धार्मिक सदभाव पर बौद्धिक बचकानापन

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godशंकर शरण
हाल में कई लेखकों, बुद्धिजीवियों ने देश में सहिष्णुता, सामाजिक सदभाव और उदारता आदि पर जो कोलाहल शुरू किया है, वह राजनीति के उन के भारी अज्ञान का भी सूचक है। राजनीति और इतिहास ऐसे विषय नहीं हैं, जिन पर भावनाओं और कल्पनाओं से वास्तविकता समझ ली जाए। जिस विषय पर बुद्धिजीवियों को संगठित रूप से उकसाया जा रहा है, और बहुतेरे उद्वेलित भी हो रहे हैं, वह ठीक ऐसा ही विषय है।

कुछ बुद्धिजीवी बार-बार धार्मिक सहिष्णुता, राष्ट्रवाद और सामाजिक सदभाव की चर्चा इस तरह कर रहे हैं, जिस में मूल बात पीछे रह जाती है। सहिष्णुता या सदभाव पर चोट कहाँ से पड़ती है – इस पर वे कोई गंभीर विचार नहीं करते। कोरी नारेबाजी करना कोई बौद्धिक कार्य नहीं है। लेकिन वे जाने-अनजाने यही कर रहे हैं। वे केवल हिन्दू नेताओं और आर.एस.एस. जैसे संगठनों को कोसते हैं, जिन का धर्म वैसे भी कोई मतवाद, फेथ या रिलीजीन नहीं रहा है। किन्तु इस्लाम जो स्व-घोषित परिभाषा से ‘दीन व दौला’ दोनों है, उस का उल्लेख ही नहीं करते। जिस में मजहब राजनीति से अभिन्न है, जिस में मजहबी पैगंबर खुद राजनीतिक प्रमुख और कानूनदाता रहा, जिस के निजी व्यवहार को भी कानून की मान्यता आज भी मुसलमानों के बीच है, जिस के सिद्धांतकार ठसक से देशभक्ति को ‘मजहब का कफन’ कहते हैं – क्या इस सक्रिय विश्वास का सामाजिक सदभाव से कोई संबंध नहीं है?

भारत में धर्म-मजहब और शान्ति, सहिष्णुता के संबंध पर ऐसे उलटा, एकतरफा बोलना और भी दुर्भाग्यपूर्ण है, जहाँ महज सात दशक पहले मजहबी जिद पर अलग देश बनवाया जा चुका है। सर सैयद से लेकर अल्लामा इकबाल, मौलाना आजाद, जिन्ना आदि अनगिनत सर्वोच्च इस्लामी चिंतकों, नेताओं ने मुस्लिम समुदाय की राजनीति का निर्देशक इस्लाम को घोषित किया था। आज भी सैयद शहाबुद्दीन से लेकर मुशीर-उल-हसन जैसे आधुनिक, उदारवादी भी स्वयं को ‘इस्लाम के प्रति जिम्मेदार’ कहते हैं, देश के कानून, संविधान और मानवीयता तक उस के बाद आती है। ऐसी ठोस, जगजाहिर विचारों, घटनाओं की अनवरत श्रृंखला के बाद भी इन की पूरी अनदेखी करते हुए केवल हिन्दू संगठनों को दोषी ठहराना देशघातक है।

इस्लाम और देश-हित का विपरीत संबंध विगत सौ साल से भारत की सर्वोच्च राजनीतिक समस्या बना रहा है। बात आम मुसलमानों की नहीं, बल्कि इस्लाम की मजहबी-राजनीतिक मान्यताओं की है। इस्लामी घातियों और सामान्य मुसलमानों के बीच भेद करना आसान नहीं है। वैसे ही जैसे ‘अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा’ के लिए राष्ट्रीय हितों पर चोट करने वाले रूस-भक्त, चीन-भक्त कम्युनिस्ट नेताओं और सामान्य कम्युनिस्टों, उन के समर्थकों के बीच भेद करना कठिन था।

