परिचर्चा : ‘वैचारिक छुआछूत’

भारत नीति प्रतिष्ठान एक शोध संस्‍थान है। इसके मानद निदेशक हैं दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में प्राध्‍यापक श्री राकेश सिन्‍हा। श्री सिन्‍हा राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ से जुड़े हैं और संघ के संस्‍थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार के जीवनीकार हैं। प्रतिष्‍ठान के बैनर तले विभिन्‍न समसामयिक मुद्दों पर संगोष्‍ठी का आयोजन वे करते रहते हैं। इसी क्रम में गत 14 अप्रैल को प्रतिष्‍ठान ने ‘समांतर सिनेमा का सामाजिक प्रभाव’ विषय पर संगोष्‍ठी का आयोजन किया। वामपंथी कवि-पत्रकार श्री मंगलेश डबराल इसकी अध्यक्षता करने आये थे। इस बात को लेकर वामपंथियों ने श्री डबराल की चहुंओर आलोचना शुरू कर दी। कहा कि राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के ‘विषैले प्रचारक’ की अगुआई वाली संस्‍था के कार्यक्रम में श्री डबराल क्‍यों गए ? सोशल साइट्स पर यह मामला जमकर उछला। बाद में श्री डबराल ने प्रतिष्ठान में अपनी उपस्थिति को ‘चूक’ बताई।

इसी मसले पर जनसत्ता ने अपने चार रविवारीय अंकों में वैचारिक एवं बौद्धिक संवाद पर बहस चलाया। इसके संपादक श्री ओम थानवी ने 29 अप्रैल को ‘अनन्‍तर’ स्‍तम्‍भ में ‘आवाजाही के हक में’ अपने विचार व्‍यक्‍त किए। इसके बाद पक्ष-विपक्ष में कई लेख लिखे गए। अंत में 27 मई को श्री ओम थानवी ने ‘अनन्‍तर’ में विचार व्‍यक्‍त कर इस बहस को समाप्‍त किया।

प्रवक्‍ता डॉट कॉम का मानना है कि स्‍वस्‍थ बहस लोकतंत्र का प्राण होती है। सब जानते हैं कि अपने देश में शास्त्रार्थ की परंपरा रही है, जिसके माध्‍यम से विभिन्‍न विचारधारा के लोग एक ही मंच पर विचार-विमर्श करते थे। वामंपथियों द्वारा प्रस्‍तुत यह वैचारिक छुआछूत दुर्भाग्यपूर्ण है। वैचारिक एकरूपता और एकरसता लोकतांत्रिक समाज के लिए घातक है। हम चाहते हैं कि प्रवक्‍ता के पाठक और लेखक इस विषय पर अपनी बात रखें जिससे हमारा लोकतांत्रिक समाज और सशक्‍त हो सके। 

इस पूरे प्रकरण को विस्‍तार से जानने के लिए यहां क्लिक करें : https://www.pravakta.com/category/against-ideological-untouchability

42 COMMENTS

  1. अनुरोध पासवान जी की जून ६ की टिपण्णी पढ़कर असीम आनंद हुआ, जानकारी भी हुयी, इसी भाँति हमें आप उपकृत करते रहें, यह बिनती |

  2. प्रवक्ता को एक प्रेम भरी चेतावनी|
    यदि हम अपना मस्तिष्क बहुत ही खुला रखेंगे, तो यह जड़वादी, उसमें कचरा कूड़ा डाल डालकर, उसकी पहचान और गरिमामयी छवि ही समाप्त कर देंगे|
    प्रवक्ता को पाठक पढ़ने इस लिए आते हैं, क्यों कि यहाँ उन्हें शुद्ध और देशहितकारी विचार पढ़ने मिलते हैं|
    कीचड़ उछालने के लिए भी विचार स्वातंत्र्य का और वाणी स्वातंत्र्य का उपयोग किया जाता है|
    ऐसे ही स्वातंत्र्य के परिणामों से पश्चिम सांस्कृतिक विनाश की ओर शनैः शनैः आगे बढ़ चुका है|
    आपकी छवि समाप्त करना ही क्षुद्र विचारधाराओं का लक्ष्य है|

  3. प्रवक्ता विचार जगत का एक महत्वपूर्ण मंच बनकर उभरा है. आज इसने वैचारिक दुनिया को गोलबंद करने का कम किया . इसके लिए इसके संपादक को बधाई. पर जब मी विचारिक छोआछोत के ऊपर काफी अच्छे लेख आये हैं. विपिन सिन्हा, अम्बचरण , राकेश सिन्हा के लेखो में तर्कपूर्ण बात है. परन्तु किसी वामपंथी ने अबतक प्रतिवाद नहीं किया है. वे यहं भी इसकी उपेक्षा कर छूअछोत ही कर रहे हैं. इसलिए वे राकेश सिन्हा की रणनीति में फसकर परेशां हुए. आज वामपंथ का बार धरा इसमें उलझ गया की संघ समर्थित मंच पर जाए या नहीं. प्रवक्ता ने विचार पर बहस को आगे बढ़ने का कम किया है. परन्तु कुछ लोगो ने ओछी भाषा और गली जैसे शब्दों का प्रयोग कर विचार पर ग्रहण लगाने का कम किया है. प्रवक्ता को इस ग्रहण से बचाना चाहिए. नहीं तो राकेश सिन्हा के उठाये गए सवाल और मबचरण , विपिन सिन्हा के महत्वपूर्ण हस्तक्षेप खो जाएँगे और पाण्डेय-पासवान, पाण्डेय -ठाकुर, पाण्डेय -मधुसुदन के चर्चा मके इसकी गम्बिरता समाप्त हो जाएगी. लोग ऐसे लोकप्रिय मंचो का इसी पारकर अपना भड़ास निकालने के लिए उपयोग करते है. पहले गली दो फिर क्षमा मांगो इसके लिए शायद प्रवक्ता नहीं फसबूक का उपयोग लोग करे.एक ने तो पहले मन लिया की उसे प्रवक्त पर ब्लोक कर दिया जाएगा!!

  4. जिस प्रकार का छुआछुत वामपंथियों ने संघियों के लिए अपनाया है अब वैसा ही छुआछुत ममता ने इनके साथ अपना लिया है तो इन्हें बहुत तकलीफ हो रही है, अभी कुछ दिनों पहले तक चिल्ला रहे थे की बंगाल के लोगो को ममता को चुनने का अफ़सोस हो रहा है, इस बार तो ममता ने अकेले ही इनको इनकी औकात बता दी है, ये जल्दी ही विलुप्त होने वाले है संपादक महोदय श्रीराम जी और जगदीश्वर जी का एक लाइव इंटरव्यू भी ले लीजिये अगली पीढ़ी को दिखाने के काम आएंगे

