दूरियों की दूरी

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विजय निकोर

मंज़िल की ओर बढ़ने से सदैव

दूरियों की दूरी …

कम नहीं होती।

 

बात जब कमज़ोर कुम्हलाय रिश्तों की हो तो

किसी “एक” के पास आने से,

नम्रता से, मित्रता का हाथ बढ़ाने से,

या फिर भीतर ही भीतर चुप-चाप

अश्रुओं से दामन भिगो लेने से

रिश्ते भीग नहीं जाते,

उनमें पड़ी चुन्नटें भी ऐसे

कभी कम नहीं होतीं।

 

रिश्तों में रस न रहा जब शेष हो

तो पतझड़ के पेड़ों की सूखी टहनियों की तरह

टूट-टूट जाते हैं वह,

ज़मीन पर गिरे सूखे पत्तों की तरह

वह पैरों के तले कुचले भी जाते हैं,

और इस पर भी हम मुँह में उँगली दबाए

वास्तविकता से अनभिज्ञ, बैठे सोचते हैं …

हमने तो मित्रता का हाथ बढ़ाया था,

टहनी-से टूटते अबोध विश्वास को

संबल ही दिया था … फिर

यह क्या हुआ?

 

संभ्रमित, भूलते हैं हम कि ऐसे में

दिलों की दूरियों को मिटाने के लिए,

विश्वास के पुन: पनपने के लिए,

“दोनों” के ख़्यालों की झंकार को,

“दोनों” के अनुबंध की अनुगूँज को,

एक ही “फ़्रिकुएन्सी” पर होना अनिवार्य है,

एक नहीं, पास दोनों आएँ तब कोई माने है।

दामन में कुछ पुराने कुछ और नए दर्द छिपाए

किंकर्तव्यविमूढ़

प्रत्याशा से ठगे-ठगे, हम बैठे सोचते हैं …

यह संसार इतना निष्ठुर क्यूँ है?

तनिक भी झूठ-दिखावे को दूर रखे,

केवल सच्चाईयों से, इमानदारी से

इन दूरियों की दूरी

कम क्यूँ नहीं होती? … ??

 distance

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