आखिर राष्ट्रीय परिदृश्य में मुसलमानों की भागीदारी क्यों कम है? इसीलिए, क्योंकि उन के रहनुमा देश-समाज-हित को दो कौड़ी की चीज समझते हैं। अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता आंदोलन में कभी भी आम मुस्लिम भागीदारी नहीं थी। प्रसिद्ध इतिहासकार आई. एच. कुरैशी के अनुसार एक खलीफत आंदोलन (1919-21) वाले दो-तीन बरस के ‘हनीमून’ के सिवा मुसलमानों ने स्वतंत्रता-संघर्ष में भाग नहीं लिया। खलीफत में लिया तो ठीक इसीलिए क्योंकि वह विश्व-इस्लामी राजनीतिक मुद्दा था। वही स्थिति आज भी है। जिस उग्रता और उत्साह से भारतीय मुस्लिम फिलीस्तीन, बोस्निया के पक्ष में या ईराक, अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तेक्षेप के विरुद्ध उठ खड़े होते हैं, वह किसी भी राष्ट्रीय, सामाजिक प्रश्न पर कभी नहीं दिखता।

कश्मीर पर भारत के पक्ष में दृढ़ता और सार्वजनिक उद्वेलन के साथ किस भारतीय मुस्लिम नेता ने मुसलमानों की संगठित आवाज उठाई? सरदार पटेल से लेकर राजेन्द्र माथुर तक, कई जागरूक नेताओं, पत्रकारों ने इस पर चिन्ता प्रकट की। मगर आज तक स्थिति नहीं बदली। पुरस्कार लौटाने के बहाने राजनीतिबाजी में मशगूल बौद्धिक इस स्थिति का निहितार्थ नहीं समझते। इस का देश की एकता, सामाजिक सदभाव की स्थित से सीधा संबंध है। कश्मीर और राष्ट्रीय अखंडता ही क्यों, वैज्ञानिक शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवार नियोजन, जैसे प्रश्नों पर भी मुस्लिम नेता कभी देश के सभी नागरिकों के साथ होने की चिंता नहीं करते। वे हर चीज को इस्लामी कसौटी पर देखते हैं, लिहाजा अलग ही नहीं, पिछड़े, बदहाल, कूढ़मगज भी बने रहते हैं। क्या हिन्दू-विरोधी लेखकों को यह दिखाई नहीं देता?

राष्ट्रीय, सामाजिक, बौद्धिक जीवन में मुस्लिम उपस्थिति कम होने के पीछे ‘भेद-भाव’ के सच्चरपंथी प्रचार नई पीढ़ियों की आँखों में धूल झोंकने के हथकंडे हैं। वैसी तमाम ‘संभावित’ शिकायतों के एकमुश्त समाधान के लिए ही मुसलमान देश का विभाजन कर के पूरा अलग देश बना चुके हैं। इतिहास की दृष्टि से सत्तर साल बस कल की घटना है, जिसे भुला कर बात करना दुष्टतापूर्ण है कि पाकिस्तान सभी भारतीय मुसलमानों के लिए बना था। इसलिए शेष भारत में मुसलमानों को किसी शिकायत का नैतिक अधिकार वैसे भी नहीं है। पर इसे छोड़ कर भी विचार करें तो सत्यनिष्ठ उत्तर केवल यही है कि विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच मैत्री-सदभाव का प्रयास ही इस्लाम-विरोधी भावना है। क्या समस्या का मूल कारण यह नहीं है?

