भाजपा के राम को गडकरी विरोध के कारण पार्टी से निलंबित कर दिया गया है जो यह साबित करता है कि पार्टी अपनी आर्थिक जरूरतों के चलते गडकरी विरोध को पचा नहीं पा रही है। गौरतलब है कि नितिन गडकरी महाराष्ट्र के बड़े व्यापारियों में गिने जाते हैं और अकूत सम्पदा के मालिक हैं। एक ओर जहां मीडिया में उनके अजय संचेती से कारोबारी रिश्तों को लेकर अटकलों का बाजार गर्म है वहीं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार से भी उनके मधुर संबंधों की चर्चा है। इंडिया अगेंस्ट करप्शन की अंजलि दमानिया ने भी गडकरी-पवार के रिश्तों पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि दोनों की जुगलबंदी के कारण महाराष्ट्र में किसानों के हितों पर कुठाराघात हो रहा है। खैर यह गहन जांच का विषय हो सकता है मगर फिलहाल तो राम जेठमलानी को गडकरी विरोध भारी पड़ ही गया है। हालांकि जेठमलानी के भाजपा में रहने या न रहने से पार्टी या स्वयं उन्हें कोई ख़ास फर्क न पड़ता हो किन्तु यदि गडकरी के खिलाफ एक भी मामला न्यायालय में जाता है तो जेठमलानी वहां गडकरी के लिए मुश्किलें उत्पन्न कर सकते हैं। देखा जाए तो जेठमलानी पर निलंबन की कार्रवाई भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की कुंठा को प्रदर्शित करती है। गडकरी के विरोध में पार्टी के भीतर जेठमलानी और उनके पुत्र महेश जेठमलानी अकेले व्यक्ति नहीं थे। वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा, लोकसभा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा से लेकर कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येद्दुरप्पा भी गडकरी विरोध का झंडा बुलंद किए हुए थे। तब अकेले राम जेठमलानी पर निलंबन की कार्रवाई संदेह को जन्म देती है। क्या भाजपा का शीर्ष नेतृत्व राम जेठमलानी को मात्र राज्यसभा सांसद और एक वरिष्ठ अधिवक्ता के तौर पर ही तवज्जो देता आया है? चूंकि जेठमलानी का सक्रिय राजनीति से दूर-दूर तक लेना देना नहीं है और वे जन नेता नहीं है; क्या इसलिए पार्टी ने उन्हें कमजोर जान उनपर कार्रवाई की है? ये दोनों ही तर्क सर्व-सामान्य के लिए स्वीकार्य हो सकते हैं। जेठमलानी पर कार्रवाई कर भाजपा नेतृत्व ने एक संकेत तो दे ही दिया है कि वह गडकरी से पलड़ा छुड़ाना ही नहीं चाहती। हां यह बात और है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में इतना दम नहीं दिखता कि वह वरिष्ठ व जननेताओं पर कार्रवाई कर सके। क्या यह पार्टी विद डिफ़रेंस का नारा बुलंद करने वाली पार्टी का दोहरा चरित्र नहीं है?
कभी जिन्ना की मजार पर मत्था टेकने और उनकी तारीफ करने वाले पितृ पुरुष लालकृष्ण आडवाणी को हाशिए पर धकेलने वाले और जसवंत सिंह की जिन्ना तारीफ पर उन्हें पार्टी से रुखसत करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भाजपा में बढ़ता दखल ही है कि गडकरी भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों के बाद भी अपने पद पर डटे हुए हैं। किन्तु राम जेठमलानी का संघ परिवार से कोई लेना देना नहीं है लिहाजा उन्हें हटाकर संघ ने परोक्ष रूप से पार्टी पर अपनी पकड़ का एहसास करवा दिया है। हालांकि जेठमलानी भी अपने विवादित बयानों और विवादित हस्तियों के केस लड़ने को लेकर स्वयं विवादित हो गए थे मगर किसी की अभिव्यक्ति की आजादी को न तो छीना जा सकता है न ही किसी के पेशे पर तब तक उंगली उठाई जा सकती है जब तक की उसके अनैतिक कृत्यों से समाज पर बुरा प्रभाव न पड़े। और इन दोनों स्थितियों का जेठमलानी के निलंबन से कोई मेल नहीं है। उन्हें तो सिर्फ और सिर्फ गडकरी विरोध की सजा दी गई है ताकि अन्य नेता भी यह समझ लें कि गडकरी का विरोध मतलब उनका पार्टी से निकाला जाना तय है। जेठमलानी ने आजतक जो भी कहा है उनके पास उसे सत्य साबित करने के तर्क भी होते थे किन्तु भाजपा मंडली को उनके तर्क जेहादी लगने लगे और उन्हें निपटाने का मौका ढूंढा जाने लगा और वह मौका जल्द ही आ भी गया। जेठमलानी के निलंबन के बाद भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भले की चैन की सांस ले रहा हो किन्तु भ्रष्टाचार के मुद्दे पर वह बैकफुट पर आ गया है। जरा सोचिए; अब भाजपा भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर कैसे जनता के सम्मुख जाएगी जबकि उसका स्वयं का राष्ट्रीय अध्यक्ष ही भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों का सामना कर रहा है और अब तक अपने पद पर बना हुआ है। फिर देश में जिस तरह जनांदोलनों को लेकर माहौल गर्म है ऐसे में भाजपा की भद पिटना भी तय है। जेठमलानी का निलंबन यक़ीनन भाजपा की छवि को नुकसान पहुंचाएगा। यदि भाजपा अब भी गडकरी की गड़बड़ी के मोह पाश से मुक्त नहीं हो पाई तो आज एक जेठमलानी बाहर हुए हैं; यही हाल रहा तो न जाने कितने जेठमलानियों की बलि ले लेंगे गडकरी। तब क्या उनका व्यापार और आर्थिक साम्राज्य पार्टी की नैया पार लगाएगा?
निलंबन नहीं निष्कासन आवस्यक है