  5. वैचारिक बहस से परहेज किन्ही और क्यों है?
    जब मंगलेश डबराल प्रकरण सामने आया तब वामपंथ में खलबली मच गयी. वे आपस में आक्रमक हो गए. उन्हें संघ प्रेरित संस्था में जाना नागवार गुजरा. प्रो राकेश सिन्हा पर जमकर प्रहार हुआ. राकेश सिन्हा चुपचाप बहस देखते रहे. जब ओम थानवी ने बहस का अंत किया तब उन्होंने अपने फसबूक पर जवाब लिखा जिससे बहस आगे बढ़ा. उन्होंने वामपंथ की बौद्धिक परंपरा पर प्रमाणों के साथ वैचारिक प्रहार किया परन्तु वह प्रहार उन्हें उनकी नियत और परिस्थिति का आभाष करने के लिए था. उन्होंने उभरती हुई चुनौतियों की ओर ध्यान दिलाते हुए एवं संवाद की आवश्यकता बताते हुए उन्होंने उन वाम लेखको को जवाब दिया की संघ किसी से वैधानिकता का मुहताज नहीं है , हेडगेवार-गोलवलकर अधिष्ठान की जमीं मजबूत है. वामपंथी ब्लॉग जनपथ ने सिन्हा जी के जवाब को एक मिल का पत्थर मानते हुए वामपंथियों से अपील की की इसका जवाब ढूढे परन्तु दो जवाब आये वे उस बहस के कमजोर कड़ी सिद्ध हुए.
    राकेशजी की डॉ हेडगेवार की पुस्तक को मैंने पढ़ा है. यह एक प्रमाणिक शोध कार्य का प्रमाण है. इसे संघ के समर्थको एवं विरोधियों द्वारा खूब पढ़ा जाता है. आपको बता दूँ की यु पी ए सरकार ने इसका दूसरा संस्करण छपा है और प्रकाशन विभाग की इस श्रंखला में सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तक है! इसका कारण है की उन्होंने इसमें कहानी किस्से नहीं लिखे हैं बल्कि वैचारिक प्रश्नों को उठाया है. आज वे बौद्धिक जगत में अपनी साख के बदुअलत ही भारत नीति प्रतिष्ठान को एक उचाई प्रदान किया है.
    भारत नीति प्रतिष्ठान का सबसे अच्छा उपक्रम दो दर्जनों उर्दू अखबारों का नियमित अनुवाद है और इसका पाक्षिक विश्लेषण मुझे नियमित मिल रहा है. आपको जानकर आश्चर्य होगा की इंडियन डिफेंस स्टडीज एंड अनालिसिस में इसे महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में संग्रह किया जाता है. ऐसे कई संस्तःन हैं जहाँ यह संग्रह किया जा रहा है. आज देश भर में कौन संस्था है जिसने इस काम के महत्त्व को समझकर नियमित और लगातार काम किया हो ?
    भारत क्त थिंक टंक किस स्थिति समझने के लिए जो कार्य इसने बिरला इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट एंड टेक्नोलोजी के साथ करना शुरू किया है वह अभिनंदनीय है. ४२२ थिंक तंकस कस अध्ययन कोई आसन काम नहीं है. तभी तो विचार्दाहरा से हटकर शिबल गुप्ता , जनक पण्डे, अबू सालेह शरीफ जैसे लोग इसके संगोष्ठी में आये!
    पन्दहावी लोक सभा के सामाजिक आधार पर इसकी पुस्तक छपने जा रही है तो राज्य सभा में १२ नामांकित सदस्यों की भूमिका और उसकी प्रासंगिकता, मनोनयन के मापदंडो पर शोध कार्य इसके द्वारा किया जा रहा है.
    शत्रु संपत्ति अधिनियम में संशोधन के खिलाफ इसके शोधपूर्ण दस्तावेज ने गृह मंत्रालय के स्तःयी समिति को प्रवावित किया तो काननों मंत्रालय और गृह मंत्रालय को इसके निदेशक राकेश सिन्हा सामान अवसर आयोग पर लिखित पुस्तक ने झकझोरा. इन दोनों बातो कास समाचार भी राष्ट्रीय अखबारों में आया है. क्या इस उपलब्धि को असाधारण नहीं माने ?
    जनगणना के ऊपर इसका महत्वपूर्ण कार्य हुआ. जब बाबा रामदेव पर घटक हमला हुआ तो इसने जो पुस्तिका निकली उसे पढ़कर प्रतिष्ठान की चेतना के स्टार को समझा जा सकता है.
    सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक २०११ पर राकेश सिन्हा के हस्तक्षेप पत्र पर जनसत्ताएवं अन्य अखबारों में समाचार आया की गृह मंत्रालय ने इसके द्वारा उतःये गए objections को गंभीरता से लिया है . इसी विषय पर प्रतिष्ठान ने राष्ट्रीय एकता परिषद् की बहस और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् के निहितार्थ का तुलनात्मक अध्ययन के साथ साथ राष्ट्रीय सलाहकार परिष के सदस्यों के बारे में जानकारियों को प्रकाशित किया है.
    तीन वर्षो में इस संस्था ने जो काम किया वह इसके वेबसाइट पर उपलब्ध है और इसी कार्य ने इसे बौद्धिक जगत में मान्यत दी है. यह सब मैंने प्रतिष्ठान के बारे में इसलिए लिखा है जो बहस कर रहे हैं वे काम से काम थोड़ी जानकारी जरूर रखे. अनर्गल लिखना या काल्पनिक बाते करना या आलोचना करना आसन होता है , ठोस हस्तक्षेप करना कठिन होता है.इसी प्रतिष्ठान ने रंगनाथ मिश्र आयोग के सदस्य सचिव आशा दास को बुलाकर उनसे वे बाते कह्वायी जिससे आयोग कठघरे में खड़ा हो गया . वैचारिक बहस करने के लिए सिन्हा जी ने जो सतर्कता बरती और वैचरिक प्रश्नों को आगे बढाया इसी ने हमारे जैसे लोगो को इससे जुड़ने के लिए प्रेरित किया.

  6. राष्ट्र जागरण के प्रयासों को आगे बढाने में ‘प्रवक्ता’के योगदान का मूल्यांकन
    अभी कठिन है, किन्तु इतना तो समझा जा सकता है कि आज हम सब जो अनेक राष्ट्रवादी
    लेखक संवाद कर पा रहे हैं और एक दूसरे से उत्साह व प्रेरणा लेते हुए औरों को
    भी प्रेरित, उत्साहित कर पा रहे हैं तो ‘प्रवक्ता’ के कारण यह संभव हुआ है.
    इसके लिए सम्पादक महोदय बधाई के पात्र हैं. उन्हें भी अपने प्रयास की
    अनापेक्षित सफलता पर गौरव होता होगा जो कि होना भी चाहिए. उनके लिए हार्दिक
    शुभकामनाएं. पर हम सबको याद रखना होगा कि अभी लड़ाई लम्बी है.

  7. ‘भारत नीति प्रतिष्‍ठान-मंगलेश डबराल’ विवाद पर हो रहे विमर्श में सिर्फ एक पक्ष याने ‘संघ ‘ का दृष्टिकोण ही परिलक्षित हो रहा है, क्योंकि दूसरे पक्ष याने ‘वामपंथ ‘ की ओर से कोई प्रतिनिधि संगठन अभी तक नामजद नहीं हुआ है .जहाँ तक ‘जनवादी लेखक संघ ‘के दृष्टिकोण का प्रश्न है तो वो श्री चंचल चौहान ने पहले ही प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के मार्फ़त तत्सम्बन्धी विषय पर प्रस्तुत कर दिया है. जहां तक pravakta.com पर इस सन्दर्भ में आहूत किये जा रहे वैचारिक विमर्श का प्रश्‍न है उसका मैं पूर्ण समर्थन करता हूँ . आपके सद्प्रयासों में तो मुझे कोई दिक्कत या शक सुबह नहीं है किन्तु ‘भारत नीति प्रतिष्ठान’ हो या सीधे-सीधे संघ का वैचारिक प्रकोष्ठ कहिये, उसके साए में पाले, बढे लोग और वामपंथ याने ‘वैज्ञानिक भौतिकवादी’ या ‘मार्क्सवादी-लेनिनवादी-सर्वहारा अंतरराष्‍ट्रीयवादों’ के सोच के साये में पढने-लिखने-सोचने-समझने और संघर्ष चलाने वालों में ‘आवाजाही’ और छुआछूत की कट्टरता एक दिन में निर्मित नहीं हुई. जिस तरह दुनिया के तमाम इतिहास बताते हैं कि ‘कोई भी विचारधारा या ‘वाद ” ism’ अपने आपमें पूर्ण नहीं है उसी सिद्धांत के आधार पर यह वामपंथ और दक्षिणपंथ का द्वंद केवल ‘शास्‍त्र’ या वेबसाईट पर विमर्श से नहीं बल्कि मौजूदा चुनौतियों का सामना करने में मानवमात्र को, देश-काल से परे यथोचित संबल प्रदान करेगा, वही विचार जिन्दा रहेगा. ‘survival is the fitest’ सिर्फ जुमला नहीं बल्कि दार्शनिक या वैचारिक धरातल पर मानव के उन्नयन का भी पथ प्रदर्शक है .

