मरता, क्या न करता?

कांग्रेस सरकार की आज जो हालत हो गई है, उसके बारे में यही कहा जा सकता है कि मरता, क्या न करता? केंद्र सरकार के मंत्रिमंडल ने काफी गंभीर विचार-विमर्श किया और पांच विधेयकों को अध्यादेश के रुप में जारी करने के लिए राष्ट्रपति से अनुरोध भी कर दिया। दो मंत्री उन्हें समझाने के लिए राष्ट्रपति भवन भी पहुंच गए लेकिन राष्ट्रपति ने अपना कर्तव्य निभाया। वे दबाव में नहीं आए। इसी मंत्रिमंडल के वे सबसे ज्यादा अनुभवी और कुशल सदस्य रहे हैं। यदि वे ये अध्यादेश जारी कर देते तो लोग कहते कि उन्होंने राष्ट्रपति की मर्यादा का उल्लंघन किया है। वे आजीवन कांग्रेसी रहे लेकिन वे कांग्रेस के दबाव में नहीं आए, इससे सिद्ध होता है कि राष्ट्रपति को भी देश का आगामी नक्शा साफ़-साफ़ दिखाई पड़ने लगा है। मंत्रिमंडल को मुंह की खानी पड़ी। उसकी चालाकी पकड़ी गई।

जब सबको पता है कि अगली संसद इस संसद के मुकाबले बिल्कुल अलग होनेवाली है और यह सरकार किसी भी हालत में वापस नहीं आ रही है तो उन अध्यादेशों को आज जारी करने की कौनसी तुक है, जिन्हें पारित करने के लिए अगली संसद की शरण में जाना पड़ेगा? पिछले दस वर्षों तक यह सरकार कुंभकर्ण की नींद सोती रही और उसने ये कानून पारित नहीं किए। भ्रष्टाचार-विरोधी इन कानूनों को पारित करना तो दूर की बात है, यह बेलगाम भ्रष्टाचार में डूबी रही। उसने अंग्रेजों को भी मात कर दिया। उसे भ्रष्टाचार-विरोधी कानून बनाने की सुधि तब आई, जबकि उसके भ्रष्टाचार का घड़ा गले-गले तक भर गया। उससे कोई पूछे कि अगर राष्ट्रपति अध्यादेश जारी कर देते तो क्या अगले दो-तीन माह में वह भ्रष्टाचार को खत्म कर सकती थी? उल्टे वह इन अध्यादेशों का बेजा फायदा उठाती। उसके नेता चुनाव-क्षेत्रों में जाकर प्रचार करते कि देखिए, हमारे विरोधी दलों ने इन भ्रष्टाचार-विरोधी कानूनों को पास नहीं होने दिया लेकिन भ्रष्टाचार मिटाने के लिए हम इतने कटिबद्ध हैं कि हमने अध्यादेश जारी करवा दिए। याने कांग्रेस इन अध्यादेशों के जरिए अपने भ्रष्टाचार पर पर्दा डालती। वह और अधिक भ्रष्टाचार करती। इन अध्यादेशों को जारी करवाना अपने आप में भ्रष्टाचार होता। प्रणब मुखर्जी ने अपनी पुरानी पार्टी को इस खाई में गिरने से बचा लिया।

लेकिन जाते-जाते कांग्रेस ने देश के जाटों पर मेहरबानी कर दी। उन्हें ‘अन्य पिछड़े’ कहकर आरक्षण दे दिया। वह भी अध्यादेश द्वारा। उसने जाटों को बेवकूफ बनाने की कोशिश की है। जाट लोग खेतिहर हैं, अपेक्षाकृत कम पढ़े-लिखे हैं लेकिन उनके-जितनी तीव्र बुद्धि देश के कितने लोगों में हैं। उन्हें पता है कि इस आरक्षण की पुड़िया में दाने कितने हैं और भूसा कितना है। वे ये भी जानते हैं कि उनके हाथ क्या लगना है? लेकिन बिचारी कांग्रेस क्या करे? उसकी हालत दम तोड़ते हुए मरीज़ की तरह है। जो भी उसका हाल पूछने आता है, वह नीम-हकीम बन जाता है। ये सभी अध्यादेश उन नीम-हकीमों के नुस्खे हैं। वह सारे नुस्खे आजमा रही है। आखरी सांस गिन रहे रोगी को जो भी दवा दी जाए, ठीक ही है।

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