मनमोहन सिंह जिन आर्थिक सुधारों को फिर से लागू करने को उतावले हैं उनसे कांग्रेस की बची खुची छवि पर भी पानी फिरेगा!
ऐसा लगता है यूपीए सरकार डीज़ल के दाम बाज़ार के हवाले करके उस नीम हकीम ख़तरा ए जान के नक़्शे कदम पर चलने का फैसला कर चुकी है जो मरीज़ को किसी एक गोली के खाने पर रिएक्शन होने पर दो गोली खाने की हिदायत करता है। अभी पेट्रोल के मूल्य को नियंत्रणमुक्त करने से बार बार बढ़े उसके दामों से बाज़ार में लगी महंगाई की आग बुझी भी नहीं थी कि ख़बर आई है कि सरकार तेल कम्पनियों के लाभ में डीज़ल के रेट बाज़ार भाव से कम होने के कारण आ रही कमी से चिंता से दुबली हुयी जा रही है। यूपीए सरकार इस सच्चाई को नज़रअंदाज़ कर रही है कि उसकी इस तरह की जनविरोधी नीतियों की वजह से ही जनता उसको एक के बाद एक चुनाव में बार बार ठुकरा रही है लेकिन वह कोई सबक सीखने को किसी कीमत पर तैयार नहीं है। अजीब बात यह है कि कभी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु अमेरिका जाकर यह बयान देते हैं कि 2014 के बाद यानी नये चुनाव तक आर्थिक सुधार अधूरे रहने के आसार हैं क्योंकि गठबंधन सरकार के हाथ क्षेत्रीय दलों ने एक तरह से बांध दिये हैं।
बसु के इस बयान पर थोड़ा सा दिखावटी हंगामा भी होता है लेकिन ऐसा लगता है कि यह सब एक सोची समझी योजना के तहत हुआ क्योंकि इसके फौरन बाद न केवल डीज़ल के मूल्यों को डिकंट्रोल करने का सरकार ने बड़ा फैसला ले लिया बल्कि खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश, वस्तु एवं सेवा कर जुलाई से लागू करने सहित सब्सिडी कम करने का संकेत सरकार ने घटक दलों को नाराज़ कर उनका विकल्प तलाश करने की हद तक दे दिया है। वित्त राज्यमंत्री नमोनारायण मीना का कहना है कि सरकार ने सिध्दांत रूप से डीज़ल की कीमत बाज़ार द्वारा निर्धारित करने की सहमति दे दी है। हालांकि सरकार की तरफ से यह दावा भी किया गया है कि अंतर्राष्ट्रीय तेल कीमतों में बढ़ोत्तरी से आम आदमी को बचाने के लिये डीज़ल के खुदरा बिक्री मूल्य को ठीक करना जारी रखेगी।
अब यह स्पष्ट स्पश्ट नहीं है कि सरकार डीज़ल मूल्य को नियंत्रणमुक्त करने के बावजूद किस तरह से इसके मूल्य को ‘ठीक’ करने का चमत्कार करेगी? दरअसल पेट्रोल के दाम तेज़ी से बढ़ने से डीज़ल कारों का इस्तेमाल बढ़ रहा है। आज नई कारों की बिक्री में डीज़ल कारों की हिस्सेदारी 36 फीसदी तक जा पहुंची है। अगर यही स्पीड रही तो यह जल्दी ही 50 प्रतिशत तक पहुंच जायेगी। अगर खपत के हिसाब से देखें तो डीज़ल की कुल खपत का 15 प्रतिशत हिस्सा कारों में जा रहा है। बसों में 12 प्रतिशत और औद्योगिक क्षेत्र में इसका उपयोग 10 प्रतिशत के आसपास है। रेलवे में यह प्रतिशत मात्र 6 है तो कृषि में यह 12 प्रतिशत तक रूका हुआ है जिसके लिये इस पर भारी सब्सिडी दी जा रही है। डीज़ल की बढ़ती खपत से सरकार को केवल राजस्व हानि ही नहीं हो रही बल्कि इससे तेजी से प्रदूषण भी बढ़ रहा है। तेल कम्पनियां डीज़ल की प्रति लीटर खपत पर 4.60 रू0 जमा करती हैं तो पैट्रोल की प्रति लीटर खपत में यह हिस्सा 14.35 रू0 है। डीज़ल की खपत कम करने और प्रदूषण घटाने के लिये सरकार द्वारा गठित एक एक्सपर्ट कमैटी ने डीज़ल कार की ख़रीद पर अतिरिक्त कर वसूली की सिफारिश की थी लेकिन कारपोरेट हितों को सबसे ऊपर रखकर चल रही सरकार के कानों पर इससे जूं तक नहीं रेंगी है।