    ‘भारत नीति प्रतिष्ठान’ को और राकेश सिन्हा जी को उनकी नेक नियति के लिए साधुवाद ….

  8. चूंकि श्री मंगलेश डबराल ने इसे “चूक”माना तो प्रकरण समाप्त हो जाना चाहिए था
    यूं भी …

  9. वे तो झोले में कबाड़ उठा के चले…………!
    यह विचारों का क्षरण काल है। अपने हस्ताक्षरित वाक्यों/पंक्तियों से पल्ला झाड़ने का दौर। अपने ही कहे-बोले गए शब्दों से मौका-मुआफिक बदल जाने का समय। दरअसल, यह कोई चूक-चाक नहीं; वक्त ही मुआ ऐसा है कि प्रगतिशील/वामपंथी/जनवादी/संघी/साहित्यकर्मी/संस्कृतिकर्मी सभी खेमे में अधिसंख्य आजकल अपने कंधे से लटके झोले में कबाड़ उठाए घूम रहे हैं। ये कबाड़ी अपने को बेहद उपयोगी सिद्ध करने का कोई भी मौका(मंच) हाथ से नहीं जाने देना चाहते हैं। माफ करें, इनके इस घूर्णन(साहित्यिक/सांस्कृतिक गतिशीलता एवं क्रियाशीलता) से न तो मौसम बदलता है और न ही ऋतुएं। वस्तुतः नया कुछ घटित नहीं होता; हां, पुराने पर ही और अधिक गर्द अवश्य जम जाता है। आमआदमी का चेहरा टांगे फिरते ये बहुरुपिए वास्तव में आमआदमी से आबद्ध-प्रतिबद्ध या सम्बद्ध कतई नहीं हैं। और जो सचमुच हैं वे प्रायः अंत तक चुप रहते हैं। लेकिन वे जब आवाजाही के हक में बोलते हैं तो वाकई गर्द
    बहुत कुछ हटने लगता है।
    खैर, भारत नीति प्रतिष्ठान(इस बहस से इस प्रतिष्ठान के नाम से परिचित हुआ। लेकिन यह जानकर दुःख हुआ कि इसमें जाने मात्र से कथित नीतिवानों की प्रतिष्ठा में घटोतरी होने लगती है।) ने जिस विषय पर परिसंवाद/गोष्ठी का आयोजन किया; वह मौजूदा समय का जरूरी बहस है। ‘सामानान्तर सिनेमा का सामाजिक प्रभाव’ विषयक बहस-मुबाहिसे में भाग लेने वाले निश्चय ही पब्लिक के एजेंडे पर काम करने वाले, उसके हित/पक्ष में मरने-मिटने वाले जीवट लोग हैं। ऐसे व्यक्ति अपनी भागीदारी या उपस्थिति को ‘चूक’ बताकर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं..यह वाकई एक दुःस्वप्न है। हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि मंगलेश डबराल जी का नाम इस प्रकरण में घसीटा जा रहा है…यह आघात का क्षण है। उनकी छवि हमारे मन-दर्पण में उन प्रस्तर मूर्तियों की माफिक नहीं है कि हम उसे जब चाहे तोड़ दें या कम्प्यूटरी तकनीक के हिसाब से डिलिट कर उसे तत्काल डस्टबीन के हवाले कर दें। बावजूद इसके ऐसे संवेदनशील मौके पर
    मंगलेश जी का भारत नीति प्रतिष्ठान में अपनी उपस्थिति को चूक बताना; हमारे उम्मीदों के बिल्कुल विपरीत का मामला है। हम जैसे पाठकों के लिए आप कहां से बोल रहे हैं, इससे अधिक महत्त्वपूर्ण है कि आप क्या बोल रहे हैं और आपके बोले का मौजूदा देश-काल-परिवेश में कैसा और कितना हस्तक्षेप है?
    जनसत्ता पत्र ने इस प्रकरण पर स्वस्थ बहस चलाकर अपनी भूमिका को बेहद महत्त्वपूर्ण और पारदर्शी बना दिया है।

    -राजीव रंजन प्रसाद, शोध-छात्र
    हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
    वाराणसी-221 005।

  10. प्रजातंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो सबको है
    और फिर कवि और पत्रकार को निष्पक्ष और स्पष्टवादी होने की आशा की जाती है.
    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों को हम कैसे विषैले विचारों की प्रचारक
    संस्था बता सकते हें. फिर देश में या कहीं

  11. Some years ago a huge programme ‘Shyama Prasad Mukharji Balidan Divas, was organised here in London.
    The largely attended event was presided over by none other than the then your Deputy Prime Minister Shree Lal Krishna Adwani. A singer sang a moving melodious tribute to the great son of Bharat Mata . It is said he himself composed the lyrics and the tune and locked him in for two days to do that before the evening. To honour his wishes I am not mentioning his name.I recorded that eve. And I try to type for you while listening to my recorder.I think the content has the significance beyond time.The tune depicts more than the words but am not technically well equipped at the moment to send the sound clip, may be in future.The words as follows…………..
    हे आशुतोषनंदन श्यामाप्रसाद वंदन |
    किस भाँति चुकाएँ ऋण, कर रहा हृदय क्रन्दन ||

    बस यही एक सपना पल छिन तेरे मनमें |
    आसेतु हिमाचलकी मिट्टीके कण कणमें ||
    गरिमाका हो दर्शन जननीके आननमें|
    कन्याकुमारिकासे कश्मीरी काननमें
    बस इसी हेतु तेरा बलिदान हुआ जीवन |
    किस भाँति चुकाएँ ऋण, कर रहा हृदय क्रन्दन ||

    शोनार बंगभूकी तुम भावभक्तिधारा |
    माँके केशरमण्डित आननपर तन वारा ||
    वह् कौन भूल सकता व्यक्तित्व प्रखर भास्वर |
    संसदमें या बाहर अनुपेक्ष्य तुम्हारा स्वर||
    ”बस चार मुझे दे दो जो दीनदयाल बनें |
    ध्येयको अटल अर्पित जो माँके लाल बनें ||
    सार्थक इस विधि मेरा जीवन हो या कि मरण” ||
    किस भाँति चुकाएँ ऋण, कर रहा हृदय क्रन्दन ||

    तव जन्म राष्ट्रजननीकी भक्तिपाठशाला |
    पी आत्मसात्‌ करते छल राजनीति हाला ||
    जो सरलचित्त उनको है राजनीति दुर्गम |
    साधककी परीक्षाको सर्वत्र भरा फिसलन |
    पर हमें कहाँ चिंता आदर्श तुम्हारा है |
    है ध्येय परमवैभव सेवाव्रत धारा है ||

