मरते किसान लुटती जमीन

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-अरविंद जयतिलक-

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जंतर-मंतर पर आम आदमी पार्टी की किसान रैली के दौरान राजस्थान के किसान गजेंद्र सिंह की रुह कंपा देने वाली मौत ने देश के उन सभी राजनीतिक दलों को नंगा कर दिया है जो किसान हितैषी होने का दावा तो करते हैं लेकिन जमीनी स्तर पर सुधार के लिए बिल्कुल ही तैयार नहीं हैं। अगर उनमें तनिक भी संवेदना होती तो वे एक-दूसरे को आरोपों के कठघरे में खड़ा करने के बजाए किसानों की दुर्दशा पर संजीदगी दिखाते हुए एकजुटता की मिसाल पेष करते। सिर्फ एक गजेंद्र ही नहीं बेमौसम बारिष से हुई क्षति ने हजारों किसानों की जिंदगी लील ली है और सरकारी मुआवजे ऊंट की मुंह में जीरा साबित हो रहे हैं। देश में कृषि की हालत कितनी चौपट है इसी से समझा जा सकता है कि 2001 में देश में 12 करोड़ 73 लाख किसान थे, जिनकी संख्या आज घटकर 11 करोड़ से भी कम रह गयी है। यानी 86 लाख किसान कृषि कार्य से विरत हुए हैं। माना जा रहा है कि प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ एवं सूखा का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की क्षति और ऋणों के बोझ के कारण बड़े पैमाने पर किसान खेती छोड़ने को मजबूर हुए हैं। पिछले एक दशक के दौरान महाराष्ट्र में सर्वाधिक 7 लाख 56 हजार, राजस्थान में 4 लाख 78 हजार, असम में 3 लाख 30 हजार और हिमाचल में एक लाख से अधिक किसान खेती को तिलांजलि दिए हैं। इसी तरह उत्तराखंड, मेघालय, मणिपुर और अरुणाचल जैसे छोटे राज्यों में भी किसानों की संख्या घटी है। आष्चर्यजनक यह कि इस दौरान देश में कृषि मजदूरों की संख्या बढ़ी है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2001 में जहां 10 लाख 68 हजार कृषि मजदूर थे, उनकी संख्या 2011 में बढ़कर 14 करोड़ 43 लाख हो गयी। फिर इस निश्कर्श पर पहुंचना गलत नहीं होगा कि खेती करने वाले किसान ही खेतिहर मजदूर बन रहे हैं। इसका मूल कारण सेज के नाम पर कृषि योग्य जमीनों की लूटपाट, सिंचाई एवं उर्वरक की अनुपलब्धता और बिजली का अभाव इत्यादि है। आंकड़े बताते हैं कि देश में 1990 से 2005 के बीच 20 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि कम हुई है। गौरतलब है कि एक हजार हेक्टेयर खेती की जमीन कम होने पर 100 किसानों और 760 खेतिहर मजदूरों की आजीविका छिनती है। आज देश में प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता 0.18 हेक्टेयर रह गयी है। 82 फीसद किसान लघु एवं सीमांत किसानों की श्रेणी में आ गए हैं और उनके पास कृषि भूमि दो हेक्टेयर या उससे भी कम रह गयी है। कृषि क्षेत्र का विकास दर भी लगातार घट रहा है। आंकड़ों पर गौर करें तो वर्श 1950-51 में देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की भागीदारी 51.9 थी, जो 1990-91 में 34.9 फीसद रह गयी। आज 2012-13 में घटकर 13.7 फीसद पर आ गयी है। यह बेहद चिंताजनक है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र यानी सेज के नाम पर बड़ी-बड़ी कंपनियों ने कृषि योग्य जमीनों की लूटपाट मचा रखी है। कैग की हालिया रिपोर्ट की मानें तो देश में सेज के लिए 45635.63 हेक्टेयर जमीन की अधिसूचना जारी हुई लेकिन कामकाज सिर्फ 28488.49 हेक्टेयर पर शुरू हुआ है। यानी कुल 62.42 फीसदी जमीन पर ही परिचालन षुरु हुआ है। कैग की मानें तो कंपनियों ने सेज के नाम पर सरकार से बड़ी तादाद में जमीन हासिल की लेकिन उस अनुपात में जमीन का इस्तेमाल सेज के लिए नहीं हुआ। जमीन की कीमत बढ़ने के बाद सेज बनाने की अधिसूचना वापस लेकर जमकर मुनाफा कमाया गया। कैग की मानें तो देश के छः राज्यों मसलन आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, महाराश्ट्र ओडि़सा और पश्चिम बंगाल में 39245.56 हेक्टेयर भूमि सेज के रूप में अधिसूचित हुई जिसमें से 5402.22 हेक्टेयर भूमि की अधिसूचना रद्द कर उसका इस्तेमाल अन्य व्यवसायिक उद्देश्य के लिए किया गया। विडंबना यह कि यह सब सरकार की जानकारी में है, बावजूद इसके यह खेल जारी है। कैग की मानें तो सरकार ने सेज को बढ़ावा देने के लिए 83104.76 करोड़ रुपए की छूट भी दी है और यह लाभ पाने वाली कई कंपनियां पूरी तरह अयोग्य हैं और सरकार को 1150.06 करोड़ का नुकसान पहुंचा है।

