विकास मात्र एक व्यापारिक गतिविधि नहीं है

शैलेन्द्र चौहान-

narendra modiभारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का तीन दिवसीय चीन दौरा 14 मई को शिआन से शुरू होगा, जो दुनिया के 4 प्रमुख प्राचीन शहरों (तीन अन्य एथेंस, काहिरा और रोम) में से एक है. यह चीन के शांक्सी प्रांत की राजधानी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग का गृहनगर भी है. मोदी ने अपनी चीन यात्रा के बारे में उम्मीद जताई है कि उनकी इस यात्रा से परस्पर विश्वास प्रगाढ़ होगा, द्विपक्षीय आर्थिक रिश्तों को उन्नत बनाने के लिए एक रूपरेखा तैयार होगी और यह एशिया एवं विकासशील देशों के लिए  मील का पत्थर साबित होगी. अपने दौरे से पहले चीन के सरकारी चैनल सीसीटीवी से मोदी ने कहा, ‘मेरा मानना है कि चीन के मेरे दौरे से केवल चीन-भारत दोस्ती ही मजबूत नहीं होगी, बल्कि यह दौरा एशिया में विकासशील देशों के साथ ही दुनिया भर में रिश्तों के लिए नया मील का पत्थर होगा, इसमें जरा भी संदेह नहीं है.’ मोदी ने कहा कि वह इस बात पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं कि भारत और चीन कैसे परस्पर विश्वास एवं भरोसे को आगे मजबूत कर सकते हैं ताकि संबंध की पूर्ण क्षमता का दोहन हो सके. उन्होंने कहा, ‘मैं हमारे आर्थिक संबंधों को गुणात्मक रूप से उन्नत बनाने के लिए रूपरेखा तैयार करने और बदलते भारत की आर्थिक प्रगति खासकर विनिर्माण क्षेत्र एवं बुनियादी ढांचे के विकास में चीन की व्यापक भागीदारी को लेकर उत्सुक हूं.’ भारत और चीन दोनों नई उभरती अर्थव्यवस्था हैं और विकास दोनों की सामान अभिलाषा है. पिछले 65 वर्षों में हालांकि चीन और भारत के बीच विवाद भी हुए, फिर भी अच्छे पड़ोसी जैसे मैत्रीपूर्ण सहयोग हमेशा ही प्रमुख धारा रही है. खास कर 21 वीं सदी में प्रवेश के बाद दोनों का तेज विकास हुआ. भारत चीन संबंध घनिष्ठ सहयोग और चतुर्मुखी विकास के नए दौर में प्रवेश कर चुके हैं. दोनों के बीच संपर्क निरंतर मजबूत हो रहा है और आपसी राजनीतिक विश्वास भी स्थिर रूप से प्रगाढ़ हो रहा है. अलग-अलग क्षेत्रों में सहयोग का निरंतर विस्तार किया जाता रहा  है.

