दिव्य आभा दिलों में ढाली है !

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unnamedदिव्य आभा दिलों में ढाली है;
प्रभा लेकर दिवाली आई है !
ख़ुशाली हर जगह पै छायी है;
प्रमा में आत्म हर सुहायी है !

प्रीति की गंगा छलक आई है;
सांस्कृतिक रीति में सुहाई है !
प्राकृतिक झरने बहे हैं सुख के;
दरिए आनन्द के रुझाए हैं !

दिए में लौ झलकती ऐसी लगी;
जैसे तन ने तराना गाया है !
अहं में चित्त था खिला जैसे;
महत में विराजी व्यवस्था है !

तुष्टिगुण भर गया है हर प्राणी;
त्रासदी जैसे गई भारी है !
स्वास्थ्य है पाया योग ध्यान किए;
रोज़ दीपावली मनानी है !

भरत का राम से मिलन हो कर;
भाव का द्वार ज्यों खुला पुलकित !
‘मधु’ माधुर्य भरे थिरकित उर;
राधा ज्यों श्याम में समायी है !

रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

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