प्रकृति का विनाशक है आर्थिक विकास मॉडल

आपदा के लिए जिम्मेदार है आर्थिक विकास मॉडल

 कुन्दन पाण्डेय

उत्तराखंड की प्रचंड प्राकृतिक आपदा के लिए ‘भोग-उपभोग’ केंद्रित मानव का आर्थिक विकास मॉडल सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। दो महीने पहले जारी किए गए रिपोर्ट में कैग ने बताया कि उत्तराखंड आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने 2007 में स्थापना के बाद से इस प्रचंड आपदा के आने तक अपनी एक भी बैठक नहीं की थी। बैठक नहीं हुई तो कोई नीति भी नहीं बनी। कागज में पैदा हुआ प्राधिकरण वास्तविक भूमि पर पैदा ही नहीं हो पाया था आपदा के आने के पहले तक पिछले कम से कम 5 वर्षों में।

पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि बाढ़वाली नदी के रास्ते को फ्लड वे (वाहिका) कहते हैं। यदि नदी में एक शती में भी बाढ़ आए तो उसे फ्लड वे कहते हैं। केदारनाथ से निकलने वाली नदी मंदाकिनी के पूर्वी और पश्चिमी दो वाहिकाएं हैं। बहुत समय से मंदाकिनी पूर्वी वाहिका में ही बहती रही तो लोगों ने उसके पश्चिमी फ्लड वे पर धुंआधार निर्माण किए। इस वर्ष अचानक पानी बढ़ने से मंदाकिनी पश्चिमी फ्लड वे पर बहने लगी और रास्ते में आए सभी अवरोधों को पलक झपकते ही वहां से बहा ले गयी। मंदाकिनी की सहायक नदियों विष्णुगंगा, भागीरथी, पिंडर और धौली ने भी अपना असामान्य विकराल रूप दिखाया। सवाल यह है कि सरकार ने पश्चिमी फ्लड वे पर निर्माण क्यों होने दिया?

दुनिया भर के मानव सम्मिलित रुप से एक वर्ष में करीब 8 अरब मीट्रिक टन कार्बन पर्यावरण में उत्सर्जित करते हैं, जबकि बदले uttrakhandमें पर्यावरण का पारिस्थितिकी तंत्र, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व मानवता को लगभग 3258 खरब रुपये से भी कही अधिक मूल्य की सेवाएं प्रदान करता है। कितना आश्चर्यजनक तथ्य है कि मानव सभ्यता के कांटों के सौगात के बदले, प्रकृति अब भी मानव को फूलों का गुलदस्ता बिना रुके, बिना थके भेंट करती जा रही हैं। क्या सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव, पर्यावरण को गंभीर क्षति पहुंचाकर सृष्टि की सबसे विकृत कृति बनता जा रहा है? मानव तो नहीं, लेकिन मानव द्वारा अंगीकृत आर्थिक विकास मॉडल जरूर विकृत होता जा रहा है।

 यूएनओ के प्रयत्नों से जापान के क्योटो में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर रोक लगाने के लिए एक ठोस समझौता हुआ था, जिसे फरवरी 2005 से लागू करना था। संसार के न केवल 141 देशों ने इस पर अपने हस्ताक्षर किए बल्कि अधिकतर देशों की संसद ने भी इसका अनुमोदन कर दिया। परन्तु इन देशों की संसदों की सारी कवायदें तब धरी की धरी रह गईं, जब अमेरिका की सीनेट ने इसका अनुमोदन नहीं किया।

योजना आयोग द्वारा 12वीं पंचवर्षीय योजना की जारी की गई रिपोर्ट में बताया गया है कि 11 वीं पंचवर्षीय योजना की अवधि (2007-2012) के दौरान प्राकृतिक आपदा से 1.56 लाख करोड़ रूपए की विशुद्ध क्षति हुई है, इसमें स्थानीय अर्थव्यवस्था को हुआ नुकसान शामिल नहीं है। केवल प्राकृतिक आपदा से वर्ष 2001-2011 के दौरान 21,975 लोग मारे गए हैं। अमेरिका इस तरह के मामलों में 6 घंटे पहले अलर्ट जारी कर देता है। जापान और ब्राजील भी घंटों पहले क्षेत्र विशेष के लिए अलर्ट जारी कर देते हैं। भारत के पास विश्व स्तरीय राडार आधारित डॉप्लर सुनामी अलर्ट सिस्टम है। भारत को हिमालय क्षेत्र में इसका प्रयोग करना चाहिए।