    हम नीलकंठ बनकर धारण करते लांछन |
    पर करने अमृतकी शीतलताका वितरण ||
    आचार और चिंतन तव हमें मार्गदर्शन ||
    किस भाँति चुकाएँ ऋण, कर रहा हृदय क्रन्दन ||
    हे आशुतोषनंदन श्यामाप्रसाद वंदन |
    किस भाँति चुकाएँ ऋण, कर रहा हृदय क्रन्दन ||

  12. वामपंथी हो या द्क्षिन्पंथी दोनों ही बौधिक छुआछूत के लिए ज़िम्मेदार है
    चूँकि अधिकांश अकादमिक सस्थानो पर वामपंथियों का कब्ज़ा है अत चाहे अनचाहे
    वामपंथियों को इन्वाल्व करना मजबूरी हो जाती है ,वामपंथियों का तो सिधांत ही
    है की लाभ जहाँ से भी मिले ले लो ,लाभ दो केवल लाल कार्ड वालों को .वरना
    मंगलेश डबराल की कविताएँ स्वयम उन्हें ही याद नही होगी फिर राकेश सिन्हा को
    क्या मजबूरी थी की डबराल को बुलाएँ
    .हिप्पोक्रेसी में दोनों ही एक दुसरे से बढकर हैं

  13. shri dabraal ji ne jo kiya usse se kise shikaayat hai? baat us
    neeti or niyat ki hai ki yadi pratikranti or puratanpanthi dakiyanusi
    manch par kisi kyaat or sthapit janwadi saahitykaar ko sharm nahin
    aayee to veshak ve ‘pragatisheel’ nahin ho sakte.om thanvi kuchh naya
    lekar nahin aaye.gali ke naye naye nekardhari bhi yhi kuchh bakbaas
    karte huye dakshinpanth ka jhand buland karne ke liye bahttar inch ka
    seena liye biyavaan men bhatak rahe hain.

  14. तथाकथित स्वतंत्रता से पहले जन्म होने के कारण ऐतिहासिक अर्थों में भारत के नए स्वरूप को पनपते देखा है| बचपन खेल खेल में ही बीत गया लेकिन प्रौढता के उत्तरदायित्व ने अज्ञात भविष्य से भयभीत परिवार सहित मुझे भारत छोड़ने को विवश कर दिया था| यदि मेरे बच्चे हमारे यहाँ विदेश में आ बसने की प्रतिवार्षिक तिथि पर मुझे धन्यवाद देना नहीं भूलते हैं तो मैं भी पृथवी के उस पुण्य भारतीय उपमहाद्वीप पर जन्मा, उस पावन भारत को नमन करना नहीं भूला हूँ| अपनी व्यक्तिगत भावना में और न बहते जब मैं भारतीय राजनैतिक क्षितिज की ओर देखता हूँ तो चारों ओर मंडराते काले बादल दृष्टिगोचर होते हैं| ऐसी स्थिति में उन काले बादलों से ढके भारत में निरंतर वैचारिक छुआछूत और अन्य निष्क्रिय विवाद के मध्य जवाहरलाल नहरू के समाजवाद से सीधे वैश्विक उपभोक्तावाद में अकस्मात छलांग लगाते भारतीय आज ऐसे आर्थिक व सामाजिक बवंडर में फंस कर रह गये है जो मेरे लिए चिरकाल तक चिंता और विस्मय का कारण बना रहेगा|

    आज प्रात: प्रवक्ता.कॉम से मिली ईमेल में भारत नीति प्रतिष्ठान बैनर तले आयोजित “समांतर सिनेमा का सामाजिक प्रभाव” विषय पर संगोष्ठी की अध्यक्षता करते वामपंथी कवि-पत्रकार मंगलेश डबराल के अनुचित व्यवहार को लेकर वामपंथियों द्वारा प्रस्तुत वैचारिक छुआछूत पर मेरे विचार लिख भेजने का निमंत्रण मिला है|

    यद्यपि असंख्य साधारण लोगों की भांति भारतीय राजनीति द्वारा मेरा जीवन प्रतिकूल रूप से प्रभावित रहा है, तथापि मेरी इस में कोई विशेष रूचि नहीं है| इस पर भी वामपंथी विचारधारा को समझने के लिए नव भारत के प्रारंभिक इतिहास को भली भांति जानना बहुत आवश्यक है| देश के दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन के तुरंत पश्चात नव भारत में यदि नेता चाहते तो एकमात्र हिंदू राष्ट्र स्थापित कर राष्ट्रवादी नीतियों द्वारा देश को उन्नति की ओर ले जाते| लेकिन रक्त और रंग में भारतीय मूल के होते अंग्रेजी सोच, नैतिकता, और बुद्धि से फिरंगियों के प्रतिनिधी कार्यवाहक के रूप में स्वतंत्रता के प्रारंभ से ही बिना किसी विरोध के १८८५-में-जन्मी-कांग्रेस द्वारा भारतीय स्वशासन स्थापित कर कुछ चुनिन्दा नेताओं ने भारतीयों व देश से ऐसे ऐसे राजनीतिक दाव पेंच खेले हैं कि वे आज भी स्वेच्छापूर्ण गुलामी में लुटे जा रहे है| प्रारंभ से अंधों में काना राजा बने अन्तर्निहित दुर्भावनापूर्ण उद्देश्यों से आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ, कांग्रेस सोशियलिस्ट पार्टी, व किसान सभा से संबंधित नेताओं ने न तो देश में सामान्य राष्ट्रभाषा पर कोई ठोस निर्णय लिया और न ही समस्त भारत को किसी और युक्ति से संगठित करने का ही कोई प्रयास किया| परिणाम स्वरूप देश भर में बहुसंख्यक हिंदू धर्म के अतिरिक्त भ्रष्टता और अनैतिकता ही निर्लज्जता से देश को बांधे हुए है| वामंपथ और न जाने कितने वाद और विवाद इस षड्यंत्र की ही देन हैं| ऐसे वातावरण में इन पंथों, वादों और विवादों पर क्योकर कोई परिचर्चा करे? यहाँ अनिल गुप्ता की टिप्पणी से लिए शब्दों में मैं कहूंगा कि आज आवश्यकता इस बात की है कि सभी राष्ट्रवादी, वो किसी भी विचारधारा के हों लेकिन देशहित के विरुद्ध कार्य न करते हों, को एकजुट होकर देश को मजबूत करने का प्रयास करना होगा|

  15. हम तो शास्त्र का आधार लेकर चलें है और ये बात जानते है की प्रत्येक मानव के अंदर सत्त रज व तम गुण विध्यमान है उन गुणो के अधीन रह कर ही वो कर्म करता है प्रश्न कभी भी हमारे शास्त्र के गलत होने का नही था उनकी गलत व्याख्या करने वालो का था व उनको पूरी तरीके से खारिज कर देने वाले इन कम्युनिस्थों से क्या संवाद करें ???जो केवल किसी संघ कार्यक्र्त्ता को इस लिए मार देते है की वो कभी कम्यूनिज़्म से प्रभावित था नहीं हिंसक दस्युओ से संवाद नहीं हाँ कोई कम्युनिस्ठ बंधु वास्तव में तर्क तथ्य शास्त्र विवेक विज्ञान दर्शन आदि को लेकर बहुत ही सकारात्म तरीके से बात कर अपनी इस परम पवित्र मातृभूमि की विकासिलता मे अपना व अपनी विचारधारा का सकारात्मक योगदान देना चाहे तो हमारा द्वारा खुला होना चाहिए प्रश्न केवल अपने देश की उन्नतती का हो न की अपनी कचरा विचार धारा को हम पर थोपने का ,हम तो अपने बढ़ो बूढ़ों को भी स्वीकार नहीं करते है अगर वो कभी भी उन कम्युनिस्थों की भाषा बोले {मेरे ताऊ जी पहले बहुत ज्यादा कम्यूनिज़्म से प्रभावित थे वो राम को मिथक कहते थे पर समय के साथ उनकी सोच बदली व सभी तीर्थों का वो सपत्नीक भ्रमण कर आए है अपने बचपन मे मेरे व मेरे ताऊ जी के बीच इस बात को लेकर बहुत तर्क वितर्क होता था}संवाद का उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए …………………………….

