भारतीय कैलेण्डर और काल को प्रामाणिक करते महाकालेश्वर

विश्व की सभीसभ्यताओं में स्वयं को सर्वोत्तम, सभ्यतम, प्राचीनतम बतानें में एक तथ्य का उल्लेख अवश्य किया जाता है – वह है समय अर्थात काल की गणना और गणना का वैज्ञानिक आधार. काल गणना की दृष्टि से हम भारतीय सौभाग्यशाली हैं कि सम्पूर्ण विश्व इस संदर्भ में हमारें शास्त्रों और परम्पराओं को देखता है. टाइम या समय यानि काल की चर्चा हो तो एक स्थान का उल्लेख अवश्यंभावी हो जाता है और वह है महाकाल का स्थान उज्जैन. समय अर्थात काल को जिस स्थान पर महान और ईश्वर तुल्य भाव प्राप्त हुआ वह दुर्लभ स्थान है महाकाल अर्थात महाकालेश्वर अर्थात उज्जैन. समय को ईश्वरीय और आराध्य रूप में स्थापित करनें का उदाहरण अन्यत्र सम्पूर्ण विश्व में दुर्लभ है. विश्व की श्रेष्ठतम भारतीय काल गणना और कैलेण्डर सिस्टम का केंद्र स्थान रहा है क्षिप्रा किनारें बसा उज्जैन! स्कन्द पुराण एवं महाभारत अनुसार उज्जैन नगरी3000 साल पुरानी है. राजा चंद्रसेन नें यहां एक भव्य एवं काल तंत्र सिद्ध मंदिर बनाया गया जो महाकाल का पहला मंदिर था. यहाँ भगवान शिव को कालरूप में पूजित कर महाकालेश्वर की उपाधि से पुकार गया. उज्जैन विंध्य पर्वतमाला के समीप, क्षिप्रा किनारे समुद्र तल से 1678 फुट की ऊंचाई पर 23 डिग्री. 50′ उत्तर देशांश और 75डिग्री .50′ पूर्वी अक्षांश पर स्थित है. यह नगर भूगोल की दृष्टि से एक दिव्य, अद्भुत, सिद्ध और शक्तिशाली कोण से सूर्य की किरणों से साक्षात्कार करता है. प्राचीन भारतीय मनीषियों, ऋषियों, तांत्रिकों और वैज्ञानिकों ने इस स्थान के भौगोलिक, ज्योतिषीय, खगोलीय महत्व को जान लिया था. उज्जैयिनी की इस इस प्राचीन पहचान का ही परिणाम था कि यहाँ समय के देव अर्थात महाकाल का मंदिर बना. भारत भर के सर्वाधिक आराध्य 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर का देवस्थान उज्जैन में होना उसके सर्वकालिक स्वरूप को आलोकित करता है.

