादी चिंतक और पत्रकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, वामपंथी विचारधारा के पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह पर पुस्तकें लिख चुके हैं, जो बहुचर्चित हैं। कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा और नंदकुमार पटेल की मौत पर उन्हें भावुक होते हुए देखा है। वे अपने राजनीतिक रिश्तों में भी ईमानदार भी हैं और नैतिक भी। छत्तीसगढ़ में दैनिक भास्कर और हरिभूमि के लोकप्रिय संपादक रहे तथा वहां के पहले सेटलाइट न्यूज चैनल जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ के प्रारंभकर्ताओं और एकंर रहे। उनकी पूरी पत्रकारिता पर कभी सवाल नहीं उठे।

विश्वविद्यालय एक स्वायत्तशासी निकाय

विश्वविद्यालय के शिक्षक कोई शासकीय कर्मचारी नहीं होते। कोई भी विश्वविद्यालय एक स्वायत्तशासी निकाय है। अनेक राज्यों में तो विश्वविद्यालय शिक्षक चुनाव भी लड़ते हैं रीता जोशी बहुगुणा से लेकर कुमार विश्वास जैसे अनेक उदाहरण सामने है। मप्र कांग्रेस द्वारा इस तरह से समाज के बौद्धिक वर्ग को धमकाना और उनको नौकरी से बर्खास्त करने का मांग करना कहां तक न्यायोचित है? वैसे भी प्रधानमंत्री के खिलाफ कितना लिखा जा रहा है और उनके पूर्व सहयोगियों की पुस्तकें भी आ रही हैं। संजय द्विवेदी के एक लेख से ऐसा कौन सा तूफान आ गया था। मुझे लगता है माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय की आतंरिक राजनीति का शिकार बनकर कांग्रेस गुमराह हो रही है। कहा जा रहा है कि संजय द्विवेदी कुलपति के इशारे पर लिख रहे हैं, जहां तक मैं जानता हूं संजय द्विवेदी से कोई लिखवा नहीं सकता, क्योंकि वे अपनी कलम के प्रति ईमानदार और प्रतिबद्ध पत्रकार-लेखक हैं। इसलिए किसी व्यक्ति के एक लेख के आधार पर उसका मूल्यांकन नहीं हो सकता। जिस लेख को प्रधानमंत्री का अपमान करने वाला बताया जा रहा है, वह एक बेहद सामान्य राजनीतिक विश्लेषण है। संजय जी के इस लेख को पढ़कर कहीं नहीं लगता कि वे किसी का अपमान कर रहे हैं। बेहद सधी हुई पत्रकारीय भाषा में उन्होंने अपनी बात रखी है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन

आप किसी के विचारों से असहमत हो सकते हैं, किंतु उसकी समूची लेखकीय साधना पर सवाल उठा देना ठीक नहीं है। जिस प्रकार की घटिया भाषा का इस्तेमाल राजनेता आपसी संवाद,टीवी चर्चाओं और चुनाव प्रचार में कर रहे हैं, उसकी तुलना तो किसी भी प्रकार के पत्रकारीय लेखन से नहीं की जा सकती। 14 अप्रैल के टाइम्स आफ इंडिया में तो एक आईएसएस अधिकारी एस.कृष्णा ने लेख लिखकर कांग्रेस के प्रधानमंत्री और श्रीमती सोनिया जी की कड़ी आलोचना की है। यानि हर व्यक्ति निजी तौर पर अपने विचार रखने के लिए स्वतंत्र है। मप्र कांग्रेस कमेटी का उक्त कृत्य विश्वविद्यालय की सतही राजनीति में उलझने का मामला है। अपने काम, सतत लेखन और सामाजिक सक्रियता से संजय द्विवेदी मप्र और छत्तीसगढ़ में जो नाम अर्जित किया है, यह उसे धूल में मिलाने की एक साजिश है।

