रक्स करतीं थालियां

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neta डा. राज सक्सेना
पी सुरा को मस्त होकर, मस्त फिरतीं प्यालियां |
बैंगनों के घर में गिंरवीं,  रक्स  करतीं थालियां |
कौरवों की भीड़, आंखें बन्द कर चलती  मिली,
नग्नतम् सड़कों पे खुलकर, चल रहीं पांचालियां |
एक अच्छी व्यंग्य कविता,को समझ पाए न लोग,
एक हज़ल पर देर तक, बजती रही थीं तालियां |
जो नदी निर्मल, सजग हो बह रही थी गांव में,
उसको अपना सा बनाने, उसमें गिरतीं नालियां |
नागफनियां शौहरों को, बीबियां  आतीं   नजर,
इन दिनों सपनों में उनके, बस रहीं  शेफालियां |
दिन दहाड़े चौक पर, अबला ने जोड़े हाथ  पर,
लुट गई अस्मत, बकाया रह गईं  सिसकारियां |
एक जीजा को अकेले, अपने घर में घेर  कर,
गुण्डई पर आमदा हैं,’राज’ घर की  सालियां |

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