1999 में कारगिल पर पाकिस्तानी आक्रमण के समय भारत के एक सर्वोच्च मदरसे के प्रमुख ने भारत की जीत के लिए दुआ करने से इंकार कर दिया था ‘क्योंकि इस का अर्थ होगा मुसलमानों की हार के लिए दुआ करना’! पाकिस्तान से लेकर सीरिया, ईराक और फ्रांस, ब्रिटेन तक हजारों मुस्लिम युवक अपने-अपने देश के हित को ताक पर रखकर दुनिया में ‘निजामे-मुस्तफा’ कायम करने के लिए कभी बिन लादेन तो कभी बगदादी के पीछे मरने के लिए जाते रहते हैं। क्या ऐसी कोई चीज हिन्दू या बौद्ध धर्म में है? जो देश-हित, समाज-हित या स्वविवेक को किसी धार्मिक नेता के कहने पर तजने के लिए तैयार हो? इस बुनियादी अंतर को लुप्त करके धार्मिक सहिष्णुता और सदभाव की फिक्र में आँसू बहाना मूर्ख बच्चों की तरह व्यवहार करना है।

देश को नगण्य और मजहब को सर्वस्व मानने के चलते ही कश्मीर पर पाकिस्तानी मंसूबों पर भी हमारे अधिकांश मुस्लिम लीडरों को एतराज नहीं है।

सरदार पटेल की तरह प्रसिद्ध पत्रकार राजेंद्र माथुर भी यह हसरत लिए हुए ही स्वर्ग सिधार गए कि कभी हमारे मुस्लिम भी कश्मीर पर भारत के पक्ष से उठ खड़े हो आवाज बुलंद करें! यह चुप्पी सिद्धांतहीन नहीं है। अनेक मुस्लिम कहते हैं कि कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। स्टुडेंट इस्लामी मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) को समाजवादी पार्टी के नेता अबू आसिम काजमी ‘मुसलमानों की आवाज’ कहते हैं। सिमी ने 1986 में अपने दिल्ली सम्मेलन में ‘इस्लाम द्वारा भारत की आजादी’ का आह्वान किया था। इस के अलीगढ़ सम्मेलन (1997) में मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए जिलानी ने राष्ट्रवाद को ‘बेमानी’ बताया। मुस्लिम समुदाय द्वारा राष्ट्र-गीत ‘वंदे-मातरम्…’ का विरोध भी वही चीज है। पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों, कवियों! जरा अक्ल पर जोर लगाओ, और सोचो, इस तरह की नियमित गतिविधियों से समाज के गैर-मुस्लिम लोगों पर क्या असर पड़ता है? या कि, आप लोग इस देश में गैर-मुस्लिम जनता के प्रति कतई असंवेदनशील हो, कि उस का होना, न होना, उस की भावना, चाहना – सब कुछ किसी गिनती में नहीं?

हाल के वर्षों में भारत में डॉ. अब्दुल मातीन, अनवर अली, जाहिर (जाहिरा नहीं) शेख, आदि कई सुशिक्षित उच्च-पदस्थ मुस्लिम जिन गतिविधियों के कारण चर्चा में आए उस पर विचार करें। अनवर अली नेशनल डिफेंस अकेडमी, खड़गवासला में लेक्चरर थे किंतु पुणे में अपने आवास में वे लश्करे-तोयबा के जिहादियों को हथियार प्रशिक्षण देने का अड्डा चलाते थे। उन्हें मुलुंड बम विस्फोट कांड के बाद पकड़ा गया। इसी प्रकार ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मनी आदि अनेक देशों में ऐसे मुस्लिम पकड़े गए हैं जो संवेदनशील संस्थानों में ऊँचे पदों पर थे और अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी संगठनों के लिए अपने ही देश के विरुद्ध काम करते थे।

अतः जरा विवेक का प्रयोग कर देखें कि धर्म और राष्ट्रवाद और सामाजिक शान्ति-सदभाव की गड्ड-मड्ड कहाँ है? निस्संदेह, आम मुसलमान उतने ही अच्छे या बुरे हैं जितने आम हिंदू। लेकिन समस्या इस्लाम में है जो मुसलमानों को दूसरों से अलग करता है। वह दारुल-हरब और दारुल-इस्लाम का विभाजन कर देशभक्ति, और विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच प्रेम और शान्ति की भावना को सिरे से खारिज करता है। क्या लेखकों, कवियों को कभी इस पर विचार नहीं करना चाहिए? वह भी, इस संबंध में देश-विदेश के इतिहास और राजनीति के अंतहीन उदाहरणों के साथ?