  16. प्रिय भाई
    इस विषय पर वैचारिक परिचर्चा आरंभ कर आपने अच्छा किया है, जनसत्ता ने इस विषय को बंद कर दिया है , मैंने उन्हें पत्र लिखा था , जिसे उन्होंने सम्पादित कर आज के अखबार में प्रकाशित किया है , पूरा पत्र आपके प्रकाशनार्थ प्रेषित कर रहा हूँ

    ओम थानवी के नाम खुला पत्र
    प्रिय भाई
    यह पत्र ‘ताकि कुछ गर्द हट’ के संदर्भ में लिख रहा हूं। आप तो जानते ही हो कि साहित्य में धूल भरी आंधियों का मौसम सदा से रहा है, आप कितना भी बुहार लें गर्द हटकर फिर अपने अस्तित्व के साथ उपस्थित हो जाती है। कह सकते हैं कि गर्द का स्थानांतरण होता है।
    मैं इस बहस को लगातार फॉलो कर रहा हूं, ट्विटर या फेसबुकीय स्टाईल में नहीं अपितु एक भुक्तभोगी के रूप में । जानता हूं मेरे जैसे अनेक भुक्तभोगी हैं। ;कृपया भुक्त को भुक्त ही पढ़े मुक्त नहींद्ध आपने जो मुद्दे उठाए हैं उनसे हर स्वतंत्र लेखक साहित्यकार का सामना होता रहा है। अपने-अपने गढ़ों और मठों में सुरक्षितों पर जब आक्रमण होता है वे तभी अपने हथियारों से लैस लेकर मैदान में कूदते हैं। अन्यथा अपने-अपने कवचयुक्त गढ़ों में सीमित देवताओं की तरह अपनी श्रेष्ठ दुनिया रचते रहते हैं। जैसे संत और सीकरी का संबंध शाश्वत है वैसे ही साहित्यकार का साहित्य की दुनिया में, मठों और गढ़ों से पुराना संबंध है। जो संत सत्ता के गलियारों में चहलकदमी, आवाजाही एवं चूहा दौड़ के आदि होते हैं वे सीकरी किसी की हो अपना मठ स्थापित कर ही लेते हैं। यह स्थापन अपना दल हो तो तत्काल होती है और दूसरे का दल हो तो कुछ समय लगता है। कुछ लोग विरोध इसलिए करते हैं कि उनको उनके ‘फल’ से वंचित न कर दिया जाए। ऐसे एक अग्रज ने तो मुझे मेरे एक साहित्यिक मित्र के बारे में यह कहकर सावधान किया कि वह हंसोड़ हैं अतः तुम जैसे गंभीर के लिए अछूत। पर वही अछूत जब सत्ता के गलियारे में प्रतिष्ठित पढ़ पा गया तो मेरे अग्रज संत चारण भाट बन गए। आप तो जानते ही हैं कि समाज में से ‘अछूत’ विचारधारा का विरोध करने वाले वैचारिक आदान-प्रदान के मामले में कितने संकीर्ण होते हैं।
    सारा मसला उदारवाद एवं संकीर्णता के बीच बहस का है। पर इसमें बहुत बड़ी विसंगति है। हम दूसरों से तो अपने प्रति उदार होने की अपेक्षा करते हैं, परंतु स्वयं अपने दरवाजे बंद रखते हैं। हम संकीर्णतावाद के विरुद्ध उदारवादी हैं और उदारवाद के विरुद्ध संकीर्ण।
    वस्तुतः हम आधे कबीर हैं हम यह तो कह सकते हैं-
    जो तूं ब्राह्मण ब्राह्मणी का जाया, और द्वार ते क्यों नहीं आया
    अथवा
    पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार।
    पर हम कबीर की तरह यह नहीं कह सकते हैं –
    कांकर पाथर जोड़ि के मस्जिद लई बनाए
    ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, बहरा हुआ खुदाय।
    हम कबीर की तरह ये कहने का साहस भी नहीं कर पाते हैं- बूढ़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल।’ हमारा ‘कमाल’ तो यह है कि हम अपने ‘कमाल’ को पढ़ने नौकरी करने उसके भौतिक विकास के लिए अमेरिका भेजते हैं। पर आपने हमारा साहस नहीं देखा। हमारा साहस कबीर से भी बढ़कर है। हम ‘कमाल’ को अमेरिका भेजते हैं पर उसी अमेरिका को भरपूर गालियां भी दे लेते हैं।
    आपने लिखा है- जो ही, लोकतंत्र में आस्था रखना संपादकीय दायित्व निर्वाह की पहली शर्त है। इसलिए समर्थन से ज्यादा विरोध को जगह देना मुझे अधिक जरूरी जान पड़ता है।’’ आपको लगता ही है कि आपकी लोकतंत्र में आस्था है, परंतु आपको तो लोकतंत्र का सही ‘प्रयोग’ करना ही नहीं आता, आप डरपोक हैं। यहां तो लोकतंत्र में अपने विरोधियों को स्थान देना तो दूर रास्ते से ही हटा देने का प्रावधान है। आप किस उदारता के चक्कर में पड़ गए हैं श्रीमान। आप तो स्थान दे रहे हैं, उनका बस चला तो आप रास्ते से हटा दिए जाएंगे।
    आप आवाजाही की बात कर रहे हैं पर ाजानते हैं कि इस मार्ग में कुछ लोगों को ही यह अधिकार है, सुविधा है। वे जब चाहें अपनी सुविधा के लिए आवाजाही कर सकते हैं। ऐसे में अपना खून खून और दूसरे का खून पानी जैसा होता है।
    आपने लिखा है – वैचारिक प्रतिबद्धता का हाल तो यह है कि बड़े लेखक के मरने पर शोकसभा तक मिलकर नहीं कर पाते हैं। श्रीलाल शुक्ल का उदाहरण हाल का है।’’ यहां प्रतिबद्ध और गैर प्रतिबद्ध का विभाजन नहीं है, यहां तो प्रतिबद्ध और अतिप्रतिबद्ध के बीच भी विभाजन है। संकीर्णता की यह सीमा रेखा अनेक वर्गों में खिंची हुई है। मुझे याद है कि श्रीलाल शुक्ल की एक शोकसभा में डॉ. नामवर सिंह ने साहित्य अकादमी में कहा था- कोई लेखक समर्थन से, यशोगान से बड़ा नहीं होता, विरोध से बड़ा होता है। श्रीलाल जी की इस श्रद्धांजलि सभा का एक यह भी संदेश है कि वैचारिक संकीर्णताओं से मुक्त हों, जैसे श्रीलाल थें …श्रीलाल जी प्रलेस, जलेस आदि के सदस्य तो नहीं थे बावजूद इसके उनके जो विचार थे, उनकी रचनाएं बोलती हैं। सदस्यता महत्वपूर्ण नहीं है। वामपंथी लेखन लगता हैं सुधर रहा है। . . .ये घटना महत्वपूर्ण है, हम संकीर्णताओं से उठकर ऐसे लोगों से भी अपना मानसिक नाता जोड़ रहे हैं।’’ श्रीलाल के संदर्भ मंे तो हम संकीर्णताओं से मुक्त हो गए पर कितने हिंदी साहित्य के लाल हैं जिन्हें ये सब ‘नसीब’ हो पाता है?
    मेरा दृष्टिकोण निरंतर अपने मन से काम करने का रहा है। किसी पार्टी या व्यक्ति का कार्यकर्ता बनकर नहीं। मैं अपना काम कर रहा हूं, एक खुलेमन के साथ, वो काम किसी को अच्छा लगता है , तो मैं उसका स्वागत करता हूं। जो नहीं करता है उससे दुश्मनी नहीं तय करता कयोंकि मुझे विश्वास है कि उसे मेरा कोई और काम अच्छा लगेगा। मैं दूसरे का मार्ग देखकर अपना रास्ता छोड़ उसका मार्ग तय करने में विश्वास नहीं करता हूं। मैं यह भी नहीं मानता कि मात्र मेरा ही मार्ग सही है, मैं दूसरे के मार्ग में भी चलकर उसे परखना चाहता हूं। संत नहीं हूं फिर भी सार ग्रहण करने का प्रयत्न करता हूं।
    आपने इस बहस के माध्यम से स्वतंत्र चेता साहित्यकारों को एक संबल दिया है। अब ये संबल कितनों की सहायता कर पाता है, वे जाने। मेरी तो इस खुली सोच पर आपको बधाई। जहां एक ओर अखबारों के पन्नों पर साहित्य दम तोड़ रहा है, वहां आप साहित्यिक बहसें आयोजित कर रहे हैं, कैसे अव्यवहारिक संपादक हैं।