प्राचीन भारतीय मानव शारीर विज्ञान में नाभि को मानव की संज्ञा, प्रज्ञा और विज्ञा का स्थान मानकर उसे ही ऊर्जा स्त्रोत स्थान माना गया है. भारतीय काल गणना में उज्जैन से गुजरनें वाली विषुवत रेखा का सूर्य से विशिष्ट कोणीय संपर्क ही है जिसके कारण मनीषियों में उज्जैन को पृथ्वी के मणिपुर चक्र का नाम दिया है. महाकाल की इस नगरी में अनेकों घटनाओं, वृतांतों, व्यक्तियों, आविष्कारों, साधनाओं, ग्रंथो और भविष्य सूत्रों का आविष्कार हुआ है तो इस नगरी की काल गणना की क्षमता के आधार पर हुआ है. निश्चित ही काल को साधनें और मापनें की इस स्थान की क्षमता का ही प्रभाव भी है कि इस स्थान पर ऋषि संदीपनी, महाकात्यायन, भास, भर्तृहरि, कालिदास, वराहमिहिर, अमरसिंहादि नवरत्न, परमार्थ, शूद्रक, बाणभट्ट, मयूर, राजशेखर, पुष्पदन्त, हरिषेण, शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, जदरूप, वृष्णि-वीर, कृष्ण-बलराम, चण्डप्रद्योत, वत्सराज उदयन, सम्राट अशोक, सम्प्रति, राजा विक्रमादित्य, महाक्षत्रप चष्टन, रुद्रदामन, परमार नरेश वाक्पति मुंजराज, भोजदेव व उदयादित्य, आमेर नरेश सवाई जयसिंह, महादजी शिन्दे जैसे कालजयी व्यक्तित्वों का कृतित्व इतिहास के प्रत्येक कालखंड को प्रकाशित करता रहा है. वस्तुतः यह उज्जैन के महाकाल स्वरूप का ही दर्शन है जो कि आज विश्व में हमारी भारतीय काल गणना को स्वीकार्य, आदरेय और अकाट्य रूप में स्वीकार हो रही है. आज नासा में हमारी काल गणना और कुम्भ में होनें वाले कल्पवास के अध्ययन हेतु एक पृथक सेल रात दिन इसके अगुह्य समीकरणों को सुलझानें में लगा हुआ है. आज जबकि हम विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में पश्चिम की ओर टकटकी लगाए देखतें रहतें हैं तब यह तथ्य हमें चमत्कृत करता है कि जब यूरोप में एक हजार से ऊपर की गणना का ज्ञान नहीं था तब हमें गणित की विराटतम संख्या तल्लाक्षण का भी ज्ञान था. तल्लाक्षण अर्थान एक के आगे त्रेपन शून्यों को लगानें से निर्मित संख्या. ललित विस्तार नामक गणित के ग्रन्थ में तथागत बुद्ध उनकें समकालीन गणितज्ञ अर्जुन से उज्जैन क्षेत्र में ही चर्चा करते हुए तल्लाक्षण की व्याख्या इस प्रकार देतें हैं – सौ करोड़ = एक अयुत, सौ अयुत = एक नियुत, सौ नियुत = एक कंकर, सौ कंकर = एक सर्वज्ञ और सौ सर्वज्ञ का मान एक विभुतंगमा और सौ विभुतंगमा का मान एक तल्लाक्षण के बराबर होता है.

भारतीय काल गणना में उज्जैन के महत्त्व को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि सांस्कृतिक भारत के सर्वाधिक सनातनी और धार्मिक आयोजन सिंहस्थ हेतु नियत चार स्थानों में से एक स्थान का गौरव उज्जैन को प्राप्त है. जब मेष राशि में सूर्यऔर सिंह राशि में गुरु प्रवेश के दिव्य मुहूर्त में उज्जैन में महाकुम्भ का आयोजन होता है. पिछले हजारों वर्षो के इतिहास में प्रत्येक कालखंड में उज्जैन की इस प्रतिष्ठा को राजाओं, ऋषियों, खगोल वैज्ञानिकों और तांत्रिकों ने समय समय पर पहचाना. परिणाम स्वरुप हर काल खंड में उज्जैन में विशिष्ट शैली के विज्ञान आधारित निर्माण हुए.

जयपुर के महाराजा जयसिंह नें 1719 में वेधशाला (प्रेक्षागृह) का निर्माण कराया था. इसमें तारामंडल का सुन्दर वास्तु है एवं दूरबीन लगी है. यहाँ लगे उपकरण से प्रत्येक खगोलीय परिस्थिति का विषुवत रेखा से किसी भी कोण के झुकाव का माप किया जा सकता है. शेष विश्व के खगोल वैज्ञानिकों के लिए यह उस समय असंभव कार्य था. उज्जैन को स्पर्श कर निकलती देशांतर रेखा के कोण से खगोलीय प्रयोगों को सिद्द करनें हेतु यहाँ चार यंत्र समरात यंत्र, नाद यंत्र, लम यंत्र, दिंगारा यंत्र लगाए गए थे. भारत वर्ष की प्रमुख काल गणना अर्थात कैलेण्डर का मूल स्त्रोत पंचांग है, और पंचांग उज्जैन में किये खगोलीय प्रयोगों का ही सिद्धस्थ स्वरुप है.

