हिंदी दिवस पर विशेषः विलाप मत कीजिए, संकल्प लीजिए !

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– संजय द्विवेदी

राष्ट्रभाषा के रूप में खुद को साबित करने के लिए आज वस्तुतः हिंदी को किसी सरकारी मुहर की जरूरत नहीं है। उसके सहज और स्वाभाविक प्रसार ने उसे देश की राष्ट्रभाषा बना दिया है। वह अब सिर्फ संपर्क भाषा नहीं है, इन सबसे बढ़कर वह आज बाजार की भाषा है, लेकिन हर 14 सितंबर को हिंदी दिवस के अवसर पर होने वाले आयोजनों की भाषा पर गौर करें तो यूँ लगेगा जैसे हिंदी रसातल को जा रही है। यह शोक और विलाप का वातावरण दरअसल उन लोगों ने पैदा किया है, जो हिंदी की खाते तो हैं, पर उसकी शक्ति को नहीं पहचानते। इसीलिए राष्ट्रभाषा के उत्थान और विकास के लिए संकल्प लेने का दिन ‘सामूहिक विलाप’ का पर्व बन गया है। कर्म और जीवन में मीलों की दूरी रखने वाला यह विलापवादी वर्ग हिंदी की दयनीयता के ढोल तो खूब पीटता है, लेकिन अल्प समय में हुई हिंदी की प्रगति के शिखर उसे नहीं दिखते।

अंग्रेजी के वर्चस्ववाद को लेकर हिंदी भक्तों की चिंताएं कभी-कभी अतिरंजित रूप लेती दिखती हैं। वे एक ऐसी भाषा से हिंदी की तुलना कर अपना दुख बढ़ा लेते हैं, जो वस्तुतः विश्व की संपर्क भाषा बन चुकी है और ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर उसमें लंबा और गंभीर कार्य हो चुकाहै। अंग्रेजी दरअसल एक प्रौढ़ हो चुकी भाषा है, जिसके पास आरंभ से ही राजसत्ताओं का संरक्षण ही नहीं रहा वरन ज्ञान-चिंतन, आविष्कारों तथा नई खोजों का मूल काम भी उसी भाषा में होता रहा। हिंदी एक किशोर भाषा है, जिसके पास उसका कोई ऐसा अतीत नहीं है, जो सत्ताओं के संरक्षण में फला-फूला हो। आज भी ज्ञान-अनुसंधान के काम प्रायः हिंदी में नहीं हो रहे हैं। उच्च शिक्षा का लगभग अध्ययन और अध्यापन अंग्रेजी में हो रहा है। दरअसल हिंदी की शक्ति यहां नहीं है, अंग्रेजी से उसकी तुलना इसलिए भी नहीं की जानी चाहिए क्योकि हिंदी एक ऐसे क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है, जो विश्व मानचित्र पर अपने विस्तारवादी, उपनिवेशवादी चरित्र के लिए नहीं बल्कि सहिष्णुता के लिए जाना जाने वाला क्षेत्र है। फिर भी आज हिंदी, दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आवादी द्वारा बोली जाने वाली भाषा है, क्या आप इस तथ्य पर गर्व नहीं कर सकते ? दरअसल अंग्रेजी के खिलाफ वातावरण बनाकर हमने अपने बहुत बड़े हिंदी क्षेत्र को ‘अज्ञानी’ बना दिया तो दक्षिण के कुछ क्षेत्र में हिन्दी विरोधी रूझानों को भी बल दिया । सच कहें तो नकारात्मक अभियान या भाषा को शक्ति नहीं दे सकते । एक भाषा के रूप में अंग्रेजी को सीखने तथा राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को समादर देने, मातृभाषा के नाते मराठी, बंगला या पंजाबी का इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है। किंतु किसी भाषा को समाज में यदि प्रतिष्ठा पानी है तो वह नकारात्मक प्रयासों से नहीं पाई जा सकती । अंग्रेजी के विस्तारवाद को हमने साम्राज्यवादी ताकतों का षडयंत्र माना और प्रचारित किया। फलतः भावनात्मक रूप से सोचने-समझने वाला वर्ग अंग्रेजी से कटा और आज यह बात समूचे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए गलत नजीर बन गई। यद्यपि अंग्रेजी मुठ्ठीभर सत्ताधीशों, नौकरशाहों और प्रभुवर्ग की भाषा है। वह उनकी शक्ति बन गई है। तो शक्ति को छीनने का एकमेव हथियार है उस भाषा पर अधिकार । यदि देश के तमाम गांवों, कस्बों, शहरों के लोग निज भाषा के आग्रहों आज मुठ्ठी भर लोगों के ‘अकड़ और शासन’ की भाषा न होती। इस सिलसिले में भावनात्मक नारेबाजियों से परे हटकर ‘विश्व परिदृश्य’ में हो रही घटनाओं-बदलावों का संदर्भ देखकर ही कार्यक्रम बनाने चाहिए । यह बुनियादी बात हिंदी क्षेत्र के लोग नहीं समझ सके। आज यह सवाल महत्वपूर्ण है कि अंग्रेजी सीखकर हम साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी कुछ क्रों से जुझ सकेंगे या उससे अनभिज्ञ रहकर। अपनी भाषा का अभिमान इसमें कहीं आड़े नहीं आता। भारतेंदु की यह बात-‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल’ आज के संदर्भ में भी अपनी प्रासंगिकता रखती है। आप इसी भाषा प्रेम के रुझानों को समझने के लिए दक्षिण भारत के राज्यों पर नजर डालें तो चित्र ज्यादा समझ में आएगा। मैं नहीं समझता कि किसी मलयाली भाषी, तमिल भाषी का अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम किसी बिहार, उ. प्र. या म. प्र. के हिंदी भाषी से कम है लेकिन दक्षिण के राज्यों ने अपनी भाषा के प्रति अनुराग को बनाए रखते हुए अंग्रेजी का भा ज्ञानार्जन किया, हिंदी भी सीखी। यदि वे निज भाषाका आग्रह लेकर बैठ जाते तो शायद वे आज सफलताओं के शिखर न छू रहे होते। आग्रहों से परे स्वस्थ चिंतन ही किसी समाज और उसकी भाषा को दुनिया में प्रतिष्ठा दिला सकता है। भाषा को अपनी शक्ति बनाने के बजाए उसे हमने अपनी कमजोरी बना डाला। बदलती दुनिया के मद्देनजर ‘विश्व ग्राम’ की परिकल्पना अब साकार हो उठी है। सो अंग्रेजी विश्व की संपर्क भाषा के रूप में और हिंदी भारत में संपर्क भाषा के स्थान पर प्रतिष्ठित हो चुकी है, यह चित्र बदला नहीं जा सकता।