अगर वैश्विक आधार पर देखें तो चीन में जहां पैट्रोल और डीज़ल के दामों में मामूली अंतर है वहीं ब्राजील में डीज़ल कारों के चलने पर अघोषित पाबंदी ही है। डेनमार्क और श्रीलंका में डीजल कारों पर अधिक टैक्स लगाया जाता है। हालांकि हमारे यहां भी सरकार डीज़ल कारों पर एकमुश्त कुछ अतिरिक्त कर लगाने का दावा करती रही है लेकिन यह इतना कम है कि इससे डीज़ल कारें खरीदने वालों की सेहत पर कोई खास फर्क पड़ता नज़र नहीं आ रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि वातावरण में डीज़ल का धुआँ घुलने से इतना अधिक प्रदूषण बढ़ रहा है कि इससे न केवल कैंसर होने की आशंका बढ़ रही है बल्कि इसका असर गर्भवती शिशुओं की जान तक ले सकता है। दरअसल डीज़ल में जानलेवा नाइट्स ऑक्साइड और ओजोन होता है।
हमारी सरकार इस बात से अंजान बनी हुयी है कि जो सस्ता डीज़ल किसानों को खेती के लिये दिया जाना था वह आज 88 प्रतिशत दूसरे कामों की भेंट चढ़ रहा है। यह सही है कि यातायात के साधन और ट्रांसपोर्ट का अधिकांश काम डीज़ल पर निर्भर है तो भी सरकार इस तथ्य से आंख फेर लेती है कि डीज़ल के दामों में प्रतिलीटर एक रूपये की बढ़ोत्तरी होने पर व्यापारी ज़रूरी चीजों के दाम मनमाने ढंग से बेतहाशा बढ़ा देते हैं। मिसाल के तौर पर सरकार का इस बात पर नियंत्रण तो पूरी तरह नाकाम ही लगता है कि प्राईवेट लोग इसी सब्सिडी वाले डीज़ल और मिट्टी के तेल से जनरेटर चलाकर बड़े पैमाने पर बिजली बेचने का छोटे शहरों और कस्बों में काम कर रहे हैं लेकिन इसको रोकने की कोई व्यवस्था हमारे शासन प्रशासन के पास नहीं हैं। बताया जाता है कि तेल पूल घाटे का 60 प्रतिशत हिस्सा डीज़ल की सब्सिडी का है फिर भी सरकार ने इसके दुरूपयोग को रोकने का कोई ठोस कदम आज तक नहीं उठाया है, जिससे साफ पता लगता है कि वह जानबूझकर खाते पीते वर्ग को अब तक इसका बेजा लाभ पहुंचाती रही है।
1991 में आर्थिक सुधार शुरू करने वाली नरसिम्हा राव की सरकार में तेल मूल्यों को तय करने के लिये एक कमैटी गठित की गयी थी। एडमिनिस्ट्रेटिव प्राइज़ मैकेनिज़्म के अनुसार हर दो सप्ताह बाद तेल के दामों की समीक्षा किये जाने की योजना तैयार की गयी लेकिन 2004 तक यह व्यवस्था चली और उसके बाद बंद कर दी गयी। सरकार ने 1963 में खाद एवं रसायन मंत्रालय से अलग कर पैट्रोलियम मंत्रालय का गठन किया था। तब से अब तक कुल 48 सालों में 41 पैट्रोलियम मिनिस्टर बनाये जा चुके हैं। वास्तविकता यह है कि विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष सहित अमेरिका और यूरूप के पंूजीवादी दबाव में यूपीए की सरकार में ही अब तक मणिशंकर अय्यर, मुरली देवड़ा के बाद अब जयपाल रेड्डी सहित तीन मंत्री बनाये जा चुके हैं, जिससे सरकार के किये की ज़िम्मेदारी इन तेल मंत्रियों के सर डालकर इनको बली का बकरा बनाया जा सके। एक तरफ हमारी सरकार का दावा है कि तेल सब्सिडी देने से उसका ख़ज़ाना ख़ाली होता जा रहा है दूसरी तरफ अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में पेट्रोल और डीज़ल के दाम लगातार गिरने के बाद भी वह पहले से ही काफी महंगा कर दिये गये तेल के दाम घटाने को तैयार नहीं होती है।
0इसका कारण यह बताया जाता है कि विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव में हमारी सरकार रूपये का बार बार अवमूल्यन करती रहती है जिससे डालर का रेट अपने आप ही बढ़ जाता है। चूंकि इंटरनेशनल मार्केट से तेल डालर में खरीदा जाता है इससे यह सस्ता होने के बावजूद हमारे लिये लगातार महंगा होता जा रहा है। वैसे भी कारपोरेट घरानों के एजेंट की तरह काम करने वाली सरकार को आम जनता के हित से क्या लेना देना?