कम्युनिज्म की तरह इस्लाम भी आरंभ से ही अंतर्राष्ट्रीय मताग्रह रहा है जिस में ‘इस्लाम ही कौम’ के सिवा परिवार, समाज या देश किसी भी नाम पर एकता को कुफ्र माना गया। कुरान और हदीसों में अनेक आवाहन मुसलमानों को इस्लाम के सिवा हर संबंध ठुकराने का आदेश देते हैं। इसीलिए भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में मुसलमानों की भागीदारी नगण्य थी। विगत सौ वर्ष में मुस्लिम लीग और भारतीय मुसलमानों ने सब से बड़ा काम भारत को तोड़ कर एक इस्लामी देश बनाने का किया। यह निर्णय संपूर्ण भारत के मुसलमानों का था – केवल बंगाल या पंजाब के मुसलमानों का नहीं। विभाजन के विरोधी या कांग्रेस के समर्थक छिट-पुट मुसलमानों को ‘गद्दार’ कह कर अपमानित किया गया था। उसी तरह, जैसे अभी भाजपा समर्थक मुसलमानों को दबे-छिपे कहा जाता है। यह वही इस्लाम-क्रेंद्रीयता थी जिस के तहत पहले भी यहाँ मुस्लिम सूफी और रहनुमा विदेशी मुसलमानों को भारत पर हमला करने के लिए आमंत्रित किया करते थे। ताकि काफिरों (हिन्दुओं) को कुचल इसे दारुल-इस्लाम बनाया जा सके।

यदि किन्हीं लेखकों, कवियों, पत्रकारों को यह बातें मुस्लिम-विरोधी प्रलाप प्रतीत होती हो तो दोष उन का नहीं, उस इतिहास-लेखन का है जो स्वतंत्र भारत में विशुद्ध मिथ्याचार परियोजना में बदल दिया गया। हमारे युवा न केवल संपूर्ण इस्लामी सिद्धांत व इतिहास से बल्कि हाल के भारतीय इतिहास से भी निपट अनजान हैं। कितने यह जानते हैं कि शाह वलीउल्लाह, सैयद बरेलवी, सर सैयद से लेकर, सर इकबाल, मौलाना हाली, मौदूदी, अली बंधु, जैसे मुस्लिम रहनुमाओं की पूरी श्रृंखला ने भारतीय राष्ट्रवाद या भारतीय समाज जैसी चीज को सिरे से खारिज किया था? मौलाना मुहम्मद अली को भारत से ऐसी वितृष्णा थी कि वे खुद को दफन भी अरब भूमि में करवाना चाहते थे।

फिर अल्लामा इकबाल ने पूरा सिद्धांत ही घोषित किया, “इन ताजा खुदाओं में सब से बड़ा वतन है। जो पैरहन है उस का वो मजहब का कफन है”। यानी वतनपरस्ती जो माँगती है, वह इस्लाम के लिए मौत समान है। इस लिए वतनपरस्ती को हेच बताते हुए इकबाल कहते हैं, “कौम मजहब से है; मजहब जो नहीं, तुम भी नहीं। जज्बे बाहम जो नहीं, महफिले अंजुम भी नहीं” ।

