विभाजन की वो अस्थायी मजबूरी…

1947 के भारत विभाजन की घटना को बीते साढ़े छह दशक का समय हो गया है। कुछ लोगों के हृदय में विभाजन की पीड़ा का शूल आज भी चुभ रहा है तो कुछ लोग इस घटना को बीते जमाने की बात कहकर इसे भुला देने में ही भलाई समझ रहे हैं, जबकि कुछ लोग ऐसे भी हैं कि जो इस विषय में सर्वथा मौन रहना ही पसंद करते हैं। 15 अगस्त 1947 को अपने संदेश में योगीराज श्री अरविंद ने कहा था-हिंदू और मुसलमानों के पुराने साम्प्रदायिक विभाजन ने अब देश के स्थायी राजनीतिक विभाजन का रूप ले लिया दीखता है। हम आशा करते हैं कि कांग्रेस एवं राष्ट्र हमें हमेशा के लिए निर्णीत सत्य के रूप में अथवा एक अस्थायी मजबूरी से अधिक कभी स्वीकार नही करेंगे। देश का विभाजन समाप्त होना ही चाहिए। चाहे जिन उपायों से हो यह विभाजन जाना ही चाहिए और जाएगा भी। इसके बिना भारत की नियति को गंभीर क्षति होगी, वह हताशा में डूब जाएगी। अपने इस संदेश में योगीराज श्री अरविंद जी ने स्पष्ट किया है कि मुसलमानों और हिंदुओं के मध्य राजनीतिक विभाजन से पूर्व साम्प्रदायिक विभाजन था। साम्प्रदायिक विभाजन ने ही राजनीतिक विभाजन का स्वरूप लिया। स्वातंत्रय वीर सावरकर इस प्रकार के साम्प्रदायिक विभाजन को धर्मांतरण से उपजा विभाजन माना करते थे। जिसका अंत राष्ट्र के विभाजन में होता है। धर्म के परिवर्तन से मर्म का परिवर्तन होता है और मर्म के परिवर्तन से राष्ट्र का परिवर्तन (विभाजन) हुआ करता है। भारत में हिंदू मुस्लिम ऐक्य को मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने कभी ऐक्य बनने नही दिया। इसके लिए हिंदू समाज ने स्वतंत्रता पूर्व भी प्रयास किये और बाद में आज तक भी एकता का सर्वाधिक पक्षधर हिंदू समाज ही है।

किंतु इस्लामिक कठमुल्लावाद इसका कभी भी पक्षधर नही रहा है। उस कठमुल्लावाद के विरूद्घ समाज की प्रतिक्रिया को कुछ छद्मम धर्म निरपेक्षता वादी लोग हिंदू साम्प्रदायिकता के रूप में प्रचारित करते हैं जो कि एक दम गलत है। अरविंद जी के उक्त संदेश से स्पष्ट है कि हमारे अधिकांश नेताओं ने इस विभाजन को अस्थायी विभाजन माना था। जिसे अस्थायी मजबूरी कहा गया। इस प्रसंग में गोलवलकर जी ने समग्र दर्शन भाग-1 पृष्ठ 155-156 पर लिखा है-एक बार यह भी कहा गया था कि चाहे मेरे शरीर के टुकड़े हों (गांधीजी की ओर संकेत हैं) परंतु भारत माता के टुकड़े नही होंगे, हम विभाजन मान्य नही करेंगे। किंतु वह हो गया। यह अपने पापों का ही फल समझना चाहिए। अब वे कहते हैं कि पांच साल में भारत एक होगा। पांच वर्षों में ऐक्य निर्माण करना हो तो उसके लिए भी प्रयत्न करना होगा, अपना सामथ्र्य बढ़ाना होगा।

गांधी जी जैसे नेता भी विभाजन को अस्थायी मान रहे थे। हिंदूवादी नेताओं को यह विभाजन कतई अस्वीकार्य था और गांधीजी इसे अस्थायी मान रहे थे। इसलिए भारत में लोकसभा के कई प्रारंभिक चुनावों में इस विभाजन को लेकर नेताओं के भाषणों में चर्चा हो जाया करती थी। इस चर्चा के कारण तथा विभाजन की पृष्ठभूमि में खड़ी अस्थायी मजबूरी की भावना को समझकर ही इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के दो टुकड़े करा दिये। पश्चिमी पाकिस्तान को अलग बांग्लादेश की मान्यता दिला दी। जिस पर अटल जी ने उन्हें चण्डी देवी की उपाधि दी। यह उपाधि 1947 में अस्थायी मजबूरी मानने वाले हिंदूवादी नेताओं की भावनाओं की प्रतीक थी। जिसे केवल अटल जी दे सकते थे।