हिंदी की ताकत दरअसल किसी भाषा से प्रतिद्वंद्विता से नहीं वरन उसकी उपयोगिता से ही तय होगी। आज हिंदी सिर्फ ‘वोट माँगने की भाषा’ है, फिल्मों की भाषा है। बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां में अभी आधारभूत कार्य होना शेष है। उसने खुद को एक लोकभाषा और जनभाषा के रूप में सिद्ध कर दिया है। किंतु ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर उसमें काम होना बाकी है, इसके बावजूद हिंदी का अतीत खासा चमकदार रहा है। नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन में स्वामी दयानंद से लेकर विवेकानंद तक लोगों को जगाने के अभियान की भाषा हिंदी ही बनी। गांधी ने भाषा की इस शक्ति को पहचाना और करोड़ों लोगों में राष्ट्रभक्ति का ज्वार पैदा किया तो उसका माध्यम हिंदी ही बनी थी। दयानंद ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ जैसा क्रांतिकारी ग्रंथ हिंदी में रचकर हिंदी को एक प्रतिष्ठा दी। जानकारी के लिए ये दोनों महानायक हिंदी भाषा नहीं थे। तिलक, गोखले, पटेल सबके मुख से निकलने वाली हिंदी ही देश में उठे जनज्वार का कारण बनी। यह वही दौर है जब आजादी की अलख जगाने के लिए ढेरों अखबार निकले। उनमें ज्यादातर की भाषा हिंदी थी। यह हिंदी के खड़े होने और संभलने का दौर था। यह वही दौर जब भारतेन्दु हरिचन्द्र ने ‘भारत दुर्दशा’ लिखकर हिंदी मानस झकझोरा था।उधर पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘आज’ के संपादक बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, माधवराव सप्रे, मदनमोहन मालवीय, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी एक इतिहास रच रहे थे। मिशनरी पत्रकारिता का यह समय ही हमारी हिंदी पत्रकारिता की प्रेरणा और प्रस्थान बिंदु है।