जरा सोचें, ऐसे विचारों से उस समाज में सामाजिक सदभाव का क्या संबंध है – जहाँ केवल 18 प्रतिशत मुसलमान ही नहीं, 75 प्रतिशत हिन्दू भी रहते हों? मुस्लिम उन मजहबी सिद्धांतों, विचारों से प्रभावित हुए बिना कैसे रहेंगे जब प्रभावशाली लेखक-बुद्धिजीवी इन मूल समस्याजनक विचारों को नजरअंदाज कर उलटे हिन्दुओं को सारी सांप्रदायिक गड़बड़ी का दोषी ठहराते हैं। उन्होंने मुसलमानों को इस्लाम की अंतर्राष्ट्रीय-साम्राज्यवादी विचारधारा की सेवा करने लिए छोड़ दिया है। किसी विषय पर जिन संबंधित मंतव्यों, तथ्यों की आलोचना न हो, इस का मतलब है लेखक बंधु उसे सही मानते हैं। या गलत नहीं मानते।

इस्लाम और विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच सदभाव का परस्पर विरोध वैसा ही तथ्य है। यह समझना जरूरी है कि मुसलमानों में राष्ट्रवादी, मानवतावादी लेखक, कवि या नेता कभी होते भी हैं तो वे इस्लाम की उपेक्षा कर के ही वैसे हो पाते हैं। इसीलिए उन की बातों का असर मुस्लिम समुदाय पर नहीं होता। भारत के कितने मुसलमान नेता पूर्व-राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम को अपना आदर्श, या अपना भी मानते थे?

भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आम मुसलमानों में उदार लेखकों, नेताओं की नहीं चलती। यह पहले भी सच था, और आज भी। खुद जिन्ना जैसे आधुनिक, सेक्यूलर, तेज-तर्रार नेता मुसलमानों के बेताज बादशाह तभी बने जब उन्होंने इस्लामी लफ्फाजी अपनाई। जबकि निजी जीवन में उन का इस्लाम से कोई मतलब न था। फिर भी इस्लामी माँगें रखने वाले जिन्ना ही मुसलमानों के स्वीकार्य नेता बने। इस के उलट खान अब्दुल गफ्फार खान मुसलमानों के मान्य नेता न हो सके, क्योंकि वे इस्लामी माँगें नहीं कर रहे थे। यह अंतर ध्यान देने योग्य है।

अतः जैसे उस जमाने में बादशाह खान जैसे नेता आम मुसलमानों को प्रभावित नहीं कर पाए थे, वैसे ही हमारे पूर्व-राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम भी आज नहीं कर पाते। बल्कि राष्ट्रपति कलाम जैसों को तो मुसलमान ही मानने से इंकार होता है! उन के बदले सैयद शहाबुद्दीन को मुसलमानों का प्रतिनिधि स्वर समझा जाता है, जो बात-बात में अरब देशों की तानाशाही और जहालत को सिर नवाते रहे हैं, तथा स्वाधीनता दिवस का बहिष्कार कर देश-भक्ति के भाव के प्रति अपनी खुली अवहेलना प्रकट करते रहे हैं। भारत में आज भी ओवैसी और आजम खान ही मुस्लिम नेता हैं जो क्या कहते, करते हैं, और उन का क्या असर होता है – यह सब मानो इन पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों, कवियों को कभी समझ में नहीं आता।

इतिहास की कांग्रेसी-कम्युनिस्ट लीपा-पोती के कारण ही हमारे लेखक, कवि जैसे लोग भी नहीं जानते, या इस के निहितार्थ नहीं समझते, कि लगभग हर मनीषी ने इस्लाम के दुराग्रह को दुःख पूर्वक नोट किया था। जब प्रसिद्ध नेता मौलाना शौकत अली ने भारत पर हमले की सूरत में अफगानिस्तान का साथ देने की घोषणा की, तो रवींद्रनाथ टैगोर ने अनेक मुस्लिम महानुभावों से स्वयं पूछा था कि यदि कोई मुस्लिम हमलावर भारत पर हमला कर दे तो वे किस का साथ देंगे? उन्हें संतोषजनक उत्तर नहीं मिला।

