धर्म और आस्था के अखाड़े

डा. कमलकांत बुधकर

1428650600_5c836f4add_b-350x262भारतीय संस्कृति में प्राचीनकाल से ही विभिन्न विचारधाराएं एक दूसरे पर असर डालती रही हैं। भिक्षु संघ, संघराम, विहार आदि के जरिये बौद्ध धर्म की समाज में महत्ता सिद्ध होती थी। शंकराचार्य ने इसी का अनुकरण कर प्राचीन आश्रम और मठ परम्परा में नए प्राण फूंके। शंकराचार्य ने अपना ध्यान संन्यास आश्रम पर केंद्रित किया और समूचे देश में दशनामी संन्यास परम्परा और अखाड़ों की नींव डाली।

उत्सवों और पर्वों के लिए प्रसिद्ध भारतीय संस्कृति में चार माह तक चलनेवाला, कुम्भ पर्व सदियों से ‘भक्ति और आस्था’ का परम प्रतीक बना हुआ है। देश के चार प्रमुख तीर्थों पर बारह वर्ष के अंतराल पर यह विराट आयोजन होता है। प्राचीनकाल में देश के करोड़ों धर्मप्राण लोगों को इस तरह प्रत्येक तीसरे वर्ष भक्ति, दर्शन की परम्परा से जुड़ने और खुद में ज्ञान चेतना जगाने का अवसर मिलता था। कुम्भ के अवसरों पर प्रति तीसरे वर्ष करोड़ों लोगों का यह समागम सिर्फ धार्मिक निमित्त भर नहीं था बल्कि यह देश भर के सुदूर अंचलों में बसे विभिन्न कुटुम्बों के आपस में मिलने-जुलने, सुख-दुख की सूचनाएं साझा करने और विभिन्न समाजों की रीति-नीति को साझा करने का यह अवसर होता था। आज संचार के अत्याधुनिक साधन जो काम कर रहे हैं, वही काम सदियों पहले से कुम्भमेला करता रहा है। आज कुम्भ की पहचान दशनामी संन्यासियों के अखाड़े, शाही स्नान, साधुओं के डेरे और मठाधीशों-महामंडलेश्वरों का समागम है। हम यहां बात करते हैं कि आखिर क्या हैं ये अखाड़े और कैसी है दशनामियों की परम्परा?

भक्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण भारत से मानी जाती है और महाराष्ट्र की संतबानी के जरिये यह उत्तर भारत पहुंची। यह वह दौर था, जब देश में विदेशी आक्रमण बढ़ने लगे थे। हिन्दु धर्म की ज्ञानमार्गी परम्परा शास्त्रार्थों और कर्मकांडों के जाल में उलझ चुकी थी और निम्नवर्ग पर तथाकथित धर्मप्रेरित अत्याचार बढ़ गए थे। इस ऐतिहासिक वक्त में इसी वर्ग से क्रान्ति चेतना पैदा हुई। दलित सन्तों ने अपनी निर्गुण आस्था की तरल-सरल धारा से समाज को राह दिखाई। यह वक्त बारहवीं सदी का था। इससे चार सदी पहले भी दक्षिण भारत में पैदा हुई, एक महान विभूति ने हिन्दू धर्म ध्वज फहराने के लिए एक विराट अभियान छेड़ा था। तत्कालीन भारत में बौद्ध धर्म की आंधी ने सनातन हिन्दू परम्परा के प्रति समाज की आस्था को हिला कर रख दिया था। हिन्दू धर्म की मान्यताओं, परम्पराओं में आ रही गिरावट को देखते हुए आदि शंकराचार्य ने ज्ञानमार्गी परम्परा को फनर्जीवित किया और अद्वैत दर्शन की मूल अवधारणा ‘बृह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ को स्थापित किया। इसके लिए उन्होने समूचे देश में अद्वैत और वेदांत का प्रसार किया। काशी के महान विद्वान मंडनमिश्र के साथ उनका शास्त्रार्थ, इस सिलसिले की महत्वपूर्ण कड़ी थी, जिसने उन्हें समूचे देश में धर्म दिग्विजयी के रूप में स्थापित कर दिया।

