आज से 5000 वर्ष पूर्व सिन्धु-घाटी सभ्यता के समृद्ध शहरों से मिस्र एवं फारस के शहरों से व्यापार होता था. इन शहरों के व्यापारियों को “पणि” कहा जाता था, जो संभवतः कालांतर में वणिक अथवा व्यापारी शब्द में परिवर्तित हुआ. शायद इन्हीं व्यापारियों के कारण भारत को “सोने की चिड़िया” भी कहा गया होगा. परंतु आश्चर्य की बात है कि वेदों एवं पुराणों ने इन पणियों की जगह उन घुमंतुओं की गाथा गाई जिन्हें आर्य कहा जाता है. उन ऋषि-मुनिओं को सत्कार दिया जो देश की सांस्कृतिक एकता के लिए वनों में आदिवासियों के बीच रहते थे और वहां आश्रम बना शिक्षा भी देते थे. देश की जनता उस राम को सदियों से पूजती आ रही है जिन्होनें वानप्रस्थ को महत्व देने के लिए राजा होते हुए भी वनवास स्वीकार किया.
अर्थ की गति के बारे में ऋग्वेद 1:24 से:
धनों के प्राप्त करने के संकल्प किसी क्षेत्र की सीमाओं, मर्यादा से नहीं बंधते. आकाश में पक्षियों की उड़ान, वायु और जल प्रपातों की अबाध हिंसक गति के समान ये निर्बाध गतिमान होते हैं.
अर्थ की “हिंसक गति” पर नियंत्रण के लिए ऋग्वेद 10:108 में पणियों तथा इंद्र की चार आंख वाली कुतियां सरमा के बीच एक वार्तालाप है:
पणि: हे सरमा! तुम यहां क्यों आयी हो ? यहाँ आने में तुम्हारा क्या व्यक्तिगत स्वार्थ है? तुमने बहुत मुसीबतें भोगी होंगी, क्या तुम यहां सुविधाओं के लिए आयी हो?
सरमा: ओ पणि! मैं राष्ट्र को बनाने वाले इंद्र की दूत हूं. तुमने क्या छुपाया तथा क्या जमाखोरी की है, मैं वह सब जानना चाहती हूं. यह सही है कि मैने बहुत कष्ट उठाएं हैं, परंतू अब मैं उस सबकी अभ्यस्त हो चुकी हूं.
पणि: ओ सरमा तुम्हारा मालिक इंद्र कितना शक्तिशाली एवं संपन्न है ? हम उससे दोस्ती करना चाहते हैं. वह हमारे व्यापार को स्वयं भी कर सकता है और धन कमा सकता है.
सरमा: इंद्र जिसकी मैं दूत हूं, उस तक कोई पहुंच नहीं सकता, उसे कोई डिगा नहीं सकता. भ्रमित करने जल-प्रवाह उसे बहा के नहीं ले जा सकते. वह तुम्हारा मुकाबला करने में सक्षम है.
पणि: ओ सरमा ! हमारे साथ तुम भी संपन्न होने की कगार पर हो. तुम जो चाहो हमसे ले सकती हो. कौन बिना झगडा किये अपनी दौलत से बेदखल होता है. हम अपनी दौलत की वजह से बहुत शक्तिशाली भी हैं.
सरमा: ओ पणि ! तुम्हारे सुझावों को ईमानदार नौकरशाह पसंद नहीं करते. तुम्हारा व्यवहार कुटिल है. अपने को इंद्र के दंड से बचाओ. यदि तुम आत्म-समर्पण नहीं करोगे तो बहुत मुश्किलों मैं आ जाओगे.
पणि: ओ सरमा ! तुम्हारे मालिक भी हमसे डरते हैं. हम तुम्हें बहुत पसंद करते है. तुम जब तक चाहो यहाँ रह सकती हो और हमारे ऐश्वर्य में से हिस्सा ले सकती हो.
सरमा: ओ पणि ! तुम अपने रास्तों को बदलो. तुम्हारे काले कारनामों से जनता दुखी है. शासन तुम्हारे सभी राज जान चुका है. अब तुम पहले की तरह काम नहीं कर पाओगे.
अर्थ एक पुरुषार्थ तभी तक था जब तक कि वह ईमानदारी तथा परिश्रम से कमाया गया हो. अथर्ववेद 7:50:1 से:
जिस प्रकार आकाश से गिरती बिजली बड़े वृक्षों को नष्ट करती है, उसी भांति बिना श्रम करे जुए के खेल जैसे जो अर्थोपार्जन करने के साधन हैं, उन्हे नष्ट करो.
विकास के भारतीय आदर्श में अर्थ अर्जित करने की कोई सीमा नहीं बांधी है. परंतु जब राज्य का उद्देश्य संपन्नता के साथ-साथ सभी का सुख हो तो अर्जित अर्थ को सही गति देना जरूरी था. ऋग्वेद 10:155 से:
स्वार्थ और दान न देने की वृत्ति को सदैव के लिए त्याग दो. कंजूस और स्वार्थी जनों को समाज में दरिद्रता से उत्पन्न गिरावट, कष्ट, दुर्दशा दिखाई नहीं देते. परंतु समाज के एक अंग की दुर्दशा और भुखमरी आक्रोश बन कर महामारी का रूप धारण करके पूरे समाज को नष्ट करने की शक्ति बन जाती है और पूरे समाज को ले डूबती है.
अदानशीलता समाज में प्रतिभा विद्वत्ता की भ्रूणहत्या करने वाली सिद्ध होती है. तेजस्वी धर्मानुसार अन्न और धन की व्यवस्था करने वाले राजा इस दान विरोधिनी संवेदना विहीन वृत्ति का कठोरता से नाश करें.
लेख के अगले भाग में “सर्वे भवन्तु सुखिनः” आदर्श के लिए चारों पुरुषार्थों पर आधारित वर्णाश्रम व्यवस्था का वर्णन किया जाएगा.