प्रख्यात विदुषी और कांग्रेस अध्यक्षा रही एनी बेसेंट ने 1921 में कहा था, “मुसलमान नेता कहते हैं कि यदि अफगानिस्तान भारत पर हमला करता है तो वे आक्रमणकारी मुस्लिमों का साथ देंगे और उन से लड़ने वाले हिंदुओं का कत्ल करेंगे। हम यह मानने के लिए मजबूर हैं कि मुसलमानों का मुख्य लगाव मुस्लिम देशों से है, मातृभूमि से नहीं। वे अच्छे और विश्वसनीय नागरिक नहीं हो सकते। स्वतंत्र भारत में मुस्लिम आबादी स्वतंत्रता के लिए एक खतरा होगी।” अतः कारगिल युद्ध के समय भारत की जीत के लिए दुआ न करना एक सैद्धांतिक बात थी। सदैव अयातुल्ला खुमैनी, बिन लादेन, तालिबान, बगदादी जैसी विदेशी हस्तियों के आह्वान पर सारी दुनिया में लाखों मुसलमानों का उठ खड़े होना भी उसी कारण है। मूढ़ लेखको, कवियो, कभी समझने की कोशिश करो कि इस सिद्धांत और व्यवहार का शान्ति, सदभाव और मानवीयता से क्या संबंध है?

लाला लाजपत राय ने भी इस्लामी कानून और इतिहास का अध्ययन करके यही लिखा कि किन्हीं सजज्न, उदार, राष्ट्रवादी मुस्लिमों की सदिच्छाओं के बावजूद हिंदू-मुस्लिम एकता असंभव है क्योंकि “कौन मुस्लिम नेता कुरान को दरकिनार कर सकता है?”

डॉ. भीमराव अंबेदकर ने इस्लाम को एक ‘क्लोज कॉरपोरेशन’ यानी बंद समाज की संज्ञा देते हुए कहा था कि इस्लाम का बुनियादी कानून ही मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच स्थायी और पक्का दुराव निश्चित करता है जिस का कोई उपाय नहीं।

मुंशी प्रेमचंद ने अपने हंस के प्रवेशांक, मार्च 1930, में लिखा था, “आज अगर कोई मुसलमान पहले हिंदुस्तानी होने का दावा करे, तो उस पर चारों ओर से बौछारें होने लगेंगी। … लेकिन इस का मुसलमानों की मनोवृत्ति पर जो बुरा असर पड़ता है, वह देश-हित के लिए घातक है।”

ऐसे अनगिनत ऐतिहासिक आकलन मौजूद हैं जिसे हिन्दू-द्वेषी वामपंथी प्रचारकों और उन के द्वारा संचालित प्रतिष्ठानों ने यत्न व छल-पूर्वक छिपाया है। क्योंकि सभी अनुभव और आकलन दिखाते हैं सिद्धांत-व्यवहार में इस्लामी सिद्धांत और सामाजिक सदभाव के बीच छत्तीस का आंकड़ा है। यदि इस के प्रति चौकसी न रखी गई तो ऐन वक्त पर बाड़ ही खेत को निगल जा सकती है। सन् 1947 में यही हुआ था। 1989 से कश्मीर में यही हुआ। कश्मीरी पंडितों का क्या कसूर था? पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों को इस पर भी कुछ जानने-समझने की कोशिश करनी चाहिए।

तब सामाजिक सदभाव, शान्ति और देश हित के लिए उपाय क्या है? इस्लामी इतिहास, सिद्धांत और व्यवहार को देखते हुए श्रीअरविन्द ने कोई सौ वर्ष पहले ही कहा था कि सचाई की लीपा-पोती या इस्लाम की चाटुकारिता से कोई सदभाव या हिंदू-मुस्लिम एकता नहीं बनेगी। उन्होंने 1926 में ही संपूर्ण समस्या का सटीक उपाय बताया था। श्रीअरविन्द के शब्दों में, “मुसलमानों को तुष्ट करने का प्रयास मिथ्या कूटनीति थी। सीधे हिंदू-मुस्लिम एकता उपलब्ध करने की कोशिश के बजाए यदि हिंदुओं ने अपने को राष्ट्रीय कार्य में लगाया होता तो मुसलमान धीरे-धीरे अपने-आप चले आते। …एकता का पैबंद लगाने की कोशिशों ने मुसलमानों को बहुत ज्यादा अहमियत दे दी और यही सारी आफतों की जड़ रही है”।