शंकराचार्य के सुधारवाद पर बौद्ध संस्कृति का असर भी है। विद्वानों ने इस असर को देखते हुए ही शंकराचार्य को प्रच्छन्न बौद्ध भी कहा है। दिलचस्प तथ्य है कि स्वामी विवेकानंद ने भी अमेरिका प्रवास के दौरान कहा था- ‘‘बुद्ध अपने ढंग से एक महा वेदांती थे। बौद्ध धर्म वेदांत की एक शाखा मात्र है। इसलिए शंकराचार्य को भी अनेक लोग प्रच्छन्न बौद्ध कहते हैं। बुद्ध ने विश्लेषण किया था, शंकर ने उसका संश्लेषण किया था। भारतीय संस्कृति में प्राचीनकाल से ही विभिन्न विचारधाराएं एक दूसरे पर असर डालती रही हैं। भिक्षु संघ, संघराम, विहार आदि के जरिये बौद्ध धर्म की समाज में महत्ता सिद्ध होती थी। शंकराचार्य ने इसी का अनुकरण कर प्राचीन आश्रम और मठ परम्परा में नए प्राण फूंके। शंकराचार्य ने अपना ध्यान संन्यास आश्रम पर केंद्रित किया और समूचे देश में दशनामी संन्यास परम्परा और अखाड़ों की नींव डाली।

दशनामी परम्परा:

आदि शंकराचार्य ने देश के चार कोनों में बौद्ध विहारों की तर्ज पर दक्षिण में श्रंगेरी, पूर्व में फरी, पश्चिम में द्वारका व उत्तर में बद्रीनाथ में मठ स्थापित किए, जिनका प्रबंध-संचालन विहारों की तरह ही होता था। शंकराचार्य ने संन्यासियों की दस श्रेणियां- ‘गिरी, फरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ और आश्रम’ बनाईं, जिसके चलते ये दशनामी संन्यास प्रचलित हुआ। दशनामियों के दो कार्यक्षेत्र निश्चित किए। पहला था- शस्त्र और दूसरा शास्त्र। गौरतलब है कि संन्यासियों की आदि-व्यवस्था, अद्वैतवाद और वेदांत दर्शन के संस्थापक महर्षि वेदव्यास के फत्र बालयोगी शुकदेव ने की थी। शुकदेव ने पिता से प्रेरित होकर यह कार्य किया था। पौराणिक काल से वह व्यवस्था चली आ रही थी, जिसका फनरुद्धार आदि शंकराचार्य ने दशनामी सम्प्रदाय बनाकर किया। सभी दशनामी शैवमत में दीक्षित हैं। दशनामी साधुओं के दो कर्तव्य शंकराचार्य ने निश्चित किए। पहला, वे शास्त्र-प्रवीण हों, ताकि धर्म-परम्परा विस्मृत समाज को दिशा मिल सके, दूसरा वे शस्त्र-प्रवीण हों ताकि विदेशी आक्रमणकारियों से देश की रक्षा हो सके। यह भी कहा जाता है कि शंकराचार्य के सुधारवाद का तत्कालीन समाज में खूब विरोध भी हुआ था और साधु समाज को उग्र और हिंसक साम्प्रदायिक विरोध से जूझना पड़ता था। काफी सोच-विचार के बाद शंकराचार्य ने वनवासी समाज को दशनामी परम्परा से जोड़ा, ताकि उग्र विरोध का सामना किया जा सके। वनवासी समाज के लोग अपनी रक्षा करने में समर्थ थे, और शस्त्र प्रवीण भी। इन्हीं शस्त्रधारी वनवासियों की जमात नागा साधुओं के रूप में सामने आई।