    0 प्रेम जनमेजय
    73 साक्षर अपार्टमेंट्स, ए-3 पश्चिम विहार नई दिल्ली
    ई मेल-premjanmejai@gmail.com

  17. आपको धर्म से क्यों विरोध हो चला -पाखंड अलग चीज है और धर्म अलग व्यक्तियों के चेहरे से विचारों की पहचान करना नामुमकिन है
    जो साहित्य बांटने का कम करे वह साहित्य है क्या? साहित्य का स सत्विक्ताता का परिचायक है जिसमे नफरत का स्थान कहाँ है?

  18. ॥सर्वेशां अविरोधेन॥
    प्रिय वाम वादी, देश भक्त बन्धुओं
    (आपसे हमारा कोई द्वेष नहीं है)
    वकालत बन्द करें। पर
    ==>वाणी स्वातंत्र्य,==> विचार स्वातन्त्र्य, ==>व्यक्ति स्वातन्त्र्य प्रमाणित करे।

    दया वर्मा==>
    The contradiction between organization and individual freedom has been addressed in bourgeois democracy by devising various provisions.
    ==> Lenin’s organizational method of “Democratic centralism”, vulgarized to its extreme by Stalin leaves little room for individual freedom; yet disciplinary measures under this method can vary from simple censorship to expulsion and execution (when in power).
    The expulsion of veteran communist leader Somnath Chatterjee for abiding by his conscience and parliamentary duty against the dictates of CPM leadership is an extreme and uncalled for measure. – Ed.
    There is an inherent contradiction between adherence to the dictates of an organization and following individual freedom of conscience. It cannot be
    otherwise.
    निम्न कर के दिखाएं, हम मान लेंगे।
    ==> अपवाद के लिए एक बार अपनी पार्टी लाइन से अलग मत, लिख के व्यक्त करें।
    तो, या तो आप (१) पार्टी के सच्चे मेम्बर नहीं है। (२) या फिर आप सोमनाथ जी चटर्जी, जैसे बाहर का रास्ता पकडने के लिए कटिबद्ध है।
    (३) एक नाटक ही सही, कर के दिखाइए।
    ==>वाणी स्वातंत्र्य,==> विचार स्वातन्त्र्य, ==>व्यक्ति स्वातन्त्र्य?

  19. वैचारिक छूआछूत के समर्थकों का वैचारिक प्रतिरोध अति आवश्यक है. हमें इसके लिए सूचना का अधिकार का सहारा लेना चाहिए.

  20. संघ के शिविरों या अन्य सामाजिक कार्यकर्मों में विभिन्न विचारधारा के ध्वजवाहक विशेष अतिथि के रूप में सम्मिलित होते रहे हैं. यही नहीं इतिहास, शिक्षा जैसे अन्य अनेकों सामाजिक सरोकारों वाले विषयों पर बुलाई गई संगोष्ठियों आदि में भी इस विषयों के प्रबुद्ध जन जो वामपंथी विचारधारा से जुड़े हुए हैं, भी इन संगोष्ठियों में सम्मिलित हो विचारों का आदान-प्रदान करते हैं. इसी प्रकार वामपंथी संगठन जो समाज में खुली चर्चा चाहते हैं, दक्षिण व मध्य मार्गियों को भी बुलाते है, क्यूंकि मैं स्वयं कई बार ऐसी संगोष्ठियों व कार्यक्रमों में आमंत्रित किया गया हूँ. चर्चाओं से ही हमें एक दुसरे को समझने का अवसर मिलता है.

    श्री मंगलेश डबराल की अध्यक्ष के रूप में संगोष्ठी में उपस्थिति स्वागत योग्य है. परन्तु आश्चर्य तो यह सुन कर हो रहा है की बाद में डबराल का अपने सहयोगी वामपंथियों के दबाव में आकर अपनी उपस्थिति को त्रुटी बताया. मुझे तो कुछ दिन पूर्व एक मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति के पद पर नियुक्त हुए मुस्लिम विद्वान का वृतांत स्मरण हो आया है जिन्होंने गुजरात के नरेन्द्र मोदी की किसी विषय पर तारीफ क्या कर दी, तमाम कट्टरपंथी उनके विरुद्ध हो गए और उनका त्यागपत्र दिलवाकर ही कट्टरपंथियों को सकून मिला. श्री डबराल ने दबाव में आकर अपनी उपस्थिति को चूक बताकर जो बड़ी चूक की है उससे यही सिद्ध होता है की वामपंथी संघ की विचारधारा से कितने भयभीत है.

  21. आधुनिक दुनिया में तो अब राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक और मानवता से उत प्रेरित विचारधारा सिर्फ और सिर्फ’ ‘साम्यवाद’ वामपंथ’ अर्थात’मार्क्सवाद-लेनिनवाद-सर्वहारा-अंतर्राष्ट्रीयतावाद’ ही शेष है.सामंतवाद का खात्मा हो चूका है पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की दुर्दशा प्रत्यक्ष देखी जा रही है.पूंजीवादी प्रजातंत्र की भारत में ये हालत है कि जिसकी पूंछ उठाओ वही मादा नजर आएगा.जो लोग मार्क्सवाद या साम्यवाद का ककहरा जाने बिना ही उस पर पिल पड़े हैं वे यदि मजदूरों -किसानो और समाज कि शोषित कतारों से हों तो वेशक उनकी आलोचना स्वीकार्य है किन्तु जो पूंजीपतियों अय्याशों के गुनाहों का परिणाम हैं ऐंसे बुर्जुआओं को मार्क्सवादी दर्शन कि आलोचना करने के बजाय अपनी वैकल्पिक विचारधारा और’दर्शन’ को वैज्ञानिक चिंतन कि’शान’ पर चढ़ाकर दिखाना चाहिए.दूसरों कि रेखा मिटाकर अपनी रेखा बढ़ी दिखाना निहायत घटिया मानसिकता और ‘समाज द्रोह’ है.