सर्वमान्य है कि भारतीय पुराणों में कथित प्रत्येक अध्याय, वाक्य और शब्द का कुछ न कुछ वैज्ञानिक आधार अवश्य होता है. उज्जैन के संदर्भ में पुराणों में कथ्य है कि यह मोक्षदायिनी नगरी है, ऐसा कहनें के पीछे संभवतः नौग्रहों सहित सूर्य और सम्पूर्ण ब्रह्मांड का उज्जैन से विशिष्ट कोणीय स्थान ही प्रमुख रहा होगा. भूमध्य रेखा पर स्थित उज्जैन के विकसित, प्रतिष्ठित और महाकाल स्वरुप को पुराणों, उपनिषदों, और महाभारत में आनें उल्लेख से समझा जाना चाहिए. यहाँ विश्व के आद्य इतिहास से सम्बंधित पुरातात्विक सामग्री प्रचुर मात्रा में बहुधा ही मिलती रहती हैं. कृष्ण और बलराम को विद्यार्थी रूप में गुरु संदीपनी नें अपनें आश्रम में इस नगरी में शिक्षित किया था. इस नगरी का पुण्य प्रताप और तेजस, ओरस का प्रभाव ही रहा कि प्रत्येक कालखंड में यहाँ दिग्विजयी और लब्ध प्रतिष्ठित राजा और महापुरुष हुए, सिद्ध वैज्ञानिकों ने यहाँ साधना की, ज्योतिष शास्त्रियों नें यहाँ रहकर कल्प वास किये और अखिल-निखिल वैश्विक मानवता को अनेकों कालजयी गणितीय सूत्र प्रदान किये. गणितज्ञों की एक सुदीर्घ परम्परा और संस्थान के उत्तराधिकारी, “लीलावती” व “बीज गणित” जैसे गणितीय शास्त्रों के लेखक भास्कराचार्य उज्जैन की वेधशाला के मार्गदर्शक थे. उन्होंने पृथ्वी में “गुरुत्वाकर्षण बल” की खोज उज्जैन में ही की थी. 12वीं शताब्दी के महान गणितज्ञ भास्कराचार्य नें उज्जैन में ही ज्योतिष शास्त्र की अद्वितीय पुस्तक “सिद्धांत शिरोमणि” का लेखन कार्य भी किया. गणितीय समीकरणों को हल करनें की उनकी “चक्रवात पद्धति” तत्कालीन वैश्विक परिदृश्य में अन्य सभ्यताओं में अग्रज की भांति सम्मानित होती थी. उज्जैन से सम्बद्ध इन्ही महान भास्कराचार्य ने समय की सबसे छोटी इकाई “त्रुटि” और सबसे बड़ी ईकाई “कल्प” का परिचय शेष विश्व से कराया जिसकी कल्पना भी पाश्चात्य राष्ट्रों और उस समय की अन्य तथाकथित विकसित सभ्यताओं को दूर दूर तक नहीं थी. शुद्धतम काल गणना की सर्वाधिक मान्य भौगोलिक स्थली महाकाल नगरी उज्जैन में ही भास्कराचार्य ने निम्नानुसार कालगणना मानव सभ्यता को प्रदान की थी –

225 त्रुटि = 1 प्रतिविपल

60 प्रतिविपल = 1 विपल (0.4 सैकण्ड)

60 विपल = 1 पल (24 सैकण्ड)

60 पल = 1 घटी (24 मिनिट)

2.5 घटी = 1 होरा (एक घण्टा)

5 घटी या 2 होरा = 1 लग्न (2 घण्टे)

60 घटी या 24 होरा या 12 लग्न = 1 दिन (24 घण्टे)

एक विपल 0.4 सैकण्ड के बराबर है तथा “त्रुटि’ का मान सैकण्ड का 33,750वां भाग है, लग्न का आधा होरा कहलाता है, होरा एक घण्टे के बराबर है. यूरोपीय आवर या हावर इसी होरा से बना शब्द है! सृष्टि का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल 1, रविवार हुआ. इस दिन के पहले “होरा’ का स्वामी सूर्य था, उसके बाद के दिन के प्रथम होरा का स्वामी चन्द्रमा था. इसलिये रविवार के बाद सोमवार आया. इस प्रकार सातों वारों के नाम सात ग्रहों रख कर सम्पूर्ण विश्व नें हमारी पौराणिक संगणना को मान्य किया किन्तु तत्पश्चात उसमें चतुरता पूर्वक अपनें पुट मिलाते हुए उसे अपना नाम देते और आविष्कार बताते चले गए. समय की सबसे बड़ी इकाई “कल्प’ को माना गया, एक कल्प में 432 करोड़ वर्ष होते हैं. एक हजार महायुगों का एक कल्प माना गया जो कि निम्नानुसार है –

1 कल्प = 1000 चतुर्युग या 14 मन्वन्तर

1 मन्वन्तर = 71 चतुर्युगी

1 चतुर्युग = 43,20,000वर्ष

 

–प्रवीण गुगनानी

 

 

 

 

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