आजादी के बाद भी वह परंपरा रुकी या ठहरी नहीं है। हिंदी को विद्यालयों विश्वविद्यालयों, कार्यालयों। संसद तथा अकादमियों में प्रतिष्ठा मिली है। तमाम पुरस्कार योजनाएं, संबर्धन के, प्रेरणा के सरकारी प्रयास शुरू हुए हैं। लेकिन इन सबके चलते हिंदी को बहुत लाभ हुआ है, सोचना बेमानी है। हिंदी की प्रगति के कुछ वाहक और मानक तलाशे जाएं तो इसे सबसे बड़ा विस्तार जहां आजादी के आंदोलन ने, साहित्य ने, पत्रकारिता ने दिलाया, वहीं हिंदी सिनेमा ने इसकी पहुँच बहुत बढ़ा दी। सिनेमा के चलते यह दूर-दराज तक जा पहुंची। दिलीप कुमार, राजकूमार, राजकपूर, देवानंद के ‘स्टारडम’ के बाद अभिताभ की दीवनगी इसका कारण बनी। हिंदी न जानने वाले लोग हिंदी सिनेमा के पर्दे से हिंदी के अभ्यासी बने। यह एक अलग प्रकार की हिंदी थी। फिर ट्रेनें, उन पर जाने वाली सवारियां, नौकरी की तलाश में हिंदी प्रदेशों क्षेत्रों में जाते लोग, गए तो अपनी भाषा, संस्कृति,परिवेश सब ले गए। तो कलकत्ता में ‘कलकतिया हिंदी’ विकसित हुई, मुंबई में ‘बम्बईयी हिंदी’ विकसित हुई। हिंदी ने अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से तादात्म्य बैठाया, क्योंकि हिंदी के वाहक प्रायः वे लोग थे जो गरीब थे, वे अंग्रेजी बोल नहीं सकते थे। मालिक दूसरी भाषा का था, उन्हें इनसे काम लेना था। इसमें हिंदी के नए-नए रूप बने। हिंदी के लोकव्यापीकरण की यह यात्रा वैश्विक परिप्रक्ष्य में भी घट रही थी। पूर्वीं उ. प्र. के आजमगढ़, गोरखपुर से लेकर वाराणसी आदि तमाम जिलों से ‘गिरमिटिया मजदूरों’ के रूप में विदेश के मारीशस, त्रिनिदाद, वियतनाम, गुयाना, फिजी आदि द्वीपों में गई आबादी आज भी अपनी जडो़ से जुड़ी है और हिंदी बोलती है। सर शिवसागर रामगुलाम से लेकर नवीन रामगुलाम, वासुदेव पांडेय आदि तमाम लोग अपने देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी बने। बाद में शिवसागर रामगुलाम गोरखपुर भी आए। यह हिंदी यानी भाषा की ही ताकत थी जो एक देश में हिंदी बोलने वाले हमारे भारतीय बंधु हैं। इन अर्थों में हिंदी आज तक ‘विश्वभाषा’ बन चुकी है। दुनिया के तमाम देशों में हिंदी के अध्ययन-अध्यापन का काम हो रहा है।देश में साहित्य-सृजन की दृष्टि से, प्रकाश-उद्योग की दृष्टि से हिन्दी एक समर्थ भाषा बनी है। भाषा और ज्ञान के तमाम अनुशासनों पर हिन्दी में काम शुरु हुआ है। रक्षा, अनुवांशिकी, चिकित्सा, जीवविज्ञान, भौतिकी क्षेत्रों पर हिन्दी में भारी संख्या में किताबें आ रही हैं। उनकी गुणवक्ता पर विचार हो सकता है किंतु हर प्रकार के ज्ञान और सूचना को अभिव्यक्ति देने में अपनी सामर्थ्य का अहसास हिन्दी करा चुकी है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के बड़े-बड़े ‘अंग्रेजी दां चैनल’ भी हिन्दी में कार्यक्रम बनाने पर मजबूर हैं। ताजा उपभोक्तावाद की हवा के बावजूद हिन्दी की ताकत ज्यादा बढ़ी है। हिन्दी में विज्ञापन, विपणन उपभोक्ता वर्ग से हिन्दी की यह स्थिति ‘विलाप’ की नहीं ‘तैयारी’ की प्रेरणा बननी चाहिए। हिन्दी को 21वीं सदी की भाषा बनना है। आने वाले समय की चुनौतियों के मद्देनजर उसे ज्ञान, सूचनाओं और अनुसंधान की भाषा के रुप में स्वयं को साबित करना है। हिन्दी सत्ता-प्रतिष्ठानों के सहारे कभी नहीं फैली, उसकी विस्तार शक्ति स्वयं इस भाषा में ही निहित है। अंग्रेजी से उसकी तुलना करके कुढ़ना और दुखी होना बेमानी है। अंग्रेजी सालों से शासकवर्गों तथा ‘प्रभुवर्गों’ की भाषा रही है। उसे एक दिन में उसके सिंहासन से नहीं हटाया जा सकता। हिन्दी का इस क्षेत्र में हस्तक्षेप सर्वथा नया है, इसलिए उसे एक लंबी और सुदीर्घ तैयारी के साथ विश्वभाषा के सिंहासन पर प्रतिष्ठित होने की प्रतीक्षा करनी चाहीए, इसीलिए हिन्दी दिवस को विलाप, चिंताओं का दिन बनाने के बतजाए हमें संकल्प का दिन बनाना होगा। यही संकल्प सही अर्थों में हिंदी को उसकी जगह दिलाएगा।