गौरतलब है कि जैन और बौद्ध धर्म भी सनातन हिन्दू परम्परा से ही निकले थे। इन दोनों धाराओं के चिन्तन और शब्दावली पर यह असर साफ दिखता है। इसी तरह जब शंकर ने हिन्दू धर्म के अभ्युदय का बीड़ा उठाया तब बौद्धधर्म की तूती बोल रही थी। जाहिर है शंकर के सुधारवाद पर बौद्ध असर दिखना ही था। यह असर शैली और शब्दावली दोनों पर पड़ा। शंकराचार्य ने दशनामी परम्परा को महाम्नाय के अनुशासन से बांधा। आम्नाय का अर्थ है रीति, वैदिक ज्ञान, फण्य-प्रेरित ज्ञान, कुल तथा राष्ट्र की परम्पराएं। जैन तथा बौद्ध दर्शन में भी आम्नाय शब्द का खूब प्रयोग हुआ है। चारों दिशाओं में स्थापित मठों को जब महाम्नाय अर्थात सनातन हिन्दुत्व की नवोन्मेषी धारा से बांधा गया, तो उसे मठाम्नाय कहा गया। इन्हीं मठाम्नायों के साथ दशनामी संन्यासी संयुक्त हुए। वन, अरण्य, नामधारी संन्यासी उड़ीसा के जगन्नाथफरी स्थित गोवर्धन पीठ से संयुक्त हुए। पश्चिम में द्वारिकाफरी स्थित शारदपीठ के साथ तीर्थ एव आश्रम नामधारी संन्यासियों को जोड़ा गया। उत्तर स्थित बद्रीनाथ के ज्योतिर्पीठ के साथ गिरी, पर्वत और सागर नामधारी संन्यासी जुड़े, तो सरस्वती, फरी और भारती नामधारियों को दक्षिण के श्रृंगेरी मठ के साथ जोड़ा गया।

सैनिक संन्यासियों का स्वरूप:

इन मठाम्नायों के साथ अखाड़ों की परम्परा भी लगभग इनकी स्थापना के समय से ही जुड़ गई थी। चारों पीठों की देशभर में उपपीठ स्थापित हुई। कई शाखाएं-प्रशाखाएं बनीं, जहां धूनि, मढ़ी अथवा अखाड़े जैसी व्यवस्थाएं बनीं। जिनके जरिए, स्वयं संन्यासी पोथी, चोला का मोह छोड़ कर, थोड़े समय के लिए शस्त्रविद्या सीखते थे, साथ ही आमजन को भी इन अखाड़ों के जरिये आत्मरक्षा (प्रकारांतर से धर्मरक्षाश् के लिए सामरिक कलाएं सिखाते थे। इस तरह अखाड़ों के जरिए धर्मरक्षक सेना का एक स्वरूप बनता चला गया। हिन्दूधर्म को इस्लाम की आंधी से बचाने के लिए सिख पंथ एक सामरिक संगठन के तौर पर ही सामने आया था। इसके महान गुरुओं ने अध्यात्म की रोशनी में लोगों को धर्मरक्षा के लिए शस्त्र उठाने की प्रेरणा दी। अखाड़ों का यह स्वरूप प्रायः हर धर्म-सम्प्रदाय में रहा है। दुनियाभर के धार्मिक आंदोलनों के साथ अखाड़ा अर्थात आत्मरक्षा से जुड़ी तकनीक को ध्यान-प्राणायाम से जोड़कर अपनाया गया। हर धार्मिक सम्प्रदाय के साथ शस्त्रधारी रहे हैं और धर्म या पंथ अथवा मठ पर आए खतरों का सामना इन्होंने किया है। बौद्ध धर्म चीन तक पहुंचाने का श्रेय पांचवीं सदी के जिन आचार्य बोधिधर्म को दिया जाता है उन्हें ही चीन की प्रसिद्ध मार्शल आर्ट शैलियों को विकसित करने का श्रेय दिया जाता है। अहिंसक धर्म के आचार्य ने मूलतः ध्यान केन्द्रित करने की तकनीक के तौर पर इस कला को जन्म दिया, जिसे बाद में आत्मरक्षा की कला के तौर पर मान्यता दे दी गई। गौरतलब है कि ध्यान ही जापान पहुंच कर जेन या जिन कहलाया।