    • पूंजीवाद और साम्यवाद एक ही सिक्के के दो पोःलू हैं
      सोवियत संघ का साम्यवाद ख़त्म हुआ तो वहां पूजीवाद ही आया

  22. सैद्धान्तिक जड़ता से ऊपर उठ कर अन्य मतों को साथ विचार-विमर्श कर व्यावहारिक नीति द्वारा ही किसी समस्या का समाधान हो सकता है .एक बात मैं नहीं समझ पाती कि वामपंथी विचारधारा के लोग राष्ट्रीयता, इतिहास ,संस्कृति .परंपरा और परिवेश सब का बहिष्कार कर हठवादी चरित्र लिये किसी से संवाद करने से क्यों बचते हैं .
    वामपंथ जहाँ प्रकट हुआ वहीं से उखड़ गया और ये उस मरते हुये पौधे को यहाँ जमाना चाहते हैं .
    एक उक्ति याद आ रही है .-‘जहँ-जहँ चरण पड़ें वामिन के तहँ-तहँ बंटाढार ‘.

    • राष्ट्रीयता, इतिहास ,संस्कृति .परंपरा और परिवेश के बारे में वामपंथियों का नजरिया इतना भिन्न है की उन्हें साथ बैठने में दिक्कत होती है वैसे आप सोये को जगा सकती हैं आंख मुंड कर सोने का बहाने करने वालों को नहीं

  23. दुर्भाग्य से वामपंथ में असुरक्षा भाव और कट्ठरता इस्लाम और ईसायत से भी ज्यादा है. वह एक बंद कमरे में कैद विचारधारा बन गयी है, जो लाख सीलन और बदबू के बावजूद खुली हवा से डरती है. खुद को प्रगतिवादी और जनवादी माननेवाला यह तबका अब सिर्फ हिन्दू विरोधी, राष्ट्र विरोधी बन कर रह गया है. हंसी आती है जब ये लोग खुद को प्रगतिशील या जनवादी कहते हैं! दो. राकेश मिश्रा ने विरोधी विचारक को आमंत्रित करके वैचारिक स्वतंत्रता की महान भारतीय परम्परा का निर्वाह किया लेकिन वामपंथियों ने क्या प्रतिक्रया की?? यही बात वामपंथ के दोगलेपन, वैचारिक दिवालियापन, और असहनशील तालिबानी सोच का खुलासा करती है.

    • वामपंथ इस्लाम और ईसायत को एक तराजू पर तौलने आवश्यकता नहीं है
      इस्लाम और ईसाई आपस मेझाग्रने के लिए काफी हैं – दुनिया कलो कब्रगाह में बदलने के लिए – जगह बचे तबतो वामपंथी लाशें मोसयूलियम से निकली जा सकेगी – संभावना दुर्गन्ध फैलनी की अधिक है

  24. संघ का जो स्वरूप सबके सामने आया है उसके अनुसार उनके कार्यक्रमों में जाने से पूर्व सोचना जरूरी है क्योंकि वहाँ स्वस्थ लोकतांत्रिक बहस नहीं होती अपितु लोकप्रिय लेखकों की बात का नहीं अपितु उनकी उपस्थिति का प्रचार करके अपने दाग धोने की कोशिश की जाती है, जैसे भाजपा फिल्म स्टारों क्रिकेट खिलाड़ियों के सहारे अपना समर्थन दिखाती है। किंतु मंगलेश से सफाई माँगना या सलाह देना सार्वजनिक मुद्दा नहीं बनता, यह घर के भीतर की बात होनी चाहिए। दूसरी ओर किसी स्वतंत्र मंच पर किसी के साथ भी मंच शेयर किया जा सकता है ।

    • आपकी यह सोच बिलकुल गलत है और ऐसा कहकर आप भारत के बहुत बड़े तबके से अपने को अलग कलर रहे है जैसा कमुनिस्तों ने किया

  25. जिस शब्द का प्रयोग आप करेंगे, वह शब्द ही आपको बंदी बना लेता है।
    बहस, वाद-विवाद, संवाद, विचार विनिमय, वैचारिक आदान-प्रदान, समस्या सुलझाव, वकालत इत्यादि।
    हमारे पास परम्परा प्राप्त एक अचूक शस्त्र है।
    ध्यानावस्था–जिसमें व्यक्ति पांचो इंद्रियों के माया जाल से उपर उठ जाता है। फिर मन और बुद्धि से भी परे उठता है……. तो सारा दृश्य स्पष्ट प्रकाशित होने लगता है। इसी अवस्था से फिर जो उत्तर आता है, वह सर्व हितकारी होने की संभावना बढ जाती है। ध्यानावस्था में व्यक्ति, व्यक्ति मिटकर केवल दृष्टा रह जाता है। इसी कारण स्पष्ट सत्य ही उसे दिखाई देता है।
    हमारे पूरखों ने जब “एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति—कहा, ऐसी उक्ति ऐसी ही ध्यानावस्था की अनुपम देन है। आज सहस्रो वर्षों के बाद भी अन्य विचारधाराएं ऐसी उक्ति देना तो रहा, इस उक्ति को समझ भी नहीं पायी है।
    —उद्देश्य हो सत्य ढूंढने का— अर्जुन को जैसे मत्स्य की आँख ही दिखाई देती थी—उतनी एकाग्रता से।
    आप न लाल है, न भगवा, न हिन्दु है, न मुसलमान, या इसाई, —आपकी राष्ट्रीयता केवल भारतीय है–यदि आपके पास पूरी घटना सामग्री है (बिके हुए मिडीया वाली नहीं) –तो उचित उत्तर आने की संभावना बढ जाती है।
    इसीलिए पूरखोंने षट दर्शन (६ दिशाओं से देखना) सीखाया। एक घन को (क्यूब को) छः दिशाएं होती है। सभी दृष्टियों से देखो–कुछ सच्चाई हाथ लगे।
    “फिर औरों की भी सहानुभूति पूर्वक सुनो–और सही लगे तो अपने विचार बदलो”
    दीनदयाल उपाध्याय़ जी, यही मार्ग सुझाते हैं।
    अनुभवसे कहूं?
    ===> समझदार अनुभवी वरिष्ठ संघके अधिकारियों में मैं ने यह गुण बहुत अनुभव किया है।<===

    • आपका यह कथन गलत है और समझौतावादी लगता है- “आप न लाल है, न भगवा, न हिन्दु है, न मुसलमान, या इसाई, —आपकी राष्ट्रीयता केवल भारतीय है,” संघ के सात्विक चिंतन के अनुसार हिंदुत्र्व ही राष्ट्रित्व है वैसे इसकी व्याख्या अलग ढंगों से की जा सकती है पर हिन्दू शब्द की व्यापकता को खिचडी की तरह मत दिखाई जानी चाहिए वैसे इस पर संघ का एकाधिकार है भे एनाही

      • डॉ. धनाकर जी ठाकुर।
        आप की बात सही है।
        मैं ध्यानवस्था के लक्षणों को गिनाते गिनाते गलती से हिन्दु शब्द का प्रयोग संकुचित अर्थ में कर ने में बह गया।
        अच्छा हुआ, आपने स्मरण करवा दिया।
        क्षमस्व।एवं धन्यवाद।
        आप टिप्पणी देते रहे। बहुत समय से आपकी टिप्पणी भी नहीं देखी थी। आज देख कर हर्ष हुआ।

  26. डबराल साहब को ऐसा नहीं कहने चाहिए था की उनसे चूक हो गयी है
    उन्हें तो वामपंथियों को यह बताना चाहिए था की कहाँ और कैसे चूक हुई अह उनका निजी मामला था अध्यक्ष्यता करने का . इसमे अगर कोइ आलोचना करता है तो उसे करने दें

    • प्रश्न यह है की श्री रकेश्ने उन्हें अध्यक्षता के लिए बुलाया ही क्यों? १९८५ में थिरुवंथापौरम के एक ऐसे ही कार्यक्रम में जानबूझकर बुला लिए गए मार्क्सवादी मुख्य अतिथि की कुभाशन से सभा को बचने का सुअवसर एक डॉक्टर ने मुझे काफी दूरी से आया जन बोलने का दिया तो मैं उनके ट्रकों को काट ABVP के सिल कार्यक्रम को बचा पाया जिससे प परमेश्वरन काफी खुश हुए थे.