1962 में युद्ध के बाद से भारत में चीन के प्रति गहरा अविश्वास है. इस अविश्वास को इस बात से और बल मिलता है कि चीन भारत के विकास को रोकना चाहता है. इसका एक उदाहरण सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट पाने की भारत की कोशिश है. चीन भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट देने के विचार से उत्साहित नहीं है लेकिन उसने कभी खुल कर इसके खिलाफ बोला नहीं है. चीन ने हमेशा कहा है कि इसके लिए अंतरराष्ट्रीय तौर पर व्यापक सहमति की जरूरत है. चीन ने 20 अक्तूबर 1962 को दो तरफ से भारत पर जब हमला बोला, तो उसके सैनिकों की संख्या भारत से पांच से दस गुना ज्यादा थी. चीनी सेना मौजूदा भारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश और अकसई चिन में बहुत अंदर तक घुस आई. महीने भर चले युद्ध में 2000 लोग मारे गए. चीन से युद्ध हारने के बाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर खासा दबाव पड़ा और उन पर कटाक्ष भी किए गए. भारतीय मीडिया ने यहां तक कहा कि नेहरू मासूम बने रहे और उनके पास दूरदृष्टि नहीं थी. “नेहरू खुद इस बात से उबर नहीं पाए”,  भारत के सैनिक अधिकारियों ने कई बार चेतावनी दी थी कि उनके पास जंग के लिए जरूरी साजोसामान नहीं हैं, “अधिकारियों ने यह भी कहा कि यह इलाका चीन के लिए फायदेमंद है क्योंकि भारत को पहाड़ियों के ऊपर चढ़ना पड़ता है और रणनीतिक तौर पर चीन ऊपर है, जिसका उसे फायदा मिलता है. यदि इतिहास में देखा जाये तो ब्रिटिश प्रभुत्व से निकलने के बाद चीन और भारत अपने उपनिवेशवादी इतिहास को भुलाना चाह रहे थे और इसलिए उन्होंने पहले बहुत दोस्ताना रिश्ते रखे, “नेहरू का एक नजरिया था कि चीन से दोस्ती रखी जाए”, नेहरू का मानना था कि दोनों देशों में कई ऐतिहासिक समानताएं हैं और दोनों ने काफी मुश्किलें देखी हैं. नेहरू समझते थे कि इसे ध्यान में रख कर भारत चीन ध्रुव बनाया जा सकता है. “इसलिए नारा बना, हिन्दी चीनी भाई भाई.” 1954 में दोनों देशों ने पंचशील सिद्धांत पर दस्तखत किए, जिसमें शांतिपूर्ण तरीके से साथ साथ रहने के पांच सूत्र तय किए गए. चीन ने भारत के सामने प्रस्ताव रखा कि अगर उसे अकसई चिन मिल जाए, तो वह मैकमेहोन रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा मान लेगा. तिब्बत को काबू में करने के दौरान चीन अकसई चीन में काफी अंदर तक घुस आया था. एक तरह से वहां चीन की ही हुकूमत चल रही थी. “चीन के लिए आर्थिक तौर पर अकसई चीन ज्यादा महत्व नहीं रखता था और न ही वह भौगोलिक क्षेत्रफल बढ़ाने के लिए यह इलाका हासिल करना चाहता था”, लेकिन वह इसके सहारे अपने पश्चिमी हिस्सों तक आसानी से पहुंच सकता था और इसे पुल बना कर देश के बुनियादी ढांचे का विकास करना चाहता था. “दोनों देशों में उस वक्त राष्ट्रवाद बढ़ने लगा.” चीन भारत सीमा पर हल्की फुल्की झड़प भी बढ़ती गई. 1959 में दलाई लामा ने तिब्बत से भाग कर भारत में शरण लिया. ये द्विपक्षीय रिश्तों में गहरी दरार साबित हुई. भारत और चीन ने कभी भी औपचारिक तौर पर युद्ध की घोषणा नहीं की. दोनों पक्षों ने विवाद को सीमित रखना चाहा. फिर भी इस विवाद को दुनिया भर में बहुत चिंतित नजरों से देखा गया क्योंकि उसी वक्त क्यूबा संकट भी चल रहा था. भारत चीन युद्ध में एक लोकतांत्रिक और एक वामपंथी देश उलझे थे. पूरी दुनिया में क्यूबा संकट के साथ शीत युद्ध एक नए मुकाम पर था. 20 नवंबर 1962 को चीन ने अपनी तरफ से युद्धविराम घोषित किया और मैकमेहोन लाइन से 20 किलोमीटर पीछे हट गया. चीन का मकसद सिर्फ इतना था कि भारत को अपनी ताकत बता दी जाए. लड़ाई शुरू होने के बाद भारत ने अमेरिका से भी सैनिक मदद मांगी थी. चीन ने हमेशा यह सफाई दी कि भारत को चेतावनी देना और सबक सिखाना जरूरी था. चीन ने इसके साथ अपना चेहरा तो बचाया लेकिन व्यापक तौर पर देखा जाए तो उसने बहुत कुछ गंवा दिया. मुझे अफसोस है कि ये युद्ध ने भारत की जनता के दिल में गहरी छाप छोड़ी है. इसकी वजह से चीन के प्रति अविश्वास और नफरत पैदा हुआ. युद्ध पहली नजर में चीन की जीत और भारत की हार से खत्म हुआ. लेकिन सच्चाई कुछ और है. चीन एक विजेता है लेकिन उसने कुछ जीता नहीं और भारत पराजित राष्ट्र है लेकिन वह कुछ खोया नहीं. विजेता ने असल में सब कुछ हारा लेकिन उस पर हारे हुए की मुहर नहीं लगी. भारत और चीन के बीच युद्ध की जड़ आपस में भरोसे की कमी थी. आज तक इस गांठ को सुलझाया नहीं जा सका है. लेकिन दोनों देश व्यावहारिक हैं और दोनों के रिश्ते इस वक्त बहुत बुरे नहीं हैं. लेकिन अगर उन रिश्तों की गहराई में देखा जाए, तो अनेक समस्याएं दिखती हैं.