मध्यकाल मे चारों पीठों से जुड़ी दर्जनों पीठिकाएं सामने आईं, जिन्हें मठिका कहा गया। इसका देशज रूप मढ़ी प्रसिद्ध हुआ। देशभर में दशनामियों की ऐसी कुल 52 मढ़ियां हैं, जो चारों पीठों द्वारा नियंत्रित हैं। इनमें सर्वाधिक 27 मठिकाएं गिरि दशनामियों की हैं, 16 मठिकाओं में फरी नामधारी संन्यासी काबिज हैं, 4 मढ़ियों में भारती नामधारी दशनामियों का वर्चस्व है और एक मढ़ी लामाओं की है। साधुओं में दंडी और गोसाईं दो प्रमुख भेद भी हैं। तीर्थ, आश्रम, भारती और सरस्वती दशनामी, दंडधर साधुओं की श्रेणी में आते हैं जबकि बाकी गोसाईं कहलाते हैं।

अखाड़ों की शुरुआत:

हिन्दुओं की आश्रम परम्परा के साथ अखाड़ों का अस्तित्व, यूं तो प्राचीनकाल से ही रहा है। अखाड़ों का आज जो स्वरूप है उस रूप में पहला अखाड़ा ‘अखंड आह्वान अखाड़ा’ सन् 547 ई. में सामने आया। इसका मुख्य कार्यालय काशी में है और शाखाएं सभी कुम्भ तीर्थों पर हैं। अखाड़ा शब्द के मूल में अखंड शब्द को भी देखा जाता है। कालांतर में अखंड का देशज रूप अखाड़ा हुआ। हालांकि भाषाशास्त्र की दृष्टि से अखाड़ा की यह व्युत्पत्ति सही नहीं है।

आज जो अखाड़े प्रचलन में हैं उनकी शुरूआत चौदहवी सदी से मानी जाती है। वर्तमान में हरिद्वार के कुम्भ में शाही स्नान के क्रम में प्रसिद्ध सात शैव अखाड़ों में श्रीपंचायती तपोनिधि निरंजनी अखाड़ा, श्रीपंचायती आनंद अखाड़ा, श्रीपंचायती दशनामी जूना अखाड़ा, श्रीपंचायती आवाहन अखाड़ा, श्रीपंचायती अग्नि अखाड़ा, श्रीपंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा और श्रीपंचायती अटल अखाड़ा हैं। वैष्णव साधुओं के अखाड़ों के बाद कुछ अन्य अखाड़े भी आते हैं। गुरु नानकदेव के फत्र श्रीचंद ने उदासीन सम्प्रदाय चलाया था। इसके दो अखाडे़, श्रीपंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा और श्रीपंचायती नया उदासीन अखाड़ा भी सामने आए। इसी तरह सिखों की एक पृथक जमात निर्मल सम्प्रदाय का श्रीपंचायती निर्मल अखाड़ा भी अस्तित्व में आया।