15 COMMENTS

  1. महोदय ,
    मुझे 365 दिनों की तुलना में हिन्दी पखवाड़े के दौरान हिन्दी के प्रोत्साहन के
    आयोजन की सार्थकता विषय पर जल्दि लेख भेजे ताकी मै प्रतीयोगीता में भाग ले
    सकू
    धन्यवाद

  2. हिंदी ने हिंदी को अपमानित किया
    हिंदी भाषियों ने हिंदी अछूत बना दिया
    नेहरु ने भी हिंदी को सविंधान में राज्य भाषा का नाम दिया
    पुरे भारत के सरकारों काम को अंग्रेजी से पाट दिया
    इतने पर भी संतोष नहीं मिला तो संसद तक को अंगरेजी में ही नीलाम किया
    कहने को हम हिंदी है लेकिन न्याय हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजो ने एक नया आयाम दिया
    कोई जज न जाने हिंदी फिर भी हिंदी दिवस में उसका खूब विलाप किया

    भला हो भारतक की ग्राम प्रष्ट भूमिका जिसने अपने लालो को आज भी हिंदी रंग में रंग हुआ हुआ है वरना इस सरकारी हिंदी नेताओ ने, सरकारी हुकुमरानो ने हिंदी को खत्म करने में कोई कमी नहीं रखी !
    मेरे विचार से जब तक हमारी सरकार अपनी कार्य प्रणाली में हिंदी का पूर्ण इमानदारी से समावेश नहीं करती तब तक हिंदी को अपना गोरवान्वित स्थान नहीं दिला पाएंगे
    हमे अपनी शिक्षा में आधुनिक विज्ञानं के शब्दों का हिंदी अनुवाद भी शिघ्रातिघ्रा प्रतिपादित करना होगा जेसा की दूरे देशो ने अपनी भाषा में इसका समावेश किया इसके बिना हम हिंदी को आज के विज्ञान से काट कर भी सफल नहीं हो पाएंगे

  3. हिन्दी दिवस के नाम से ही मुझे चिढ है..
    सोते जागते उठते बैठते बोली जाने वाली भावोद्गार प्रकट करने वाली संवाद का आधार जो हमारी अपनी भाषा है,उसका दिवस क्या मानना….