इतने प्रचंड प्राकृतिक आपदा के बाद मौसम विभाग कह रहा है कि हमने तो पहले ही 15-16 जून को पूरे उत्तराखंड में भारी बरसात की चेतावनी दे दी थी। इस पर राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) का कहना है कि यह सामान्य चेतावनी थी, जो किसी क्षेत्र विशेष के लिए नहीं थी। इसके एक बात पूरी तरह साफ है कि दोनों में ट्यूनिंग होती तो क्षति वर्तमान के मुकाबले बहुत कम होती।

तीर्थाटन में विश्वास रखने वाले भारतीय भोगवादी पर्यटन में विश्वास रखकर धार्मिक स्थलों पर जाते हैं, और वहां जमकर सालों तक नष्ट न होने वाले प्लास्टिक और अन्य प्रदूषण फैलाते हैं। एक तरफ पेड़ों का काटकर पहाड़ों को कमजोर बना दिया गया है, तो दूसरी तरफ पहाड़ों औऱ चट्टानों को विस्फोट से तोड़कर और अस्थिर कर दिया गया है। भ्रष्ट राजनीतिक दलों से मिलकर भू माफियाओं और खनन माफियाओं ने तो पहाड़ों को खोखला करके आपदा को निमंत्रण दे दिया।

सीमेंटेड बिल्डिंगें, सीमेंटेड सड़कें और वातानुकूलन के बढ़ते चाह से पर्यावरण तेजी से गर्म हो रहा है। देवभूमि में पर्यटन को चमकाने के लिए सड़कों का संजाल बिछाया जा रहा है, लेकिन सड़कें मजबूत नहीं बनाई जा रही है। क्योंकि चट्टानों को काटकर मजबूत सड़कों का निर्माण करना पूंजीसाध्य, समयसाध्य और श्रमसाध्य होता है। इससे बचने के लिए कम लागत में पहाड़ी ढ़लानों से आने वाले नाले से आकर बने मलबे को काटकर जल्दी सड़कें बना दी गईं। ये मलबे मिट्टी, राख, छोटे-छोटे कंकड़-पत्थर तथा बालू आदि से बने होते हैं, जो काटने से बेहद कमजोर हो जाते हैं। इन सड़कों के साथ भारी बरसात के समय पानी के तेजी से निकलने की कोई व्यवस्था नहीं की गई।

भारत और चीन तथा हिमालय के चारों तरफ के देशों के लिए हिमालय व गंगोत्री, यमुनोत्री के ग्लेशियरों के 2035 तक पिघलकर समाप्त होने की संभावना चिंताजनक है। वर्तमान में हिमालय के ग्लेशियर 18 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पिघल रहे हैं। इससे एशिया की एक तिहाई जनसंख्या को पानी देने वाली बड़ी नदियां समाप्त हो जायेंगी। गंगा के न होने पर भारत और बंग्लादेश के धान के कटोरे हमेशा के लिए न केवल सूख जायेंगे बल्कि सूखे से भी ग्रस्त हो जायेंगे। क्या भारत के लोग गंगा नदी और अपने धान की फसल से हमेशा-हमेशा के लिए महरुम होना पसंद करेंगे?

Previous article‘पदमावत’चौपाई हो ?
Next articleयहां सब ऐसे ही चला है प्यारे!
कुन्दन पाण्डेय
समसामयिक विषयों से सरोकार रखते-रखते प्रतिक्रिया देने की उत्कंठा से लेखन का सूत्रपात हुआ। गोरखपुर में सामाजिक संस्थाओं के लिए शौकिया रिपोर्टिंग। गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातक के बाद पत्रकारिता को समझने के लिए भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी रा. प. वि. वि. से जनसंचार (मास काम) में परास्नातक किया। माखनलाल में ही परास्नातक करते समय लिखने के जुनून को विस्तार मिला। लिखने की आदत से दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण, दैनिक जागरण भोपाल, पीपुल्स समाचार भोपाल में लेख छपे, इससे लिखते रहने की प्रेरणा मिली। अंतरजाल पर सतत लेखन। लिखने के लिए विषयों का कोई बंधन नहीं है। लेकिन लोकतंत्र, लेखन का प्रिय विषय है। स्वदेश भोपाल, नवभारत रायपुर और नवभारत टाइम्स.कॉम, नई दिल्ली में कार्य।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here