  27. ये चूक नहीं एक ज्वालान्य मुद्दा है … सिर्फ उपस्थिति को सहमति कैसे मान लिया जाए … ये दुर्भाग्यपूर्ण है की अपने देश में आजकल जो माहोल बनता जा रहा है वो इस प्रकार हो गया है की अगर आप मेरी तरफ नहीं है तो विरोधी की तरफ हैं जो की चिंतनीय है …

    • भाई सबका एक तरफ होना भी असम्भव है और अस्वाभाविक

  28. आज आवश्यकता इस बात है की सभी राष्ट्रवादी, वो किसी भी विचारधारा के हों लेकिन देशहित के विरुद्ध कार्य न करते हों, को एकजुट होकर देश को मजबूत करने का प्रयास लर्न चाहिए.इस कार्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पुर्व से ही जुटा है.लगभग ४० वर्ष पूर्व का एक प्रसंग याद है. संघ के बहुत वरिष्ट प्रचारक श्री मोरोपंत पिंगले जी देहरादून आये थे और उनकी चाय का कार्यक्रम विद्यार्थी परिषद् के जिला अध्यक्ष डॉ.अग्रवाल के घर पर था. उनके घर के बगल में ही स्वर्गीय महावीर त्यागी जी का आवास था जो कांग्रेस के बड़े नेता थे और नेहरु जी की सर्कार में भी मंत्री थे. पिंगले जी ने उनके प्रति बहुत ही आदरयुक्त शब्द प्रयोग किये और मिलने की इक्षा जताई.त्यागी जी के बाहर होने के कारन भेंट नहीं हो पाई.ऐसे और भी अनेकों उदाहरन हैं.वास्तव में संघ परिवार के लोगों द्वारा कभी भी वैचारिक छुआछूत में विश्वास नहीं किया गया और न ही इस प्रकार का आचरण किया गया. यदि छे वर्षों के एन दी ऐ के शाशन के दौरान अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने किमंसिकता रही होती तो सबसे पहले धोके से भारत की नागरिकता लेने के मामले में सोनिया गाँधी की भारतीय नागरिकता केवल इसी आधार पर रद्द की जा सकती थी की उन्होंने इटली की नागरिकता छोड़ने का कोई ठोस प्रमाण नहीं दिया है. ऐसे ही मामले में पाकिस्तान की सर्वोच्च न्यायलय ने कल ही (मई ३०,२०१२) वहां के गृह मंत्री रहमान मालिक को नोटिस जरी किया है. लेकिन भारत में न्यायलय भी इस विषय पर कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं. ये विचार करने का प्रश्न है की क्या पाकिस्तान का सर्वोच्च न्यायलय भारत के सर्वोच्च न्यायलय की तुलना में अधिक सक्रीय है?लेकिन दुसरे विचारों के प्रति अतिशय उदारता भी नुकसानदायक होती है.

    • राष्ट्र की परिभाषा प् रही झंझट हो तो आप सबों को एक साथ कैसे रख सकते हैं- वैसे भूले भटकों से मिलते रहने का मोरोपंत का तरीका कोई नया नहीं था यह हमारी परमपरा रही है

  29. वैचारिक जड़ता लाती ही कुंठा
    राजस्थान के दैनिक समाचार पत्र राजस्थान पत्रिका में एडिटोरियल पेज के हैडर पर वाल्तेयर की उक्ति आती है कि हो सकता है में आपके विचारों से सहमत न हो पाऊं फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की रक्षा करूंगा। असल में यह उक्ति स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी को यह प्रतिबिंबत करती है। यह हमारे लिए गौरव की बात है कि चाहे देश में राजतंत्र रहे, लेकिन तब भी स्वस्थ लोकतंत्र की तरह शास्त्रार्थ किए जाते थे और उसी से निष्कर्ष निकालने की कोशिश की जाती थी। जाहिर तौर पर शास्त्रार्थ के मंच पर भिन्न-भिन्न प्रकार की वैचारिक पृष्ठभूमि के महानुभाव एकत्रित होते थे और वे अपने बुद्धि कौशल व ज्ञान के आधार पर अपनी बात को सही ठहराने की कोशिश करते थे, मगर हर पक्ष दूसरे पक्ष का पूरा सम्मान करता था। दूसरी ओर आज जब कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहलाते हैं तो वामंपथियों द्वारा जो वैचारिक छुआछूत किया जा रहा है, वह दुर्भाग्यपूर्ण ही है। उसकी एक मात्र वजह ये है कि मूल रूप से उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि भारतीय संस्कृति से भिन्न है, इसी कारण उनमें सहिष्णुता का अभाव है।
    वस्तुत: वैचारिक रूप से संपन्न समाज वही है, जिसके पास हर दृष्टि के विचार हैं और उनका तुलनात्मक अध्यय कर जो बेहतर है, उसे अपनाता है। और यह भी पक्की बात है कि मतैक्य उन्हीं में होगा, जो बुद्धिजीवी होंगे, जाहिल और जड़ तो सदैव एक रूप ही होते हैं। जहां विचारों की विभिन्नता है, वहीं ताजगी है, वहीं मंथन है, जहां एक रसता है, वहीं कुंठा है, गंदगी है, जेसे कि ठहरा हुआ पानी जल्द ही गंदा हो जाता है, जबकि निरंतर बहने वाला नदी का पानी सदैव निर्मल होता है। हमारी कोशिश यही रहनी चाहिए कि हम हर नए विचार का स्वागत करें, चाहे उससे सहमत न हों। इसके अतिरिक्त वैचारिक मतभेद की स्थिति में कभी भी शिष्टता का त्याग नहीं करना चाहिए।
    -तेजवानी गिरधर
    7742067000
    tejwanig@gmail.com

    • लोकतंत्र को सीखने के लिए इटली जाने की जरुरत नहीं है- रजा जंक के बाद सबसे पहल्रे मिथिला में लोकतंत्र आया था और हमारे यहाँ एकं सता विप्रः बहुना वदन्ति का घोष न जाने कबसे है जब यूरोप में लोग नागे रहते होंगे,
      हर्नाये विचार ग्राह्य नहीं होते न ही सभी पुराने विचार त्याज्य और पुरातन से नवीन का संयोग ही संतान प्रकृति को बनाये रखता है

  30. aisi chook pahle bhi hoti rahi hai–uday prakash se manglesh tak—-kya wastav mein ye chook hai..?ya drishtikon badalta zaaviya..?..ek samay aata hai jab nirmal varma se shailesh matiyani tak ke vicharon mein chupke se dhram aa jaata hai ..main ise kewal chook nahi maan sakta …mujhe lagta hai , hindi janwaad ke jungle mein ab bikhraao ki isthiti paida ho rahi hai .samay samay par iska aabhaas bhi karaya jata raha hai——saahitya ko le kar aisi chook nindaniye hai—MUSHARRAF ALAM ZAUQUI

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