    आपकी बात से सहमत हूँ…इतनी भी दयनीय नहीं हिन्दी की स्थिति…आज हम देवनागरी में अंतरजाल पर लिख रहे हैं,जिसपर कल तक केवल अंग्रेजी का अधिकार था,यह क्या आशाजनक नहीं…

  4. आप सबने हिंदी दिवस पर प्रकाशित उपरोक्त लेख पर जैसी उत्साहजनक प्रतिक्रिया दी है, उससे पता लगता है कि हिंदी का भविष्य बहुत बेहतर है। हिंदी आज मनोरंजन, सूचना, राजनीति और जनता की सबसे बड़ी महत्वपूर्ण भाषा बन चुकी है। बस उसे अब उच्चशिक्षा, कानून, ज्ञान और अनुसंधान की भाषा बनना शेष है। देश की राजनीति अगर थोड़ा हौसला और आत्मविश्वास पा सके तो हम ऐसा भी कर सकते हैं। किंतु हमारे कायर नेताओं ने नौकरशाहों के जाल में खुद को इस तरह फंसा लिया है कि देशहित की हर बात आज बेमानी हो गयी है। मुझे लगता है कि अगर उत्तर भारत के बजाए दक्षिण भारत से हमारे अधिकतर प्रधानमंत्री होते तो शायद हिंदी इस देश की राष्ट्रभाषा बन गई होती। किंतु उत्तर भारत के नेताओं ने हिंदी का खाया पर उसे नुकसान बहुत पहुंचाया।

    • संजय द्विवेदी जी, आपको मैं आपके संजीदा विचारों के लिए पढ़ता हूँ। प्रस्तुत टिप्पणी में क्या पढ़ रहा हूँ? कहीं आप ने अनजाने में तो नहीं कहा, “मुझे लगता है कि अगर उत्तर भारत के बजाए दक्षिण भारत से हमारे अधिकतर प्रधानमंत्री होते तो शायद हिंदी इस देश की राष्ट्रभाषा बन गई होती। किंतु उत्तर भारत के नेताओं ने हिंदी का खाया पर उसे नुकसान बहुत पहुंचाया।” तथापि, आप कहते हैं, “किंतु हमारे कायर नेताओं ने नौकरशाहों के जाल में खुद को इस तरह फंसा लिया है कि देश हित की हर बात आज बेमानी हो गयी है।”

      हम सब अंधे बने हाथी को टटोलने लगे हुए हैं। हाथी कौन और कैसा है हम अंधे क्या जाने? आज केंद्र में राष्ट्रीय शासन स्थापित होते कोई ऐसा कुछ न लिखे जिसे पढ़ “हाथी” को हमारे सचमुच अंधे होने का आभास हो जाए। कांग्रेस को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम १९४७, धारा १० में “नौकरशाहों का जाल” और न जाने कितने उपकरण सत्ता में बने रहने के लिए दिए गए थे। श्री नरेंद्र मोदी जी ने नौकरशाहों को भारत विकास की ओर निर्भय काम करने हेतु उत्साहित कर एक कुशल राष्ट्रवादी नेतृत्व का प्रमाण दिया है। यदि हम १८८५ में जन्मी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और राष्ट्रवादी मोदी जी के नेतृत्व के अंतर्गत वर्तमान बीजेपी में मुख्य अंतर को समझ लें तो समाज में किसी प्रकार की विषमताओं, अपर्याप्तता, अनैतिकता, अथवा सर्वव्यापी भ्रष्टाचार पर लिखते निर्दिष्ट तिथि का विशेष उल्लेख करना चाहिए ताकि आज स्थिति को सरलमति भारतीय भली भांति समझ सकें।

  5. हिंदी की याद तो उन्हें आती है तो इसे भूल चुके होते हैं | जब हिंदी व्यवहार में आ जाए तो फिर इसके लिए किसी ख़ास दिवस की आवश्यकता नहीं पड़ेगी | आज के परिप्रेक्छ्य में पढ़ना हीं नौकरी पाने के लिए है तो फिर अपनी मात्री भाषा क्या और विदेशी भाषा क्या | पहले अपनी सोच को बदलें कि पढ़ाई ज्ञान प्राप्ति का साधन है फिर हिंदी क्या किसी भी भाषा को आगे आने में कोई परेशानी नहीं होगी | द्विवेदी जी के आशावादी लेख के लिए साधू वाद |