लेकिन 1971 को बीते भी अब लगभग चार दशक होने को आये। 1971 तक हम भारत विभाजन को अस्थायी मजबूरी मान रहे थे। किंतु आज इसे स्थायी मजबूरी मान रहे हैं। 1971 से आज तक के चार दशकों में अस्थायी शब्द स्थायी हो गया। यह हमारी उपलब्धि है। कंधार काण्ड में आडवाणी जी की भूमिका और उनके द्वारा किये गये जिन्ना गुणगान ने इस अस्थायी मजबूरी को स्थायी मजबूरी बना दिया। बातें कुछ और भी हैं जिन्हें इसके लिए उत्तरदायी माना जा सकता है किंतु आडवाणी जी का नाम हमने इसलिए लिया है कि वह विभाजन की पीड़ा के स्वयं भुक्तभोगी रहे हैं दूसरे स्वतंत्र भारत में हिंदुत्व के अच्छे पक्षघर और अलम्बरदार भी रहे हैं। जिन्होंने हिंदू समाज को अपने उक्त कार्यों से निराश कर दिया। अब भाजपा समेत कोई भी हिंदूवादी राजनीतिक दल विभाजन पर कोई प्रतिक्रिया नही दे रहा है। सब मौन हैं। 1971 के पाकिस्तान विभाजन को कांग्रेस ने कुछ इस प्रकार प्रचारित और महिमामंडित किया कि उसने जनमानस में यह विश्वास उत्पन्न कर दिया कि उसके नेता विभाजन को जिस प्रकार अस्थायी माना करते थे वह अस्थायी ही सिद्घ हुआ और हमने मजहबी नफरत के आधार पर बने पाकिस्तान को तोड़कर बहुत बड़ी सफलता हासिल कर ली है। जबकि सच ये है कि बांग्लादेश और पाकिस्तान की नफरत आज प्यार में बदल गयी है और भारत को इन दोनों देशों की मजहबी नफरत का सामना करना पड़ रहा है।

बांग्लादेश का बनना अखण्ड भारत की ओर बढऩा कदापि नही था। लेकिन इस घटना को कुछ इसी प्रकार बढ़ा चढ़ाकर दिखाया गया। जिससे जिन लोगों ने अखंड भारत के सपने देखे थे और संकल्प लिये थे उनके सपने और संकल्प आज केवल संस्मरण बनकर रह गये हैं। उनका नाम लेकर राजनीति करने वाले दल और नेता आज उनके सपनों और संकल्पों का भारत बनाने की न तो बात कर रहे हैं और न ही भाषण दे रहे हैं। जनता इस विषय में मौन है, कि अखण्ड भारत का निर्माण भी कभी हमारा राष्टï्रीय चुनावी मुद्दा होना चाहिए। जनता की यह उदासीनता निश्चय ही खतरनाक है। हमें याद रखना चाहिए कि राष्ट्रीय विरासत के कभी अलग-अलग वारिस नही हुआ करते। राष्ट्रीय विरासत सांझी विरासत होती है। उसे जाति, सम्प्रदाय भाषा के आधार पर अलग अलग खण्डित नही किया जा सकता। इसलिए हिंदू मुस्लिम विरासत की बात करना राष्ट्र के साथ अपघात है। राष्टï्र सभी का है। इसे खण्डित करने की अनुमति किसी को नही दी जा सकती। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि स्वतंत्रता पूर्व की मुस्लिम साम्प्रदायिकता आज भी जीवित है, जिसे पाकिस्तान और बांग्लादेश ही नही अपितु कई गैर इस्लामिक देश भी हवा दे रहे हैं। गोवा में ईसाई अपनी विरासत मांग रहे हैं, पूर्वोत्तर में ईसाईकरण हो जाने पर अलगाववाद की बातें हो रही हैं, जबकि कश्मीर 1947 से ही केसर की खेती छोड़कर बारूद की खेती कर रहा है। क्या हम इन सारी समस्याओं को आज भी अस्थायी मजबूरी ही नही मान रहे हैं। कल को यदि इन्हें हम स्थायी मजबूरी मान बैठे तो क्या देश पुन: खण्ड खण्ड न हो जाएगा? ऐसी मानसिकता से हम कब उबरेंगे?

आज राष्ट्रहित में हमें अस्थायी मजबूरियों को स्थायी मजबूरी बनने से रोकने के लिए राष्ट्रविरोधी शक्तियों के विरूद्घ कठोर कार्यवाही करने से चूकना नही चाहिए। अन्यथा 1947 का भूत क्रूर रूप में हमारे सामने आ खड़ा होगा।

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

2 COMMENTS

  1. गुप्ता जी आपका विश्लेषण सराहनीय है आपकी ज्ञानवर्धक प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद ।

  2. मह्रिषी अरविन्द ने पंद्रह अगस्त १९४७ को कहा था (संयोग से ये उनकी पिचहत्तरवीं सालगिरह भी थी) की चाहे जैसे भी विभाजन समाप्त होना चाहिए. शुरू के कुछ वर्षों तक जरूर ये मुगालता रहा की देर सबेर पाकिस्तान के मुस्लमान इसे स्वीकार करेंगे और देश फिर से एक हो सकेगा. लेकिन अब कुछ गिने चुने ‘सिरफिरों’को छोड़कर कोई अखंड भारत की बात नहीं करता. भूराजनीतिक परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं और ऐसे में हमें सतत जागरूक रहना होगा और जैसे ही अवसर लगे विभाजन को समाप्त करने के लिए जरूरी कदम उठाने होंगे. चाहे ये एक कन्फेडरेशन के रूप में हो या किसी और रूप में. लेकिन ये होना ही चाहिए. सत्तर के दशक में तत्कालीन सोवियत संघ के शीर्ष नेता ब्रेजनेव ने इस आशय का सुझाव भी तत्कालीन प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई को दिया था लेकिन गांधवादी होने के कारन वो इसकी हिम्मत नहीं जुटा पाए.लेकिन इस बारे में सभी देशभक्त दलों को चर्चा करके एक आम सहमति विकसित करनी चाहिए. इस सवाल को हिन्दू मुस्लिम के चश्मे से न देखकर राष्ट्रिय और मानवीय दृष्टि से देखना चाहिए.

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