मुक्ति

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Baby holding mother's hand, close-up

-बीनू भटनागर-

Baby holding mother's hand, close-up

वो ज़िन्दा ही कब थी,

जो आज मर गई,

सांसों का सिलसिला था,

बस, जो चल रहा था।

आज वो मरी नहीं है,

मुक्त हो गई।

घाव जितने थे उसके तन पे,

कई गुना होंगे मन पे,

मन के घावों का कोई,

हिसाब कैसे रखे।

वो झेलती रही,

बयालिस साल तक पीड़ा,

मुक्ति देने का,

न उठाया किसी ने बीड़ा।

अच्छा हुआ जो निर्भया,

मुक्त होकर निकल गई।

कब तक मरेंगीं दामिनी या कामिनी यहाँ

जब तक समाज मे पनपेंगे ये भेड़िये,

जब तक न ये जीवन भर सड़ेंगे जेल मे।

बेड़ियों म जकड़कर इनके हाथ और पैर,

पडे. रहें अकेले अंधरी कोठरी मे दिवस रैन,

कोई न मिल सके इनसे,

न  हो बेल या पैरोल।

एक बार मे मौत इन्हें न मिले

एक बार नहीं रोज रोज़ बार बार ये मरें।

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बीनू भटनागर
मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

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