  6. ॥अथाऽतो राष्ट्र भाषा जिज्ञासा॥
    सारे राष्ट्र भाषा हितैषियों से निम्न विचार बिंदुओं पर सोचने के लिए बिनती:
    एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण बिंदू जो उत्तर भारतीय जनों की दृष्टिसे ओझल हो जाता है, उसे स्पष्ट करना चाहता हूं। कोई भी दुराग्रह बिना।
    कुछ ऐतिहासिक, विशेषतः उत्तर भारतीयों की गलतियों के कारण ही, दक्षिण में राष्ट्र भाषा को स्वीकार कराने में अधिक कठिनाइयां खडी हुयी थी।{ऐसा पूरी प्रामाणिकता से मानता हूं}
    ॥गलती थी उर्दू प्रचुर हिंदी का बढावा॥ (यह सत्य है, द्वेष नहीं।)
    संस्कृत प्रचुर (बहुल) हिंदी ही सारे भारत में लागु करनेमें कम कठिनाई होगी।
    जिस गलती के कारण हमें राष्ट्र भाषा प्राप्त ना हुयी उसे दोहराना अनुचित है।==
    (१) संस्कृतमें २००० धातु, २२ उपसर्ग, और ८० प्रत्यय, केवल इन्हीके आधारपर ३५ लाख शब्द रचे जा सकते हैं। इससे अतिरिक्त समास, संधि इनका आधार ले तो संख्या अनेक गुना हो जाती है।{इतने तो “अर्थ” भी होते नहीं है}
    संस्कृतमें शब्द रचना का अनुपम शास्त्र है।{दुनियाकी किसी भाषामें यह शास्त्र इतना विकसित नहीं}
    (२)अभी किसी भी विशेष आर्थिक प्रोत्साहन बिना ही, हिंदी भारतमें कुछ फैली है। मुरारी बापु गुजरातमें भी तुलसी रामायण{संस्कृत प्रचुर हिंदी} पर ही प्रवचन करते हैं।
    (३)महाराष्ट्र में आठवले शास्त्री संस्कृत निष्ठ गुजराती और मराठी/हिंदी प्रयोगसे स्वाध्याय का प्रसार कर सके।
    (४) बंगलूरू प्रवासपर गया हुआ मेरा मित्र, रामानंद सागर के रामायण को दूर दर्शन पर देखने के लिए, बाहर आंगनमें खडी भीड में लोग इकठ्ठे देखकर चकित होता है। पूछनेपर पता चलता है, कि यह रामायण की हिंदी (संस्कृत निष्ठ) समझने में इन्हे कम कठिन प्रतीत होती है।
    (५)दक्षिण भारतीयों के नाम, जैसे रामन, कृष्णन, राधाकृष्णन, स्वामीनाथन ….इत्यादि संस्कृत ही होते हैं। डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी(स्वतः तमिल है) ने कहा, कि ३० से ४० % शब्द तमिल में भी संस्कृत ही है।तेलगु, मल्ल्याळम,कन्नड की स्थिति ऐसी ही मानता हूं।
    (६ ) पाठ: (जो उत्तर भारतीयों के लिए समझने में शायद कठिन है) कि, “==दक्षिण में भी संस्कृत प्रचुर (बहुल) राष्ट्र भाषा स्वीकृत कराना सरल है।==” उत्तर भारतीय इस बिंदुकी ओर दुर्लक्ष्य़ करके हिंदी की हानि (की थी) और करते हैं।आज तक की गलतियां फिरसे ना दोहराएं। आप राष्ट्र भाषाकी हानि कर सकते हैं।
    (७) इसे “राष्ट्र **भाषा भारती** ”{हिंदी नहीं} नाम देनेसे और ==”
    (८) सारे **”गैर उत्तर भारतियों की समिति”** गठित करनेसे काम सरल(?) होगा।
    (९) व्याकरण खडी बोलीका, शब्द सारी(तमिल — कश्मिर, उर्दु सहित सभी) भाषाओंसे लिए गए, हो। नौकरियों में उन्नति “भाषा भारती” के आधारपर हो। फिर देखिए “भाषा भारती” आगे बढती है, या नहीं? बहुत कुछ कहना है, पर संक्षेप में अभी यहीं छोडता हूं।मैंने इस विषयपर कुछ चिंतन/मनन/विचार/लेखन किया है।
    मैं संघसे किसी भी शाला/कालेजसे नहीं,हिंदी सीख सका हूं, जो आपके सामने हैं।
    (१०)वैसे कोई प्रश्न खडा होता है, तो (प्रवास पर हूं) २०/२१ सितंबर के बाद उसका उत्तर दूंगा।
    (११) टिप्पणीकार गुजराती मातृभाषी है।स्ट्रक्चरल(निर्माण अभियांत्रिकी) इन्जिनीयरिंग के प्रोफ़ेसर है, और निर्माण की शब्दावलि पर काम कर रहे हैं।
    University of Massachusetts at Dartmouth, USA

