तो कांग्रेस-मुस्लिम दबदबे के असम में भाजपा जीती। और वह भी दो टूक बहुमत की जीत। क्या कोई कल्पना कर सकता था कि जिस प्रदेश में तीस प्रतिशत से अधिक मुस्लिम वोट है वहा भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ अपनी सरकार बना ले! क्या यह सेकुलर राजनीति का ढहना नहीं है? दूसरा उदाहरण पश्चिम बंगाल का है। कांग्रेस और वाम मोर्चे ने मुस्लिम वोटों की निर्णायकता में सेकुलर राजनीति में एलायंस बना कर चुनाव लड़ा। बावजूद इसके ममता बनर्जी की आंधी आई और धर्मनिरपेक्ष-जनवादी राजनीति का झंडाबरदार वाम मोर्चा तीसरे नंबर पर चला गया। कांग्रेस से भी कम सीटे मिली। सो बंगाल का आज का नतीजा कम्युनिस्टों का बंगाल की खाड़ी में बहना है। कुछ सर्वे और एग्जिट पोल ने कांग्रेस-लेफ्ट के एलायंस के मजबूती से उभरने की उम्मीद बंधाई थी। लेकिन परिणाम सामने है। सो पांच विधानसभाओं के चुनाव नतीजों का पहला सबक यह है कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह की राजनीति और उनके एजेंडे का विरोध करने वाली ताकतों का राष्ट्रीय स्तर पर पराभव है और रहेगा। कांग्रेस के राहुल गांधी ने कम्युनिस्टों के साथ एलायंस बना कर पश्चिम बंगाल में अपने पांव कुल्हाड़ी मारी। यदि ममता बनर्जी के साथ एलायंस किया होता तो आज कांग्रेस बम-बम होती। राहुल गांधी को , कांग्रेस को अति मुस्लिम निर्भरता, अति जनवाद और हिंदू विरोध अंततः नुकसानदायी हो रहा है, यह आज के नतीजो में कई तरह से प्रमाणित है।
हां, कल-परसों जब पार्टियों का वोट प्रतिशत पूरा मालूम होगा तो उसमें भाजपा पांचों गैर-परंपारगत प्रदेशों में वोट और मुकाबले की दूसरे नंबर की सीटों में ठिकठाक स्थिति में होगी। तभी आगे संभव है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में मुकाबला तृणमूल कांग्रेस बनाम भाजपा में हो। कांग्रेस और लेफ्ट तब वहां फारवर्ड ब्लाक जैसी हैसियत में चुनाव लड़ रहे होंगे। मतलब पांच विधानसभा चुनाव नतीजों ने भाजपा को इन प्रदेशों में पांव टिकाने की ठोस जमीन दी है। पूर्वोत्तर के राज्यों में असम, अरूणाचल प्रदेश के बाद बाकि राज्यों में भी भाजपा साम,दाम,दंड, भेद से अपने को बढ़ा देगी।
आज कांग्रेस, लेफ्ट व सेकुलर जमात का यही मुख्य रोना था कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह जैसी राजनीति वे नहीं कर सकते। असम में उन्होंने तोड़फोड़ कर अपनी सत्ता बनाई। कांग्रेस के प्रवक्ता अरूणाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर का हवाला देते हुए यह कहते हुए सुनाई दिए कि भाजपा जैसी राजनीति कर रही है वैसी हम नहीं कर सकते। कांग्रेस को तोड़कर भाजपा अपने को बढ़ा रही है। असम में हिमंता बिस्वा शर्मा को कांग्रेस से तौड़ा। कांग्रेस के लोगों को भाजपा ने अपनाया।
भला भाजपा ऐसा क्यों न करें? अमित शाह यदि भारत को कांग्रेस मुक्त बनाना चाहते है तो कांग्रेस के ही औजारों से उसे मार कर ऐसा न करें, यह युद्व का नियम किसने बनाया हुआ है?
संदेह नहीं कि जीत की आज महानैत्री ममता बनर्जी और जयललिता हैं। मैं इस कॉलम में दोनों की संभावनाओं पर इस बात के हवाले लिखता रहा हूं कि सुनाई क्या दे रहा है और लग क्या रहा है। मतदान के आखिरी चरण के आते-आते असम, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु तीनों जगह से सुनाई दिया था कि जो सोच रहे है वैसा नहीं है। ममता बनर्जी फंसी हुई है। तमिलनाडु में कांग्रेस-डीएमके एलायंस ने दम पा लिया है। और असम के आखिरी चरण के मतदान में कांग्रेस ने अपने को काफी आगे बना लिया है। जाहिर है ऐसा हल्ला हुआ तो उसमें राष्ट्रीय राजनीति में हवा बनाने वाली सेकुलर जमात और मीडिया का एक रोल है। न अपन को समझ आया और न विश्वास हुआ कि बंगाल का नंबर एक और सचमुच प्रतिष्ठाजनक व निष्पक्ष आनंदबाजार पत्रिका में कैसे यह राय बनी या विश्लेषण हुआ कि ममता बनर्जी को बहुत तगड़ी टक्कर मिल रही है।
दरअसम असम, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु तीनों में सेकुलर ताकत का खम ठोंक टक्कर देने का मीडियाई हल्ला सांप्रदायिक राजनीति की काट के लिए था। मतलब उन्ही ताकतों की हवा हो जो नरेंद्र मोदी-अमित शाह के खेल को काटने, उनसे मुकाबला करने में समर्थ है। अपना मानना है इसी थीसिस में राहुल गांधी को लेफ्ट के साथ एलायंस बनाने के लिए प्रेरित किया गया। सोनिया गांधी या कांग्रेस के पुराने नेता जहां ममता बनर्जी के साथ एलायंस की सोच में थे वहीं जनवादी जमात, एनजीओ छाप रणनीतिकारों ने राहुल गांधी को सीताराम यचूरी की तरफ धकेला।
उस नाते कह सकते है कि राष्ट्रीय राजनीति में जो भाजपा विरोधी सेकुलर पंडित है उन्हे न तो नरेंद्र मोदी- अमित शाह के रोडमैप की समझ है और न ये जनता के मनोभाव को बारीकि से बूझ सकते है। कांग्रेस और लेफ्ट को एलायंस में खड़ा करवा कर ये 2019 के लिए जो सोच रहे थे वह रणनीति आज पंचर हो गई है। आज से सबकुछ क्षत्रप और क्षेत्रिय राजनीति की तरफ मुडा होगा। राहुल गांधी और लेफ्ट आउट और नीतिश कुमार के बाद ममता बनर्जी नई धुरी बनेगी। ममता बनर्जी आज की जीत से बम-बम हो कर राष्ट्रीय राजनीति में कूदेगी। नीतिश कुमार, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, मायावती, जयललिता की धुरियों पर आगे क्या होगा, यह तो वक्त बताएगा मौटे तौर पर आज माना जा सकता है कि मई का महिना नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए बलशाली है। 2014 में भी मई का महिना था और 2016 की भी मई में नरेंद्र मोदी और अमित शाह को ऐसा जनादेश मिला है जिससे वे अपने को रिइनवेंट, रिकिंडल कर सकते हैँ।
पर क्या करेंगे?