आखिर किसने लगवाए आरोप

अफसोस है कि कांग्रेस प्रवक्ता तथ्यों को जाने-बिना एक ईमानदार शख्स के खिलाफ बोल गए और किन्हीं निहित स्वार्थी तत्वों के हाथ में खेल गए। एक उदार लोकतांत्रिक स्वभाव के धनी संपादक और ‘मीडिया विमर्श’ जैसी पत्रिका के बेहद लोकप्रिय कार्यकारी संपादक ही नहीं बल्कि बहुत अच्छे इंसान संजय द्विवेदी पर लगने वाले आरोप मप्र और छत्तीसगढ़ के न जाने उनके कितने राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकार मित्रों, सहयोगियों, विद्यार्थियों और पाठकों को दुखी करते हैं। कांग्रेस प्रवक्ता ने जाने-अनजाने जो किया है, उससे राजनीति के प्रति समाज की आस्था और कम ही होती है- बढ़ती नहीं है। क्योंकि एक लोकतांत्रिक समाज में क्या हम बौद्धिक और वैचारिक आपातकाल लगाना चाहते हैं?

अब एकजुटता दिखाने का समय

हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि गजानन माधव मुक्तिबोध कहते थे हमें अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे, इसलिए लेखकों, पत्रकारों और विचारकों के लिए यह संकट भरा समय है, जब राजनीतिक दल अपने विचारों को हमारे माध्यम से प्रकट होते देखना चाहते हैं। अगर नहीं, तो वे असहिष्णुता और धमकियों पर उतर आते हैं। इस कठिन समय में शब्द के साधकों की एकता ही हमें बचा सकती है, वरना राजनीतिक तंत्र का अधिनायकत्व हमें कुचलकर दम लेगा। आज संजय द्विवेदी पर लगे आरोपों पर आनंदित होने वाले शब्दसाधकों को यह ध्यान होगा कि कल उनके खिलाफ भी ऐसी बेसुरी आवाजें उठ सकती हैं-तब उन्हें बचाने कौन आएगा?

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अंकुर विजयवर्गीय
टाइम्स ऑफ इंडिया से रिपोर्टर के तौर पर पत्रकारिता की विधिवत शुरुआत। वहां से दूरदर्शन पहुंचे ओर उसके बाद जी न्यूज और जी नेटवर्क के क्षेत्रीय चैनल जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ के भोपाल संवाददाता के तौर पर कार्य। इसी बीच होशंगाबाद के पास बांद्राभान में नर्मदा बचाओ आंदोलन में मेधा पाटकर के साथ कुछ समय तक काम किया। दिल्ली और अखबार का प्रेम एक बार फिर से दिल्ली ले आया। फिर पांच साल हिन्दुस्तान टाइम्स के लिए काम किया। अपने जुदा अंदाज की रिपोर्टिंग के चलते भोपाल और दिल्ली के राजनीतिक हलकों में खास पहचान। लिखने का शौक पत्रकारिता में ले आया और अब पत्रकारिता में इस लिखने के शौक को जिंदा रखे हुए है। साहित्य से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं, लेकिन फिर भी साहित्य और खास तौर पर हिन्दी सहित्य को युवाओं के बीच लोकप्रिय बनाने की उत्कट इच्छा। पत्रकार एवं संस्कृतिकर्मी संजय द्विवेदी पर एकाग्र पुस्तक “कुछ तो लोग कहेंगे” का संपादन। विभिन्न सामाजिक संगठनों से संबंद्वता। संप्रति – सहायक संपादक (डिजिटल), दिल्ली प्रेस समूह, ई-3, रानी झांसी मार्ग, झंडेवालान एस्टेट, नई दिल्ली-110055

1 COMMENT

  1. संजय द्विवेदी पत्रकार रहे है, और पत्रकारिता पढ़ा रहे है। उनके लिखे को एक लेख की तरह देखा जाना चाहिये, कांग्रेसी अपनी मानसिकता बदले और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करें

  2. मेरे लिए ये एक अतिसामान्य घटना होती । पर मेरे अनुज अंकुर विजयवर्गीय के माध्यम से ही मैं संजय द्विवेदी जी के बारे में जान सका हूँ और जितना जान सका हूँ उसके हिसाब से ऐसे लोगों का पथ विचलन संभव ही नहीं है। लोकतंत्र में एक लेखिनी की ताकत पर अंकुश लगाना शर्मनाक है जिसका शायद कोई समर्थन नहीं करेगा।

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