  7. अच्छी लेख के लिए धन्यवाद। इस देश में जो-जो नहीं होना चाहिए वही होता है उसी का नतीजा है कि हमें आज जहां होना चाहिए था आज हम वहां नहीं है। वैसे एक बात तो आपने सही कही कि हमें हिन्दी की याद भी आज ही के दिन आती है। आज ऐसे भी कई महान लोग हिन्दी पर लेख लिख रहे होंगे, जो व्यक्तिगत जीवन में अंग्रेजी को अधिक महत्व देते होंगे।

  8. “हिंदी दिवस पर विशेषः विलाप मत कीजिए, संकल्प लीजिए !” -by- संजय द्विवेदी

    हिन्दी को तुरंत और अधिक ऊँचाई पर ले जाने के संकल्प को प्राप्त करने के लिए सलमान खान फिल्म “दबंग” चुलबुल पाण्डेय का रोल अदा करना होगा.

    एक झटके में थ्री-ईडइट्स पीछे. तरककी हो तो एसी.

    सही निष्कर्ष : रोना – पीटना बंद.

    अंग्रेज़ी का अपना स्थान है. भारतीय भाषाएं बहनें हैं. किसी से कोई द्वेष नहीं.

    लगे रहो हिंदी प्रेमियों – आसमान की बुलन्दीयोँ को चूमना है.

    • “हिन्दी को तुरंत और अधिक ऊँचाई पर ले जाने के संकल्प” बहुत अच्छा विचार है लेकिन उस “को प्राप्त करने के लिए सलमान खान फिल्म “दबंग” चुलबुल पाण्डेय का रोल अदा करना होगा।” फिर से फिल्मों के घेरे में ला हमें केवल निष्क्रिय निठल्ला बनाना है।

  9. संजय द्विबेदी जी, आप का महेनत और महानता के लिए आभार ब्यक्त करतें हैं
    जय हिंदी, जय हिन्दुस्थान

  10. जब हक़ दिया नहीं जाता है तो वह छीन कर लिया जाता हा i लेकिन हिंद i ने यह भी नहीं किया वह तो भाषा के प्रवाह में सबको अपने में समाहित करके आगे बढ़त i चल i जा रही है. सब को अपना बना कर चल रही है. तभी जन मानस को जीत लिया है. संचार ने इसमें चार चाँद लगा कर और विस्तार दिया है. यहाँ से विदेशों तक और वहां से यहाँ तक हमर i और उनक i बैटन को पहुंचा रही है. कल ये विश्व के पटल पर अपना स्थान निश्चित कर लेगी .

  11. संयत ,तठस्थ तथा सार्थक लेख .इस जमीनी सच्चाई को हम जितना जल्दी समझ लें उतना ही अच्छा . साथ ही साथ ये भी की चुनौतियों में ही अवसर भी छुपे होते हैं . सिर्फ जनाश्रय के सहारे हिन्दी ने चुनौतियों को पछाड़ा है और अब तो अवसर ही अवसर हैं .

    अब विलाप नहीं आनंदोत्सव की और आगे कदम बढ़ाएं . जड़ता त्यागें दृढ़ता लायें .

    जय हिन्दी !

  12. हिन्दी दिवस को विलाप, चिंताओं का दिन बनाने के बतजाए हमें संकल्प का दिन बनाना होगा। यही संकल्प सही अर्थों में हिंदी को उसकी जगह दिलाएगा।
    बिलकुल सही कहा आपने

    हिन्दी दिवस पर शुभकामनाऐं
    विक्रम

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