इकोनोमिक सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट भी कह चुकी है कि देश में उदारीकरण की नीतियां लागू होने के बाद 1990 से लेकर 2005 के बीच लगभग 60 लाख हेक्टेयर खेती की जमीन का अधिग्रहण किया जा चुका है। इनमें अधिकांश का उपयोग गैर-कृषि कार्यों में हो रहा है। नतीजतन कृषि अर्थव्यवस्था चौपट होने के कगार पर पहुंच चुकी है। जिन क्षेत्रों में सरकारें खेती की जमीनों को अधिग्रहित कर रही है, उन क्षेत्रों में विस्थापन को लेकर विकट समस्या उत्पन हो गयी है। अपनी जमीन गंवाने के बाद अब किसानों के पास जीविका का कोई साधन नहीं रह गया है। लिहाजा वे खानाबदोशों की तरह जीवन गुजारने को विवश है। विस्थापित किए गए किसानों के लिए सरकार के पास कोई ठोस पुनर्वास नीति भी नहीं है और न ही उन्हें रोजी-रोजगार से जोड़ने का कोई कारगर तरीका। नतीजा कल तक जो किसान थे, वे आज खेतिहर मजदूर बन गए हैं। निश्चित रूप से विकास के लिए भूमि का अधिग्रहण किया जाना जरुरी है। लेकिन कृषि योग्य भूमि का सर्वनाश कहां तक उचित है? पड़ोसी देश चीन में भी विकास के निमित्त भूमि का अधिग्रहण किया जाता है। एक आंकड़े के मुताबिक चीन सत्तर हजार किलोमीटर से अधिक हाइवे का निर्माण कर चुका है। लेकिन एक इंच भी कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण नहीं किया है। यही वजह है कि वहां कृषि योग्य भूमि कम होने के बावजूद भी वह उत्पादन के मामले में हमसे आगे है। यह सही है कि उद्योग-धंधे, कल-कारखाने एवं सेवा क्षेत्र में सतत विकास की वजह से कृषि की भागीदारी कम हुई है। लेकिन पिछले तीन दशक में कृषि पर निर्भर आबादी में इजाफा दर्षाता है कि गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार के अवसरों का आनुपातिक फैलाव नहीं हुआ है। दूसरी ओर खेती के विकास में क्षेत्रवार विशमता का बढ़ना, प्राकृतिक बाधाओं से पार पाने में विफलता, भूजल का खतरनाक स्तर तक पहुंचना और हरित क्रांति वाले इलाकों में पैदावार में कमी आना और भी चिंताजनक है। आष्चर्य है कि इस दिषा में सुधार का कोई ठोस पहल नहीं हो रहा है। लगातार बढ़ती आबादी, शहरों तथा उद्योगों का विस्तार एवं कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण भी कृषि की समस्या को बढ़ा रहा है। देश में स्पेषल इकोनॉमी जोन (सेज) और हाइवे निर्माण के नाम पर लाखों हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि हड़पा जा चुका दो राय नहीं कि इन साढ़े छः दशक में देश ने चतुर्दिक प्रगति किया है। मूलभूत सुविधाओं को विस्तार हुआ है और प्रति व्यक्ति आय बढ़ी है। लेकिन फसलों और बाजारों की दूरी न घटने, फसलों का उचित मूल्य न मिलने, कृषि में मषीनीकरण और आधुनिक तकनीकी का अभाव इत्यादि कारणों से कृषि और किसानों की दुर्दशा बढ़ी है। बढ़ती ऋणग्रस्तता की वजह से वे आत्महत्या करने का मजबूर हैं। एक आंकड़े के मुताबिक वर्श 2004 में 4385, 2005 में 3175 और 2006 में 1901 किसानों ने आत्महत्या की। राहतकारी है कि अब किसानों की आत्महत्या की प्रवृत्ति में कमी आ रही है। 2007 में 1627 किसानों ने आत्महत्या की जो 2012 में घटकर 697 रह गयी। किसान क्रेडिट कार्ड और फसलों की बीमा योजना से किसानों को राहत मिली है। अच्छी बात है कि सरकार कृषि के विकास में तेजी लाने और इस क्षेत्र में पूंजी निवेश में वृद्धि के लिए प्रयासरत है। उसकी पहल से राश्ट्रीय कृषि विकास योजना, राश्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, गुणवत्तापूर्ण बीज के उत्पादन और वितरण, राश्ट्रीय बागवानी मिशन जैसी अनगिनत योजनाएं चल रही हैं और इससे किसानों को लाभ पहुंच रहा है। उचित होगा कि सरकार सेज के नाम पर कृषि योग्य जमीनों की लूटपाट पर लगाम कसे और कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देने के साथ गैर-कृषि क्षेत्र को भी प्रोत्साहित करे ताकि अधिकाधिक लोगों को रोजगार मिल सके। समझना होगा कि भारत अभी भी कृषि प्रधान देश है और देश की अधिकांष जनता का जीवन निर्वाह कृषि पर अवलंबित है।

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