पहले सिर्फ, शैव साधुओं के अखाड़े होते थे। बाद में वैष्णव साधुओं में भी अखाड़ा परम्परा शुरू हुई। शैव जमात के सात अखाड़ों के बाद वैष्णव बैरागियों के तीन खास अखाड़े हैं- श्री निर्वाणी अखाड़ा, श्रीनिर्मोही अखाड़ा और श्रीदिगंबर अखाड़ा। शैवों और वैष्णवों में शुरू से संघर्ष रहा है। शाही स्नान के वक्त अखाड़ों की आपसी तनातनी और साधु-सम्प्रदायों के टकराव खूनी संघर्ष में बदलते रहे हैं। हरिद्वार कुंभ में तो ऐसा अनेक बार हुआ है। वर्ष 1310 के महाकुंभ में महानिर्वाणी अखाड़े और रामानंद वैष्णवों के बीच हुए झगड़े ने खूनी संघर्ष का रूप ले लिया था। वर्ष 1398 के अर्धकुंभ में तो तैमूर लंग के आक्रमण से कई जानें गई थीं। वर्ष 1760 में शैव संन्यासियों व वैष्णव बैरागियों के बीच संघर्ष हुआ था। 1796 के कुम्भ में शैव संन्यासी और निर्मल संप्रदाय आपस में भिड़ गए थे। विभिन्न धार्मिक समागमों और खासकर कुम्भ मेलों के अवसर पर साधु संगतों के झगड़ों और खूनी टकराव की बढ़ती घटनाओं से बचने के लिए अखाड़ा परिषद की स्थापना की गई, जो सरकार से मान्यता प्राप्त है। इसमें कुल मिलाकर उक्त तेरह अखाड़ों को शामिल किया गया है। प्रत्येक कुम्भ में शाही स्नान के दौरान इनका क्रम तय है।

भाषा विज्ञान की दृष्टि में अखाड़ा:

अखाड़ा, यूं तो कुश्ती से जुड़ा हुआ शब्द है, मगर जहां भी दांव-पेंच की गुंजाइश होती है, वहां इसका प्रयोग भी होता है। आज की ही तरह प्राचीनकाल में भी शासन की तरफ से एक निर्धारित स्थान पर जुआ खिलाने का प्रबंध रहता था, जिसे अक्षवाटः कहते थे। अक्षवाटः बना है दो शब्दों अक्ष और वाटः से मिलकर ।

अक्ष के कई अर्थ हैं, जिनमें एक अर्थ है चौसर या चौपड़, अथवा उसके पासे। वाटः का अर्थ होता है घिरा हुआ स्थान। यह बना है संस्कृत धातु वट् से जिसके तहत घेरना, गोलाकार करना आदि भाव आते हैं। इससे ही बना है उद्यान के अर्थ में वाटिका जैसा शब्द। चौपड़ या चौरस जगह के लिए बने वाड़ा जैसे शब्द के पीछे भी यही वट् धातु झांक रही है। इसी तरह वाटः का एक रूप बाड़ा भी हुआ, जिसका अर्थ भी घिरा हुआ स्थान है। वर्ण विस्तार से कहीं-कहीं इसे बागड़ भी बोला जाता है। इस तरह देखा जाए तो, अक्षवाटः का अर्थ हुआ जहां पर पासों का खेल खेला जाए। जाहिर है कि पासों से खेला जाने वाला खेल जुआ ही है सो अक्षवाटः का अर्थ हुआ, ‘द्यूतगृह अर्थात जुआघर।’ अखाड़ा शब्द कुछ यूं बना- अक्षवाटः अक्खाडअ, अक्खाडा, अखाड़ा। द्यूतगृह जब अखाड़ा कहलाने लगा और खेल के दांव-पेंच से ज्यादा महत्व हार-जीत का हो गया तो नियम भी बदलने लगे। अब दांव पर रकम ही नहीं, कुछ भी लगाया जाने लगा। महाभारत का द्यूत-प्रसंग सबको पता है। इसी तरह अखाड़े में वे सब शारीरिक क्रियाएं भी आ गईं, जिन्हें क्रीड़ा की संज्ञा दी जा सकती थी और जिन पर दांव लगाया जा सकता था। जाहिर है प्रभावशाली लोगों के बीच आन-बान की नकली लड़ाई के लिए कुश्ती, इनमें सबसे खास शगल था, सो धीरे-धीरे कुश्ती का बाड़ा अखाड़ा कहलाने लगा और जुआघर को अखाड़ा कहने का चलन खत्म हो गया। अब तो व्यायामशाला को भी अखाड़ा कहते हैं और साधु-संन्यासियों के मठ या रुकने के स्थान को भी अखाड़ा कहा जाता है। कहां जुआ खेलने की जगह और कहां साधु-संन्यासियों की संगत।(भारतीय पक्ष)

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