तेल के बढ़ते दामों का सबसे अधिक लाभ सरकार को हो रहा है इसकी वजह यह है कि सरकार तेल के वसूल किये जाने वाले मूल्य का 40 फीसदी टैक्स में खुद खा रही है। 2011/12 में सरकार उत्पाद शुल्क से 82000 करोड़ कमायेगी जबकि उसका पिछले साल का लक्ष्य 120000 करोड़ रहा था। सरकार का दावा है 2010/11 में जो तेलपूल घाटा 78000 करोड़ था वह 2011/12 में बढ़कर 132000 करोड़ हो जायेगा। 0यह देखा जाना ज़रूरी है कि यह अंडर रिकवरी क्या है? देश आज़ाद होने से पहले 1947 तक तेल कीमते अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ही तय होती थीं लेकिन 1976 में इस व्यवस्था को ख़त्म कर नियंत्रित मूल्य प्रणाली चालू की गयी। इस सिस्टम को एक बार फिर नव उदारवादी नीतियों के हिसाब से बदलकर आयात तुल्यता मूल्य प्रणाली लागू कर दी गयी जिसमें आयातित कच्चे तेल का मूल्य, शोधन की लागत और तेल कम्पनियों का उचित मुनाफा जोड़ा जाता है। सच यह है कि हमारे देश की तेल कम्पनियों किसी तरह के घाटे में नहीं हैं जिसका सबूत यह है कि ऑडिटशुदा वित्तीय परिणाम के अनुसार इंडियन ऑयल का 31 मार्च 2010 को कुल मुनाफा 10998 करोड़ और इंडियन ऑयल कारपोरेशन का संचित लाभ 49472 करोड़ रहा है। यही हाल हिंदुस्तान और भारत पेट्रोलियम कारपोरेशन का है।
अच्छी नहीं है शहर के रस्तों की दोस्ती,
आंगन में फैल जाये न बाज़ार देखना।।
आपलोग जब डीजल को लागत से कम में बेचने का पक्ष लेकर बात करते हैं,तो मुझे तो (क्षमा कीजियेगा,अगर मैं मर्यादा का उल्लंघन कर रहा हूँ तो ) यह देश द्रोह जैसा लगता है.कभी आपलोगों ने सोचा है कि भारत के अतिरिक्त शायद ही और कोई ऐसा देश हो जहां डीजल की कीमत नियंत्रित हो. डीजल की खपत और उसके कीमत में नियंत्रण के चलते जो बोझ आता है उसको जनता के निम्न तम वर्ग तक को भुगतना पड़ता है,जबकि इसका सबसे अधिक लाभ समाज का धनी वर्ग उठाता है,चाहे वह बड़ी गाड़ियों का मालिक हो या बड़े फ़ार्म हाउसों का मालिक.इसका लाभ आम जनता को आंशिक रूप में ही मिल पाता है.आज देश में डीजल गाड़ियों की बिक्री पेट्रोल गाड़ियों से अधिक है.इसका कारण है,डीजल के मूल्य पर नियंत्रण.यह शायद लोगों को ज्ञात नहीं है कि डीजल गाड़ियों से फैलने वाला प्रदूषण पेट्रोल वाली गाड़ियों से भी बहुत अधिक है.सी.एन.जी से तो खैर तुलना ही नहीं है.डीजल हो या पेट्रोल ये सब आयात होते हैं.यह कहाँ का न्याय है कि विदेशी मुद्रा खर्च करके समाज के कुछ वर्गों के सुख के लिए पूरे समाज को सजा दी जाए.अतः आपलोग इसे क्रूड के आयातित मूल्य के साथ जुड़ने दीजिये.कुतर्क के जाल में उलझने और उलझाने से कोई लाभ नहीं.
आपलोग जब डीजल को लागत से कम में बेचने का पक्ष लेकर बात करते हैं,तो मुझे तो (क्षमा कीजियेगा,अगर मैं मर्यादा का उल्लंघन कर रहा हूँ तो ) यह देश द्रोह जैसा लगता है.कभी आपलोगों ने सोचा है कि भारत के अतिरिक्त शायद ही और कोई ऐसा देश हो जहां डीजल की कीमत नियंत्रित हो. डीजल की खपत और उसके कीमत में नियंत्रण के चलते जो बोझ आता है उसको जनता के निम्न तम वर्ग तक को भुगतना पड़ता है,जबकि इसका सबसे अधिक लाभ समाज का धनी वर्ग उठाता है,चाहे वह बड़ी गाड़ियों का मालिक हो या बड़े फ़ार्म हाउसों का मालिक.इसका लाभ आम जनता को आंशिक रूप में ही मिल पाता है.आज देश में डीजल गाड़ियों की बिक्री पेट्रोल गाड़ियों से अधिक है.इसका कारण है,डीजल के मूल्य पर नियंत्रण.यह शायद लोगों को ज्ञात नहीं है कि डीजल गाड़ियों से फैलने वाला प्रदूषण पेट्रोल वाली गाड़ियों से भी बहुत अधिक है .सी.एन.जी से तो खैर तुलना ही नहीं है.डीजल हो या पेट्रोल ये सब आयात होते हैं.यह कहाँ का न्याय है कि विदेशी मुद्रा खर्च करके समाज के कुछ वर्गों के सुख के लिए पूरे समाज को सजा दी जाए.अतः आपलोग इसे क्रूड के आयातित मूल्य के साथ जुड़ने दीजिये.कुतर्क के जाल में उलझने और उलझाने से कोई लाभ नहीं.