दुर्भाग्य से तब भी न्याय और विवेक के स्वरों को उपेक्षित कर गाँधी-नेहरूवादी शुतुरमुर्गी, तुष्टिकरणकारी रास्ता अपनाया था। परिणाम सन् 1947 में सामने आ गया। फिर भी स्वतंत्र भारत में वही प्रवृत्ति प्रबल है। एक पूरी प्रभावशाली बुद्धिजीवी जमात उसी मिथ्या कूटनीति में लगी है। यह शान्ति तब की बजाए अशान्ति को बढ़ावा देने वाली नीति है। कोई इन अक्ल के मंदों को समझाए! कि वे सामाजिक सदभाव का फल पाने के लिए गलत पेड़ को हिला रहे हैं। पहले सही स्थान की पहचान करें, फिर जैसी सामर्थ्य या साहस हो, चाहे तो आंदोलन, चाहे प्रवचन करें, अथवा मात्र आँसू बहाएं। मगर दरिद्र को ही दान का उपदेश देना फौरन बन्द करें।

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  1. असल में शुरू से ही कांग्रेस ने इस प्रकार की मनोवृति विकसित कर दी जिस से कि मुसलमान यह महसूस करने लगे कि वे इस देश में रह कर अन्य भारतवासियों पर बहुत बड़ा उपकार कर रहे हैं , गांधी नेहरू ने इन्हें शुरू से ही सर पर बैठाया व देश की शेष जनता को बैकफुट पर लेन की कोशिश की , उनकी नज़र यह ही सेकुलरिज्म है , अब आज कुछ क्षेत्रों मुसलमान अन्य लोगों से ज्यादा सुविधाएँ पा कर भी अपने आप को दूसरे दर्जे का बता कर भेदभाव फ़ैलाने में लगे हैं , कांग्रेस, मुलायम , मायावती, ममता व लालू जैसे लोग आज भी वोट व सत्ता के लालच में उनकी इन घृणित हथकंडों को शह दे कर देश को विखंडन के निकट ले जा रहे हैं जिसका अंजाम आने वाली पीढ़ियों को भुगतना होगा , धार्मिक सद्भाव को बिगड़ने का काम इन्ही लोगों से प्रेरित है , व इन तथाकथित साहित्यकारों के इस्तीफे के पीछे भी इनकी ही राजनीति है
    इन लेखकों फिल्मकारों वैज्ञानिकों की आँखे अब ही खुली हैं अब तक तो ये सब स्वप्न लोक में ही विचरण कर रहे थे , इनकी बुद्धिजीविता पर भी अब शक होने लगता है

  2. शंकर शरण जी ने विस्तार सहित विषय रखा है।
    (१)आज इस्लामिक विचारक अल्प मात्रा में समझ रहे हैं। पर अभी उनकी आवाज सुननेवाले कम ही है। विरोधक ही अधिक हैं।
    (२) इस्लाम ऐसे बैसाखी मोड पर खडा है।और अब, सारा संसार इस्लाम को संदेह से देख रहा है। बिलकुल चौकस हो गया है।
    (३) पर, लगता है, इस्लाम सुधार कर नहीं पाएगा।
    इतिहास पन्ना पलटेगा ही।

  3. गाय को पूजने वाले और गे को खाने वाले कैसे एक हो सकते हैं और जिन के आँख , कान और दिमाग ही बंद हो जहां प्रश्न पूछने और करने की स्वतन्त्रता ही न हो उन से हिन्दू धर्म की समानता दिखाना मूर्खता के अतिरिक्त और क्या है

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