भारत और चीन दोनों प्राचीन सांस्कृतिक देश हैं. दोनों का लंबा इतिहास और संस्कृति है चीन भारत का पड़ोसी देश है. पड़ोसी से अच्छे संबंध रखना एक अपरिहार्य आवश्यकता होती है. तनावपूर्ण संबंध बनाए रखने में तो कितनी ही ऊर्जा, धन और संसाधन व्यर्थ खर्च होंगे. इस नाते भारत और चीन, जो दुनिया की उभरती हुई ताकतें हैं, दोनों को देखना होगा कि कितने मुद्दों पर सहमति बनाई जा सकती है. यहां भारत के आगे अनेक मुश्किलें हैं. भारत चीनी सीमा विवाद, पाकिस्तान को चीन का समर्थन और गलत तरीके से हथियार उपलब्ध कराना. ये भारत के लिए बड़ी चुनौतियां हैं, जिनका सामना बड़े ही कूटनीतिक तरीके से भारत को करना होगा. यह स्पष्ट है कि भारत, चीन का एक बड़ा प्रतिद्वंदी बनकर उभर रहा है और चीन अकसर संयुक्त राष्ट्र में भी भारत का विरोध करता है. भारत के लिए चीन के साथ द्विपक्षीय संबंधों को अच्छा रखने के प्रयास के साथ साथ अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए पूरी प्रतिबद्धता और मजबूती से अपने पक्ष को रखना आवश्यक है. लेकिन इस विषय में कई बार भारत के प्रतिनिधि कमजोर दिखते हैं. “भारत खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहता है. वहां आजाद प्रेस और न्यायपालिका है, लेकिन करोड़ों भूखे बच्चे हैं. चीन पर कम्युनिस्ट पार्टी का शासन है, आज वह दुनिया की दूसरी बड़ी आर्थिक सत्ता है. वहां हर आदमी को रोजी-रोटी, रहने और स्वास्थ्य सुविधाओं की पूरी गारंटी है. विकास मात्र एक व्यापारिक गतिविधि नहीं है. क्या मोदी अपनी चीन यात्रा से यह भी सीखेंगे कि कुपोषण, भूख और गरीबी भारत के लिए अभिशाप है जिससे मुक्ति कैसे संभव हो सकती है.

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  1. प्रस्तुत लेख को ‘फास्ट-फारवर्ड’ करते आपके प्रश्न ‘क्या मोदी अपनी चीन यात्रा से यह भी सीखेंगे कि कुपोषण, भूख और गरीबी भारत के लिए अभिशाप है जिससे मुक्ति कैसे संभव हो सकती है?’ तक आ पहुँच मैं आपको याद दिलाऊंगा कि चीन यात्रा से कई माह पूर्व बीते स्वतंत्रता दिवस प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी ने लाल किले की प्राचीर से भारत पुनर्निर्माण की रूपरेखा व्यक्त करते उन्होंने करोड़ों दिलों में आत्मविश्वास जगा दिया है। वसुधैव कुटुंबकम में विश्वास लिए आज प्रधान मंत्री प्रत्यक्ष विदेशी निवेश द्वारा विकास कर सामान्य भारतीय जीवन को सुखमयी बनाना चाहते हैं| विकास मात्र एक व्यापारिक गतिविधि न हो परन्तु अन्य आर्थिक कारकों के साथ व्यापार अवश्य ही विकास का एक महत्वपूर्ण अंग है| इससे पहले कि आप और हम प्रधान मंत्री जी को आदेश दें उन्हें देश के लिए क्या करना होगा क्यों न हम अपने से पूछें कि भारत के सभी गाँव, कस्बे, और शहर गंदे क्यों हैं, यहां गरीबी क्यों है, यहाँ आधुनिक सामाजिक उपलब्धियों का अभाव क्यों है, और जीवन में अनैतिकता और भ्रष्टाचार दीमक की तरह भारतीय समाज को क्योंकर नष्ट कर रहे हैं? राष्ट्रवादी मोदी जी के नेतृत्व से संतुष्ट अपने दैनिक जीवन में सुचरित्र निष्ठापूर्वक व्यवहार अथवा कार्यशैली का पालन करते मैं दूसरों को भी ऐसा सोचने करने को प्रोत्साहित करता रहूँगा| क्या हम श्री नरेन्द्र मोदी जी के साथ मिल सुदृढ़ और समृद्ध भारत-पुनर्निर्माण के लिए तैयार हैं?

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